महाभारतम्-02-सभापर्व-074
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युधिष्ठिरसभायां दुर्योधने निर्जलदेशे जलभ्रमेण परिधानमुत्कर्षति सति तथा स जलदेशे स्थलभ्रान्त्या भवनधानगमनेन जले पतति च सति भीमादिभिरुपहासः।। 1।। चिन्तातान्तं दुर्योधनं प्रति शकुनिना चिन्ताहेतुप्रश्ने दुर्योधनेन तत्कथन पूर्वकं धृतराष्ट्रे स्वदुः शनिवेदनाय शकुनिम्प्रति चोदनम्।। 2।।
वैशम्पायन उवाच।। | 2-74-1x |
वसन्दुर्योधनस्तस्यां सभायां पुरुषर्षभ। शनैर्ददर्श तां सर्वां सभां शकुनिना सह।। | 2-74-1a 2-74-1b |
तस्यां दिव्यानभिप्रायान्ददर्श कुरुनन्दनः। न दृष्टपूर्वा ये तेन नगरे नागसाह्वये।। | 2-74-2a 2-74-2b |
स कदाचित्सभामध्ये धार्तराष्ट्रो महीपतिः। स्फाटिकं स्थलमासाद्य जलमित्यभिशङ्कया।। | 2-74-3a 2-74-3b |
स्ववस्त्रोत्कर्षणं राजा कृतवान्बुद्धिमोहितः। दुर्मना विमुखश्चैव परिचक्राम तां सभाम्।। | 2-74-4a 2-74-4b |
ततः स्थले निपतितो दुर्मना व्रीडितो नृपः। निः श्वसन्विमुखश्चापि परिचक्राम तां सभाम्।। | 2-74-5a 2-74-5b |
ततः स्फाटिकतोयां वै स्फाटिकाम्बुजशोभिताम्। वापीं मत्वा स्थलमिव सवासाः प्रापतञ्जले।। | 2-74-6a 2-74-6b |
जले निपतितं दृष्ट्वा भीमसेनो महाबलः। जहास जहसुश्चैव किङ्कराश्च सुयोधनम्।। | 2-74-7a 2-74-7b |
वासांसि च शुभान्यस्मै प्रददू राजशासनात्। तथागतं तु तं दृष्ट्वा भीमसेनो महाबलः।। | 2-74-8a 2-74-8b |
अर्जुनश्च यमौ चोभौ सर्वे ते प्राहसंस्तदा। नामर्षयत्ततस्तेषामवहासममर्षणः।। | 2-74-9a 2-74-9b |
आकारं रक्षमाणस्तु न स तान्समुदैक्षत। पुनर्वसनमुत्क्षिप्य प्रतिरिष्यन्निव स्थलम्।। | 2-74-10a 2-74-10b |
आरुरोह ततः सर्वे जहसुश्च पुनर्जनाः। द्वारं तु पिहिताकारं स्फाटिकं प्रेक्ष्य भूमिपः। प्रविशन्नाहतो मूर्ध्नि व्याघूर्णित इव स्थितः।। | 2-74-11a 2-74-11b 2-74-11c |
तादृशं च परं द्वारं स्फाटिकोरुकवाटकम्। विघट्टयन्कराभ्यां तु निष्क्रम्याग्रे पपात हा।। | 2-74-12a 2-74-12b |
द्वारं तु वितताकारं समापेदे पुनश्च सः। तद्वृत्तं चेति मन्वानो द्वारस्थानादुपारमत्।। | 2-74-13a 2-74-13b |
एवं प्रलम्भान्विविधान्प्राप्य तत्र विशाम्पते। पाण्डवेयाभ्यनुज्ञातस्ततो दुर्योधनो नृपः।। | 2-74-14a 2-74-14b |
अपहृष्टेन मनसा राजसूये महाक्रतौ। प्रेक्ष्य तामद्भुतामृद्धिं जगाम गजसाह्वयम्।। | 2-74-15a 2-74-15b |
पाण्डवश्रीप्रतप्तस्य ध्यायमानस्य गच्छतः। दुर्योधनस्य नृपतेः पापा मतिरजायत।। | 2-74-16a 2-74-16b |
पार्थान्सुमनसो दृष्ट्वा पार्थिवांश्च वशानुगान्। कृत्स्नं चापि हितं लोकमाकुमारं कुरूद्वह।। | 2-74-17a 2-74-17b |
महिमानं परं चापि पाण्डवानां महात्मनाम्। दूर्योधनो धार्तराष्ट्रो विवर्णः समपद्यत।। | 2-74-18a 2-74-18b |
स तु गच्छन्ननेकाग्नः सभामेकोऽन्वचिन्तयत्। श्रियं च तामनुपमां धर्मराजस्य धीमतः।। | 2-74-19a 2-74-19b |
प्रमत्तो धृतराष्ट्रस्य पुत्रो दुर्योधनस्तदा। नाभ्यभाषत्सुबलजं भाषमाणं पुनः पुनः।। | 2-74-20a 2-74-20b |
अनेकाग्रं तु तं दृष्ट्वा शकुनिः प्रत्यभाषत। दुर्योधन कृतोमूलं निःश्वसन्निव गच्छसि।। | 2-74-21a 2-74-21b |
दुर्योधन उवाच।। | 2-74-22x |
दृष्ट्वेमां पृथिवीं कृत्स्नां युधिष्ठिरवशानुगाम्। जितामस्त्रप्रतापेन श्वेताश्वस्य महात्मनः।। | 2-74-22a 2-74-22b |
तं च यज्ञं तथाभूतं दृष्ट्वा पार्थस्य मातुल। यथा शक्रस्य देवेषु तथाभूतं महाद्युतेः।। | 2-74-23a 2-74-23b |
अमर्षेण तु सम्पूर्णो दह्यमानो दिवानिशम्। शुचिशुक्रागमे काले शुष्ये तोयमिवाल्पकम्।। | 2-74-24a 2-74-24b |
पश्य सात्वतमुख्येन शिशुपालो निपातितः। न च तत्र पुमानासीत्कश्चित्तस्य पदानुगः।। | 2-74-25a 2-74-25b |
दह्यमाना हि राजानः पाण्डवोत्थेन वह्निना। क्षान्तवन्तोऽपराधं ते को हि तत्क्षन्तुमर्हति।। | 2-74-26a 2-74-26b |
वासुदेवेन तत्कर्म यथाऽयुक्तं महत्कृतम्। सिद्धं च पाण्डुपुत्राणां प्रतापेन महात्मनाम्।। | 2-74-27a 2-74-27b |
तथाहि रत्नन्यादाय विविधानि नृपा नृपम्। उपातिष्ठन्त कौन्येयं वैश्या इव करप्रदाः।। | 2-74-28a 2-74-28b |
श्रियं तथागतं दृष्ट्वा ज्वलन्तीमिव पाण्डवे। अमर्षवशमापन्नो दह्यामि न तथोचितः।। | 2-74-29a 2-74-29b |
वह्निमेव प्रवेक्ष्यामि भक्षयिष्यामि वा विषम्। अपो वापि प्रवेक्ष्यामिन हि शक्ष्यामि जीवितुम्।। | 2-74-30a 2-74-30b |
को हि नाम पुमांल्लोके मर्षयिष्यति सत्ववान्। सपत्नानृद्ध्यतो दृष्ट्वा हीनमात्मानमेव च।। | 2-74-31a 2-74-31b |
सोऽहं न स्त्री न चाप्यस्त्री न पुमान्नापुमानपि। योऽहं तां मर्षयाम्यद्य तादृशीं श्रियमागताम्।। | 2-74-32a 2-74-32b |
ईश्वरत्वं पृथिव्याश्च वसुमत्तां च तादृशीम्। यज्ञं च तादृशं दृष्ट्वा मादृशः को न संञ्ज्वरेत्।। | 2-74-33a 2-74-33b |
अशक्तश्चैक एवाहं तामाहर्तुं नृपश्रियम्। सहायांश्च न पश्यामि तेन मृत्युं विचिन्तये।। | 2-74-34a 2-74-34b |
दैवमेव परं मन्ये पौरुषं च निरर्थकम्। दृष्ट्वा कुन्तीसुते शुद्धां श्रियं तामहतां तथा।। | 2-74-35a 2-74-35b |
कृतो यत्नो मया पूर्वं विनाशे तस्य सौबल। तच्च सर्वमतिक्रम्य संवृद्धोऽप्स्विव पङ्गजम्।। | 2-74-36a 2-74-36b |
न दैवं परं मन्ये पौरुषं च निरर्थकम्। धार्तराष्ट्राश्च हीयन्ते पार्था वर्धन्ति नित्यशः। कृष्णस्तु सुमनास्तेषां विवर्धयति सम्पदः'।। | 2-74-37a 2-74-37b 2-74-38c |
सोऽहं श्रियं च तां दृष्ट्वा सभां तां च तथाविधाम्। रक्षिभिश्चावहासं तं परितप्ये यथाऽग्निना।। | 2-74-38a 2-74-39b |
अमर्षं च समाविष्टं धृतराष्ट्रे निवेदय।। | 2-74-39a |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि चतुःसप्ततितमोऽध्यायः।। 74।। |
सभापर्व-073 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सभापर्व-075 |