महाभारतम्-02-सभापर्व-032
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दक्षिणदिग्विजये शूरसेनादीञ्जितवतः सहदेवस्य माहिष्मत्यां नीलेन सह युद्धम् ।। 1।।
नोलस्य अग्निसाहाय्यकरणकारणकथनम्।। 2।।
सहदेवस्तुत्या तुष्टस्याग्नेराज्ञया नीलेनार्चितस्य सहदेवस्य विभीषणात्करग् रहणार्थं घटोत्कचप्रेषणम्।। 3।।
वैशम्पाय उवाच।। | 2-32-1x |
तथैव सहदेवोऽपि धर्मराजेन पूजितः। महत्या सेनया राजन्प्रययौ दक्षिणां दिशम्।। | 2-32-1a 2-32-1b |
स शूरसेनान्कार्त्स्न्येन पूर्वमेवाजयत्प्रभुः। मत्स्यराजं च कौरव्यो वशे चक्रे बलाद्बली।। | 2-32-2a 2-32-2b |
अधिराजाधिपं चैव दन्तवक्रं महाबलम्। जिगाय करदं चैव कृत्वा राज्ये न्यवेशयत्।। | 2-32-3a 2-32-3b |
सुकुमारं वशे चक्रे सुमित्रं च नराधिपम्। तथैवापरमत्स्यांश्च व्यजयत्स पटच्चरान्।। | 2-32-4a 2-32-4b |
निषादभूमिं गोशृङ्गं पर्वतप्रवरं तथा। तरसैवाजयद्धीमाञ्श्रेणिमन्तं च पार्थिवम्।। | 2-32-5a 2-32-5b |
नरराष्ट्रं च निर्जित्य कुन्तिभोजमुपाद्रवत्। प्रीतिपूर्वं च तस्यासौ प्रतिजग्राह शासनम्।। | 2-32-6a 2-32-6b |
ततश्चर्मण्वतीकूले जम्भकस्यात्मजं नृपम्। ददर्श वासुदेवेन शेषितं पूर्ववैरिणा।। | 2-32-7a 2-32-7b |
चक्रे तेन स सङ्ग्रामं सहदेवेन भारत। स तमाजौ विनिर्जित्य दक्षिणाभिमुखो ययौ।। | 2-32-8a 2-32-8b |
सेकानपरसेकांश्च रत्नानि विविधानि च।। ततस्तेनैव सहितो नर्मदामभितो ययौ। | 2-32-9a 2-32-9b |
`भगदत्तं महाबाहुं क्षत्रियं नरकात्मजम्। अर्जुनाय करं दत्तं श्रुत्वा तत्र न्यवर्तत'।। | 2-32-10a 2-32-10b |
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ सैन्येन महतावृतौ। जिगाय समरे वीरावाश्विनेयः प्रतापवान्।। | 2-32-11a 2-32-11b |
ततो रत्नान्युपादाय पुरं भोजकटं ययौ। तत्र युद्धमभूद्राजन्दिवसद्वयमच्युत।। | 2-32-12a 2-32-12b |
स विजित्य दुराधर्षं भीष्मकं माद्रिनन्दनः। कोसलाधिपतिं चैव तथा वेणातटाधिपम्।। | 2-32-13a 2-32-13b |
कान्तारकांश्च समर तथा प्राकोटकान्नृपान्। नाटकेयांश्च समरे तथा हेरम्बकान्युधि।। | 2-32-14a 2-32-14b |
मारुधं च विनिर्जित्य रम्यग्राममथो बलात्। नाचीनानर्बुकांश्चैव राजानश्च महाबलः।। | 2-32-15a 2-32-15b |
तांस्तानाटविकान्सर्वानजयत्पाण्डुनन्दनः। नाताधिपं च नृपतिं वशे चक्रे महाबलः।। | 2-32-16a 2-32-16b |
पुलिन्दांश्च रणे जित्वा ययौ दक्षिणतः पुरः। युयुधे पाण्ड्यराजेन दिवसं नकुलानुजः।। | 2-32-17a 2-32-17b |
तं जित्वा स महाबाहुः प्रययौ दक्षिणापथम्। गुहामासादयामास किष्किन्धां लोकविश्रुताम्।। | 2-32-18a 2-32-18b |
`पुरा वानरराजेन वालिना चाभिरक्षिताम्। ततः कोसलराजस्य रामस्यैवानुगेन च। सुग्रीवेणाभिगुप्तां तां प्रविष्टस्तमथाह्वयत्'।। | 2-32-19a 2-32-19b 2-32-19c |
तत्र वानरराजाभ्यां मैन्देन द्विविदेन च। युयुधे दिवसान्सप्त न च तौ विकृतिं गतौ।। | 2-32-20a 2-32-20b |
ततस्तुष्टौ महात्मानौ सहदेवाय वानरौ। ऊचतुश्चैव संहृष्टौ प्रीतिपूर्वमिदं वचः।। | 2-32-21a 2-32-21b |
गच्छ पाण्डवशार्दूल रत्नान्यादाय सर्वशः। अविघ्नमस्त कार्याय धर्मराजाय धीमते।। | 2-32-22a 2-32-22b |
ततो रत्नान्युपादाय पुरीं माहिष्मतीं ययौ।। तत्र नीलेन राज्ञा स चक्रे युद्धं नरर्षभः।। | 2-32-23a 2-32-23b |
पाण्डवः परवीरघ्नः सहदेवः प्रतापवान्।। ततोऽस्य सुमहद्युद्धमासीद्भीरुभयङ्करम्।। | 2-32-24a 2-32-24b |
सैन्यक्षयकरं चैव प्राणानां संशयावहम्। चक्रे तस्य हि साहाय्यं भगवान्हव्यवाहनः।। | 2-32-25a 2-32-25b |
ततो रथा हया नागाः पुरुषाः कवचानि च। प्रतीप्तानि व्यदृश्यन्त सहदेवबले तदा।। | 2-32-26a 2-32-26b |
ततः सुसंभ्रान्तमना बभूव कुरुनन्दनः। नोत्तरं प्रतिवक्तुं च शक्तोऽभूज्जनमेजय।। | 2-32-27a 2-32-27b |
जनमेजय उवाच। | 2-32-28x |
किमर्थं भगवान्वह्निः प्रत्यमित्रोऽभवद्युधि। सहदेवस्य यज्ञार्थं घटमानस्य वै द्विज।। | 2-32-28a 2-32-28b |
वैशम्पायन उवाच। | 2-32-29x |
तत्र माहिष्मतीवासी भगवान्हव्यवाहनः। श्रूयते हि गृहीतो वै पुरस्तात्पारदारिकः।। | 2-32-29a 2-32-29b |
नीलस्य राज्ञो दुहिता बभूवतातीव शोभना। साऽग्निहोत्रमुपातिष्ठद्बोधनाय पितुः सदा।। | 2-32-30a 2-32-30b |
व्यजनैर्धूयमानोऽपि तावत्प्रज्वलते न सः।। यावच्चारुपुटौष्ठेन वायुना न विधूयते।। | 2-32-31a 2-32-31b |
ततः स भगवानग्निश्चकमे तां सुदर्शनाम्। नीलस्य राज्ञः सर्वेषामुपनीतश्च सोऽभवत्।। | 2-32-32a 2-32-32b |
ततो ब्रह्मणरूपेण रममाणो यदृच्छया।। चकमे तां वरारोहां कन्यामुत्पललोचनाम्।। तं तु राजा यथाशास्त्रमशासद्धार्मिकस्तदा।। | 2-32-33a 2-32-33b 2-32-33c |
प्रजज्वाल ततः कोपाद्भगवान्हव्यवाहनः। तं दृष्ट्वा विस्मितो राजा जगाम शिरसाऽवनिम्।। | 2-32-34a 2-32-34b |
ततः कालेन तां कन्यां तथैव हि तदा नृपः। प्रददौ विप्ररूपाय वह्रये शिरसा नतः।। | 2-32-35a 2-32-35b |
प्रतिगृह्य च तां सुभ्रुं नीलराज्ञः सुतां तदा। चक्रे प्रसादं भगवांस्तस्य राज्ञो विभावसुः।। | 2-32-36a 2-32-36b |
वरेण च्छन्दयामास तं नृपं स्विष्टकृत्तमः। अभयं च स जग्राह स्वसैन्ये वै महीपतिः।। | 2-32-37a 2-32-37b |
ततः प्रभृति ये केचिदज्ञानात्तां पुरीं नृपाः। जिगीषन्ति बलाद्राजंस्ते दह्यन्ते स्म वह्निना।। | 2-32-38a 2-32-38b |
स्यां पुर्यां तदा चैव माहिष्मत्यां कुरूद्वह। बभूवुरनतिग्राह्य योषितश्छन्दतः किल।। | 2-32-39a 2-32-39b |
एवमग्निर्वरं प्रादात्स्त्रीणामप्रतिवारणे। रिण्यस्तत्र च राजानस्तत्पुरं भरतर्षभ। | 2-32-40a 2-32-40b |
र्जयन्ति च राजानस्तत्पुरं भरतर्षभ। भयादग्नेर्महाराज तदाप्रभृति सर्वदा।। | 2-32-41a 2-32-41b |
सहदेवस्तु धर्मात्मा सैन्यं दृष्ट्वा भयार्दितम्। परीतमग्निना राजन्नाकम्पत यथाऽचलः। उपस्पृश्य शुचिर्भूत्वा सोऽब्रवीत्पावकं ततः।। | 2-32-42a 2-32-42b 2-32-42c |
सहदेव उवाच। | 2-32-43x |
त्वदर्थोऽयं समारम्भः कृष्णवर्त्मन्नमोस्तु ते। मुखं त्वमसि देवानां यज्ञस्त्वमसि पावक।। | 2-32-43a 2-32-44b |
पावनात्पावकश्चासि वहनाद्धव्यवाहनः। वेदास्त्वदर्थं जाता वै जातवेदास्ततो ह्यसि।। | 2-32-44a 2-32-44b |
चित्रभानुः सुरेशश्च अनलस्त्वं विभावसो। स्वर्गद्वारस्पृशश्चासि हुताशो ज्वलनः शिखी।। | 2-32-45a 2-32-45b |
वैश्वानरस्त्वं पिङ्गेशः प्लवङ्गो भूरितेजसः। कुमारसूस्त्वं भगवान्रुद्रगर्भो हिरण्यकृत्।। | 2-32-46a 2-32-46b |
अग्निर्ददातु मे तेजो वायुः प्राणं ददातु मे। पृथिवी बलमादध्याच्छिवं चापो दिशन्तु मे।। | 2-32-47a 2-32-47b |
अपां गर्भ महासत्व जातवेदः सुरेश्वर। देवानां मुखमग्ने त्वं सत्येन विपुनीहि माम्।। | 2-32-48a 2-32-48b |
ऋषिभिर्ब्राह्मणैश्चैव दैवतैरसुरैरपि। नित्यं सुहुत यज्ञेषु सत्येन विपुनीहि माम्।। | 2-32-49a 2-32-49b |
धूमकेतुः शिखी च त्वं पापहाऽनिसम्भवः। सर्वप्राणिषु नित्यस्थः सत्येन विपुनीहि माम्।। | 2-32-50a 2-32-50b |
एवं स्तुतोऽसि भगवन्प्रीतेन शिचिना मया। तुष्टिं पुष्टिं श्रुतं चैव प्रीति चाग्ने प्रयच्छ मे।। | 2-32-51a 2-32-51b |
वैशम्पायन उवाच। | 2-32-52x |
इत्येवं मन्त्रमाग्नेयं पठन्यो जुहुयाद्विभुम्। ऋद्धिमान्सततं दान्तः सर्वपापैः प्रमुच्यते।। | 2-32-52a 2-32-52b |
सहदेव उवाच। | 2-32-53x |
यज्ञविघ्नमिमं कर्तुं नार्हस्त्वं यज्ञवाहन। एवमुक्त्वा तु माद्रेयः कुशैरास्तीर्य मेदिनीम्।। | 2-32-53a 2-32-53b |
विधिवत्पुरुषव्याघ्रः पावकं प्रत्युपाविशत्। प्रमुखे तस्य सैन्यस्य भीतोद्विग्रस्य भारत।। | 2-32-54a 2-32-54b |
न चैनमत्यगाद्वह्निरुवाच महोदधिः। तमुपेत्य शनैर्वह्निरुवाच कुरुनन्दनम्।। | 2-32-55a 2-32-55b |
सहदेवं नृणां देवं सान्त्वपूर्वमिदं वचः। उत्तिष्ठोत्तिष्ठ कौरव्य जिज्ञासेयं कृता मया।। | 2-32-56a 2-32-56b |
वेद्मि सर्वमभिप्रायं तव धर्मसुतस्य च। मया तु रक्षितव्या पूरियं भरतसत्तम।। | 2-32-57a 2-32-57b |
यावद्राज्ञो हि नीलस्य कुले वंशधरा इति। ईप्सितं तु करिष्यामि मनसस्तव पाण्डव।। | 2-32-58a 2-32-58b |
तत उत्थाय हृष्टात्मा प्राञ्जलिः शिरसा नतः। पूजयामास माद्रेयटः पावकं भरतर्षभ।। | 2-32-59a 2-32-59b |
पावके विनिवृत्ते तु नीलो राजाऽभ्यगात्तदा। पावकस्याज्ञया चैनमर्चयामास पार्थिवः।। | 2-32-60a 2-32-60b |
सत्कारेण नरव्याघ्रं सहदेवं युधां पतिम्। प्रतिगृह्य च तां पूजां करे च विनिवेश्य च।। | 2-32-61a 2-32-61b |
माद्रीसुतस्ततः प्रायाद्विजयी दक्षिणां दिशम्। त्रैपुरं स वशे कृत्वा राजानममितौजसम्।। | 2-32-62a 2-32-62b |
निजग्राह महाबाहुस्तरसा पौरवेश्वरम्। आकृतिं कौशिकाचार्यं यत्ने महता ततः।। | 2-32-63a 2-32-63b |
वशे चक्रे महाबाहुः सुराष्ट्राधिपतिं तदा। सुराष्ट्रविषयस्थश्च प्रेषयामास रुक्मिणे।। | 2-32-64a 2-32-64b |
राज्ञे भोजकटस्थाय महामात्राय धीमते। भीष्मकायस धर्मात्मा साक्षादिन्द्रसखाय वै।। | 2-32-65a 2-32-65b |
च चास्य प्रतिजग्राह ससुतः शासनं तदा। प्रीतिपूर्वं महाराज वासुदेवमवेक्ष्य च।। | 2-32-66a 2-32-66b |
ततः स रत्नान्यादाय पुनः प्रायाद्युधां पतिः। ततः शूर्पारकं चैव तालाकटमथापि च।। | 2-32-67a 2-32-67b |
वशे चक्रे महातेजा दण्डकांश्च महाबलः। सागरद्वीपवासांश्च नृपतीन्म्लेच्छयोनिजान्।। | 2-32-68a 2-32-68b |
निषादान्पुरुषादांश्च कर्णप्रावरणानपि। ये च कालमुखा नाम नरराक्षसयोनयः।। | 2-32-69a 2-32-69b |
कृत्स्नं कोलगिरिं चैव सुरभीपट्टनं तथा। द्वीपं ताम्राह्वयं चैव पर्वतं रामकं तथा।। | 2-32-70a 2-32-70b |
तिमिङ्गिलं च स नृपं वशे कृत्वा महामतिः। एकपादांश्च पुरुषान्केरलान्वनवासिनः।। | 2-32-71a 2-32-71b |
नगरीं सञ्जयन्तीं च पाषण्डं करहाटकम्। दूतैरेव वशे चक्रे करं चैनानदापयत्।। | 2-32-72a 2-32-72b |
पाण्ड्यांश्च द्रविडांश्चैव सहितांश्चोड्रकेरलैः। अन्ध्रांस्तावनांश्चैव कलिङ्गानुष्ट्रकर्णिकान्।। | 2-32-73a 2-32-73b |
आटवीं च पुरीं रम्यां यवनानां पुरं तथा। दूतैरेव वशे चक्रे करं चैनानदापयत्।। | 2-32-74a 2-32-74b |
`तात्रपर्णी ततो गत्वा कन्यातीर्थमतीत्य च। दक्षिणां च दिशं सर्वा विजित्य कुरुनन्दनः।। | 2-32-75a 2-32-75b |
उत्तरं तीरमासाद्य सागरस्योर्मिमालिनः। चिन्तयामास कौन्तेयो भ्रातुः पुत्रं घटोत्कचम्।। | 2-32-76a 2-32-76b |
ततश्चिन्तितमात्रस्तु राक्षसः प्रत्यदृश्यत। तं मेरुशिखराकारमागतं पाण्डुनन्दनः।। | 2-32-77a 2-32-77b |
भृगुकच्छात्ततो धीमान्साम्नैवामित्रकर्शनः। आगम्यतामिति प्राह धर्मराजस्य शसनाः।। | 2-32-78a 2-32-78b |
स राक्षसपरीवारस्तं प्रणम्याशु संस्थितः। घटोत्कचं महात्मानं राक्षसं घोरदर्शनम्।। | 2-32-79a 2-32-79b |
तत्रस्थः प्रेषयामास पौलस्त्याय महात्मने'। बिभीषणाय धर्मात्मा प्रीतिपूर्वमरिन्दमः।। | 2-32-80a 2-32-80b |
स चास्य प्रतिजग्राह शासनं प्रीतिपूर्वकम्। तच्च कृष्णकृतं धीमानभ्यमन्यत स प्रभुः।। | 2-32-81a 2-32-81b |
ततः सम्प्रेषयामास रत्नानि विविधानि च। चन्दनागुरुकाष्ठानि दिव्यान्याभरणानि च।। | 2-32-82a 2-32-82b |
वासांसि च महार्हाणि मणींश्चैव महाधनान्।। | 2-32-82x |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि दिग्विजयपर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः।। 32।। |
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