महाभारतम्-02-सभापर्व-100
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युधिष्ठिरेण वनगमनाय भीष्माद्यामन्त्रणम्।। 1।। पाण्डवान्प्रति विदुरवचनम्।। 2।।
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-100-1x |
आमन्त्रयामि भरतांस्तथा वृद्धं पितामहम्।। राजानं सोमदत्तं च महाराजं च बाह्लिकम्।। | 2-100-1a 2-100-1b |
द्रोणं कृपं नृपांश्चान्यानश्वत्थामानमेव च। विदुरं धृतराष्ट्रं च धार्तराष्ट्रांश्च सर्वशः।। | 2-100-2a 2-100-2b |
सौमदत्तिं महावीर्यं विकर्णं च महामतिम्'। युयुत्सुं सञ्जयं चैव तथैवान्यान्सभासदः।। | 2-100-3a 2-100-3b |
गान्धारीं च महाभागां मातरं च तथा पृथाम्'। सर्वानामन्त्र्य गच्छामि द्रष्टाऽस्मि पुनरेत्य वः।। | 2-100-4a 2-100-4b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-100-5x |
न च किञ्चिदथोचुस्तं ह्रियाऽऽसन्ना युधिष्ठिरम्। मनोभिरेव कल्याणं दध्युस्ते तस्य धीमतः।। | 2-100-5a 2-100-5b |
विदुर उवाच।। | 2-100-6x |
आर्या पृथा राजपुत्री नारण्यं गन्तुमर्हति। सुकुमारी च वृद्धा च नित्यं चैव सुखोचिता।। | 2-100-6a 2-100-6b |
इह वत्स्यति कल्याणी सत्कृता मम वेश्मनि। इति पार्था विजानीध्वमगदं वोऽस्तु सर्वशः।। | 2-100-7a 2-100-7b |
पाण्डवा ऊचुः। | 2-100-8x |
तथेत्युक्त्वाऽब्रुवन्सर्वे यथा नो वदसेऽनघ। त्वं पितृव्यः पितृसमो वयं च त्वत्परायणाः।। | 2-100-8a 2-100-8b |
यथाऽऽज्ञापयसे विद्वंस्त्वं हि नः परमो गुरुः। यच्चान्यदपि कर्तव्यं तद्विधत्स्व महामते।। | 2-100-9a 2-100-9b |
विदुर उवाच।। | 2-100-10x |
युधिष्ठिर विजानीहि ममेदं भरतर्षभ। नाधर्मेण जितः कश्चिद्व्यथते वै पराजये।। | 2-100-10a 2-100-10b |
त्वं वै धर्मं विजानीषे युद्धे जेता धनञ्जयः। हन्ताऽरीणां भीमसेनो नकुलस्त्वर्थसङ्ग्रही।। | 2-100-11a 2-100-11b |
संयन्ता सहदेवस्तु धौम्यो ब्रह्मविदुत्तमः। धर्मार्थकुशला चैव द्रौपदी धर्मचारिणी।। | 2-100-12a 2-100-12b |
अन्योन्यस्य प्रियाः सर्वे तथैव प्रियदर्शनाः। परैरभेद्याः सन्तुष्टाः को वोन न स्पृहयेदिह।। | 2-100-13a 2-100-13b |
एष वै सर्वकल्याणः समाधिस्तव भारत। नैनं शत्रुर्विषहते शक्रेणापि समोऽप्युत।। | 2-100-14a 2-100-14b |
हिमवत्यनुशिष्टोऽसि मेरुसावर्णिना पुरा। द्वैपायनेन कृष्णेन नगरे वारणावते।। | 2-100-15a 2-100-15b |
भृगुतुङ्गे च रामेण दृष्टद्वत्यां च शम्भुना। अश्रौषीरसि तस्यापि महर्षेरञ्जनं प्रति।। | 2-100-16a 2-100-16b |
कल्माषीतीरसंस्थस्य गतस्त्वं शिष्यतां भृगोः। द्रष्टा सदा नारदस्ते धौम्यस्तेऽयं पुरोहितः।। | 2-100-17a 2-100-17b |
माहासीः साम्पराये त्वं बुद्धिं तामृषिपूजिताम्। पुरूरवसमैलं त्वं बुद्ध्या जयसि पाण्डव।। | 2-100-18a 2-100-18b |
शक्त्या जयसि राज्ञोऽन्यानृषीन्धर्गोपसेवया। ऐन्द्रे जये धृतमना याम्ये कोपविधारणे।। | 2-100-19a 2-100-19b |
तथा विसर्गे कौबेरे वारुणे कोपविधारणे।। आत्मप्रदानं सौम्यत्वमद्भ्यश्चैवोपजीवनम्।। | 2-100-20a 2-100-20b |
भूमेः क्षमा च तेजश्च समग्रं सूर्यमण्डलात्। वायोर्बलं प्राप्नुहि त्वं भूतेभ्यश्चात्मसम्पदम्।। | 2-100-21a 2-100-21b |
अगदं वोऽस्तु भद्रं वो द्रष्टाऽस्मि पुनरागतान्। आपद्धर्मार्थकृच्छ्रेषु सर्वकार्येषु वा पुनः।। | 2-100-22a 2-100-22b |
यथावत्प्रतिपद्येथाः काले काले युधिष्ठिर। आपृष्टोऽसीह कौन्तेय स्वस्ति प्राप्नुहि भारत।। | 2-100-23a 2-100-23b |
कृतार्थं स्वस्मिमन्तं त्वां द्रक्ष्यामः पुनरागतम्। न हि वो वृजिनं किञ्चिद्वेद कश्चित्पुराकृतम्।। | 2-100-24a 2-100-24b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-100-25x |
एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा पाण्डवः सत्यविक्रमः। भीष्मद्रोणौ नमस्कृत्य प्रातिष्ठत युधिष्ठिरः।। | 2-100-25a 2-100-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि |
2-100-14 समाधिर्मनः स्वास्थ्यकरो नियमः।।
2-100-19 विधारणे नियमने ।। 2-100-20 विसर्गे दाने। संयमे वशीकरणे । उपजीवनं जीवनहेतुत्वम्।।
सभापर्व-099 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सभापर्व-101 |