महाभारतम्-02-सभापर्व-067
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शिशुपालेन राज्ञां प्रशंसनपूर्वकं गर्हितेन भीष्मेण राज्ञां तिरस्करणादिकम्।। 1।।
भीष्म उवाच।। | 2-67-1x |
नैषा चेदिपतेर्बुद्धिर्यया त्वाह्वयतेऽच्युतम्। नूनमेव जगद्भर्तुः कृष्णस्यैव विनिश्चयः। | 2-67-1a 2-67-1b |
को हि मां भीमसेनाद्य क्षितावर्हति पार्थिवः। क्षेप्तुं कालपरीतात्मा यथैष कुलपांसनः।। | 2-67-2a 2-67-2b |
एष ह्यस्य महाबाहुस्तेर्जोशश्च हरेर्ध्रुवम्। तमेव पुनरादातुं कुरुतेऽत्र मतिं हरिः।। | 2-67-3a 2-67-3b |
येनैष कुरुशार्दूल शार्दूल इव चेदिराट्। गर्जत्यतीव दुर्बुद्धिः सर्वानस्मानचिन्तयन्।। | 2-67-4a 2-67-4b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-67-5x |
ततो न ममृषे चैद्यस्तद्भीष्मवचनं तदा। उवाच चैन सङ्क्रुद्धः पुनर्भीष्ममथोत्तरम्।। | 2-67-5a 2-67-5b |
शिशुपाल उवाच।। | 2-67-6x |
द्विषतां नोऽस्तु भीष्मैष प्रभावः केशवस्य यः। यस्य संस्तववक्ता त्वं बन्दिवत्सततोत्थितः।। | 2-67-6a 2-67-6b |
संस्तवे चमनो भीष्म परेषां रमते यदि। तदा संस्तुहि राज्ञस्त्वमिमं हित्वा जनार्दनम्।। | 2-67-7a 2-67-7b |
दरदं स्तुहि बाह्लीकमिमं पार्थिवसत्तमम्। जायमानेन येनेयभवद्दारिता मही।। | 2-67-8a 2-67-8b |
वङ्गाङ्गविषयाध्यक्षं सहस्राक्षसमं बले। स्तुहि कर्णमिमं भीष्म महाचापविकर्षणम्।। | 2-67-9a 2-67-9b |
यस्येमे कुण्डले दिव्ये सहजे देवनिर्मिते। कवचं च महाबाहो बालार्कसदृशप्रभम्।। | 2-67-10a 2-67-10b |
वासवप्रतिमो येन जरासन्धोऽतिदुर्जयः। विजितो बाहुयुद्धेन देहभेदं च लम्भितः।। | 2-67-11a 2-67-11b |
द्रोणं द्रौणिं च साधु त्वं पितापुत्रौ महारथौ। स्तुहि स्तुत्यावुभौ भीष्म सततं द्विजसत्तमौ।। | 2-67-12a 2-67-12b |
ययोरन्यतरो भीष्म सङ्क्रुद्धः सचराचराम्। इमां वसुमतीं कुर्यान्निः शेषामिति मे मतिः।। | 2-67-13a 2-67-13b |
द्रोणस्य हि समं युद्धे न पश्यामि नराधिपम्। नाश्वत्थाम्नः समं भीष्म न च तौ स्तोतुमिच्छसि।। | 2-67-14a 2-67-14b |
पृथिव्यां सागरान्तायां यो वैप्रतिसमो भवेत्। दुर्योधनं त्वं राजेन्द्रमतिक्रम्य महाभुजम्।। | 2-67-15a 2-67-15b |
जयद्रथं च राजानं कृतास्त्रं दृढविक्रमम्। द्रुमं किम्पुरुषाचार्यं लोके प्रथितविक्रमम्। अतिक्रम्य महावीर्यं किं प्रशंससि केशवम्।। | 2-67-16a 2-67-16b 2-67-16c |
वृद्धं च भरताचार्यं तथा शारद्वतं कृपम्। अतिक्रम्य महावीर्यं किं प्रशंससि केशवम्।। | 2-67-17a 2-67-17b |
धनुर्धराणां प्रवरं रुक्मिणं पुरुषोत्तमम्। अतिक्रम्य महावीर्यं किं प्रशंससि केशवम्।। | 2-67-18a 2-67-18b |
भीष्मकं च महावीर्यं दन्तवक्त्रं च भूमिपम्। भगदत्तं यूपकेथु जयत्सेनं च मागधम्।। | 2-67-19a 2-67-19b |
विराटद्रुपदौ चोभौ शकुनिं च बहद्बलम्। विन्दानुविन्दावावन्त्यौ पाण्ड्यं श्वेतमथोत्तमम्।। | 2-67-20a 2-67-20b |
शङ्खं च सुमहाभागं वृषसेनं च मानिनम्। एकलव्यं च विक्रान्तं कालिङ्गं च महारथम्।। | 2-67-21a 2-67-21b |
अतिक्रम्य महावीर्यं किं प्रशंसति केशवम्। शल्यादीनपि कस्मात्त्वं न स्तौषि वसुधाधिपान्। स्तवाय यदि ते बुद्धिर्वर्तते भीष्म वसुधाधिपान्। | 2-67-22a 2-67-22b 2-67-22c |
किं हि शक्यं मया कर्तुं यद्वृद्धानां त्वया नृप। पुरा कथयतां नूनं न श्रुतं धर्मवादिनाम्।। | 2-67-23a 2-67-23b |
आत्मनिन्दात्मपूजा च परनिन्दा परस्तवः। अनाचरितमार्याणामिति ते भीष्म न श्रुतम्।। | 2-67-24a 2-67-24b |
यदस्तव्यमिमं शश्वन्मोहात्संस्तौषि भक्तितः। केशवं तच्च ते भीष्म न कश्चिदनुमन्यते।। | 2-67-25a 2-67-25b |
कथं भोजस्य पुरुषे वत्सपाले दुरात्मनि। समावेशयसे सर्वं जगत्केवलकाम्यया।। | 2-67-26a 2-67-26b |
अथ चैषा न ते बुद्धिः प्रकृतिं याति भारत। मयैव कथितं पूर्वं कुलिङ्गशकुनिर्यथा।। | 2-67-27a 2-67-27b |
कुलिङ्गशकुनिर्नाम पार्श्वे हिमवतः परे। भी तस्याः सदा वाचः श्रूयन्तेऽर्थविगर्हिताः।। | 2-67-28a 2-67-28b |
मा साहसमितीदं सा सततं वाशते किल। साहसं चात्मनातीव चरन्ती नावबुध्यते।। | 2-67-29a 2-67-29b |
सा हि मांसार्गलं भीष्म मुखात्सिंहस्य खादतः। दन्तान्तरविलग्नं यत्तदादत्तेऽल्पचेतना।। | 2-67-30a 2-67-30b |
इच्छतः सा हि सिंहस्य भीष्म जीवत्यसंशयम्। तद्वत्त्वमप्यधर्मिष्ठ सदा वाचः प्रभाषसे।। | 2-67-31a 2-67-31b |
इच्छतां भूमिपालानां भीष्म जीवस्यसंशयम्। लोकविद्विष्टकर्मा हि नान्योऽस्ति भवता समः।। | 2-67-32a 2-67-32b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-67-33x |
ततश्चेदिपतेः श्रुत्वा भीष्मः स कटुकं वचः। उवाचेदं वचो राजंश्चेदिराजस्य शृण्वतः।। | 2-67-33a 2-67-33b |
इच्छतां किल नामाहं जीवाम्येषां महीक्षिताम्। सोऽहं न गणयाम्येतांस्तृणेनापि नराधिपान्।। | 2-67-34a 2-67-34b |
एवमुक्ते तु भीष्मेण ततः सञ्चुक्रुशुर्नृपाः। केचिज्जहृषिरे तत्र केचिद्भीष्मं जगर्हिरे।। | 2-67-35a 2-67-35b |
केचिदूचुर्महेष्वासाः श्रुत्वा भीष्मस्य यद्वचः। पापोऽवलिप्तो वृद्धश्च नायं भीष्मोऽर्हति क्षमाम्।। | 2-67-36a 2-67-36b |
हन्यतां दुर्मतिर्भीष्मः पशुवत्साध्वयं नृपाः। सर्वैः समेत्य संरब्धैर्दह्यतां वा कटाग्निना।। | 2-67-37a 2-67-37b |
इति तेषां वचः श्रुत्वा ततः कुरुपितामहः। उवाच मतिमान्भीष्मस्तानेव वसुधाधिपान्।। | 2-67-38a 2-67-38b |
उक्तस्योक्तस्य नेहान्तमहं समुपलक्षये। यत्तु वक्ष्यामि तत्सर्वं शृणुध्वं वसुधाधिपाः।। | 2-67-39a 2-67-39b |
पशुवद्घातनं वा मे दहनं वा कटाग्निना। क्रियतां मूर्ध्नि वो न्यस्तं मयेदं सकलं पदम्।। | 2-67-40a 2-67-40b |
एष तिष्ठति गोविन्दः पूजितोऽस्माभिरच्युतः। यस्य वस्त्वरते बुद्धिर्मरणाय स माधवम्।। | 2-67-41a 2-67-41b |
कृष्णमाह्वयतामद्य युद्धे चक्रगदाधरम्। यादवस्यैव देवस्य देहं विशतु पातितः।। | 2-67-42a 2-67-42b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि शिशुपालवधपर्वणि सप्तषष्टितमोऽध्यायः।। 67 ।। |
2-67-15 वैप्रतिसमः विगतः प्रतिसमो यस्य स तथा। स्वार्थे तद्धितः। अतुल इत्यर्थः।। 2-67-27 कुलिङ्गशकुनिरिति स्त्रीपक्षिविशेषः।। 2-67-37 कटाग्निना कक्षाग्निना।।
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