महाभारतम्-02-सभापर्व-017

विकिस्रोतः तः
← सभापर्व-016 महाभारतम्
द्वितीयपर्व
महाभारतम्-02-सभापर्व-017
वेदव्यासः
सभापर्व-018 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103

युधिष्ठिरेण जरासन्धप्रभावप्रश्ने श्रीकृष्णेन तदुपोद्घाततया बृहद्रथराजोपा ख्यानकथनारम्भः।। 1।। अपुत्रस्य बृहथस्य पत्नीभ्यां सह तपोवनगमनम्।। 2।। तत्र चण्डकौशिकमुनिना बृहद्रथाय पुत्रीयाम्रफलदानम्।। 3।। प्रविभक्ततत्फलभोजनेन सञ्जातगर्भयोस्तद्भार्ययोः पृथगेकैकशरीरखण्डसम्भवः।।4।। तत्पत्नीभ्यां दासीद्वारा बहिस्त्याजितयोः खण्डयोः जरानाम्न्या राक्षस्या स न्धानाजरासन्धसम्भवः।। 5।। बालकं गृहीत्वा आगतया जरया सह बृहद्रथस्य संवादः।। 6।।

वासुदेव उवाच।। 2-17-1x
जातस्य भारते वंशे तथा कुन्त्याः सुतस्य च।
या वै युक्ता मतिः सेयमर्जुनेन प्रदर्शिता।।
2-17-1a
2-17-1b
न स्म मृत्युं वयं विद्म रात्रौ वा यदि वा दिवा।
न चापि कञ्चिदमरमयुद्धेनानुशुश्रुम।।
2-17-2a
2-17-2b
एतावदेव पुरुषैः कार्यं हृदयतोषणम्।
नयेन विधिदृष्टेन यदुपक्रमते परान्।।
2-17-3a
2-17-3b
सुनयस्यानपायस्य संयोगे परमः क्रमः।
सङ्गत्या जायतेऽसाम्यं साम्यं च न भवेद्द्वयोः।।
2-17-4a
2-17-4b
अनयस्यानुपायस्य संयुगे परमः क्षयटः।
संशयो जायते साम्याज्जयश्च न भवेद्द्वयोः।।
2-17-5a
2-17-5b
ते वयं नयमास्थाय शत्रुदेशसमीपगाः।
कथमन्तं न गच्छेम वृक्षस्येव नदीरयाः।।
पररन्ध्रे पराक्रान्ताः स्वरन्ध्रावरणे स्थिताः।।
2-17-6a
2-17-6b
2-17-6c
व्यूढानीकैरतिबलैर्न युद्व्येदरिभिः सह।
इति बुद्धिमतां नीतिस्तन्ममापीह रोचते।।
2-17-7a
2-17-7b
अनवद्या ह्यसम्बुद्धाः प्रविष्टाः शत्रुसद्म तत्।
शत्रुदेशमुपाक्रम्य तं कामं प्राप्नुयामहे।।
2-17-8a
2-17-8b
एको ह्येव श्रियं नित्यं बिभर्ति पुरुषर्षभः।
अन्तरात्मेव भूतानां तत्क्षयं नैव लक्षये।।
2-17-9a
2-17-9b
अथवैनं निहत्याजौ शेषेणापि समाहताः।
प्राप्नुयाम ततः स्वर्गं ज्ञातित्राणपरायणाः।।
2-17-10a
2-17-10b
युधिष्ठिर उवाच।। 2-17-11x
कृष्ण कोऽयं जरासन्धः किंवीर्यः किम्पराक्रमः।
यस्त्वां स्पृष्ट्वाऽग्निसदृशं न दग्धः शलभो यथा।।
2-17-11a
2-17-11b
कृष्ण उवाच।। 2-17-12x
शृणु राजञ्जरासन्धो यद्वीर्यो यत्पराक्रमः।
यथा चोपेक्षितोऽस्माभिर्बहुशः कृतविप्रियः।।
2-17-12a
2-17-12b
अक्षौहिणीनां तिसृणां पतिः समरदर्पितः।
राजा बृहद्रथो नाम मगधाधिपतिर्बली।।
2-17-13a
2-17-13b
रूपवान्वीर्यसम्पन्नः श्रीमानतुलविक्रमः।
नित्यं दीक्षाङ्किततनुः शतक्रतुरिवापरः।।
2-17-14a
2-17-14b
तेजसा सूर्यसङ्काशः क्षमया पृथिवीसमः।
यश्चान्तकसमः क्रोधे श्रिया वैश्रवणोपमः।।
2-17-15a
2-17-15b
`स्वराज्यं कारयामास मगधेषु गिरिव्रजे'।
तस्याभिजनसंयुक्तैर्गणैर्भरतसत्तम।
व्याप्तेयं पृथिवी सर्वा सूर्यस्येव गभस्तिभिः।।
2-17-16a
2-17-16b
2-17-16c
स काशिराजस्य सुते यमजे भरतर्षभः।
उपयेमे महावीर्यो रूपद्रविणसंयुते।
तयोश्चकार समयं मिथः स पुरुषर्षभः।।
2-17-17a
2-17-17b
2-17-17c
नातिवर्तिष्य इत्येवं पत्नीभ्यां सन्निधौ तदा।
स ताभ्यां शुशुभे राजा पत्नीभ्यां वसुधाधिपः।।
2-17-18a
2-17-18b
प्रियाम्भामनुरूपाभ्यां करेणुभ्यामिव द्विपः।
तयोर्मध्यगतश्चापि रराज वसुधाधिपः।।
2-17-19a
2-17-19b
गङ्गायमुनयोर्मध्ये मूर्तिमानिव सागरः।
विषयेषु निमग्रस्य तस्य यौवनमत्यगात्।।
2-17-20a
2-17-20b
न च वंशकरः पुत्रस्तस्याजायत कश्चन।
मङ्गलैर्बभिर्होमैः पुत्रकामाभिरिष्टिभिः।।
2-17-21a
2-17-21b
नाससाद नृपश्रेष्ठः पुत्रं कुलविवर्धनम्।
स भार्याभ्यां च सहितो निर्वेदमगमद्धृशम्।।
2-17-22a
2-17-22b
`राज्यं चापि परित्यज्य तपोवनमथाश्रयत्। '
वार्यमाणः प्रकृतिभिर्नृपभक्त्या विशाम्पते'।।
2-17-23a
2-17-23b
अथ काक्षीवतः पुत्रं गौतमस्य महात्मनः।।
शुश्राव तपसि श्रेष्ठमुदारं चण्डकौशिकम्।।
2-17-24a
2-17-24b
यदृच्छयाऽऽगतं तं तु वृक्षमूलमुपाश्रितम्।
पत्नीभ्यां सहितो राजा सर्वयत्नैरतोषयत्।।
2-17-25a
2-17-25b
`बृहद्रथं च स ऋषिर्यथावच्चाभ्यनन्दत। '
उपविष्टः स तेनाथ अनुज्ञातो महात्मना।।
2-17-26a
2-17-26b
तमपृच्छत्तदा विप्रः किमागमनमित्यथ।
विप्रैरनुगतस्यैव पत्नीभ्यां सहितस्य च।।
2-17-27a
2-17-27b
स उवाच मुनिं राजा भगवन्नास्ति मे सुतः।
अपुत्रस्य तु राज्येन वृद्धत्वे किं प्रयोजनम्।।
2-17-28a
2-17-28b
सोऽहं तपश्चरिष्यामि पत्नीभ्यां सहितो वने।
नाप्रजस्य मुने किर्तिः स्वधा चैवाक्षया भवेत्।
एवमुक्तः स राज्ञा तु मुनिः कारुण्यमागतः।।
2-17-29a
2-17-29b
2-17-29c
तमब्रवीत्सत्यधृतिः सत्यवागृषिसत्तमः।
परितुष्टोऽस्मि राजेन्द्र वरं वरय सुव्रत।।
2-17-30a
2-17-30b
ततः सभार्यः प्रणतस्तमुवाच बृहद्रथः।
पुत्रदर्शननैराश्याद्बाष्पसन्दिग्धया गिरा।।
2-17-31a
2-17-31b
राजोवाच।। 2-17-32x
भगवन् राज्यमुत्सृज्य प्रस्थितस्य तपोवनम्।
किं वरेणाल्पभाग्यस्य किं राज्येनाप्रजस्य मे।।
2-17-32a
2-17-32b
कृष्ण उवाच। 2-17-33x
एतच्छ्रुत्वा मुनिर्ध्यानमगमन्क्षुभितेन्द्रियः।
तस्यैव चाम्रवृक्षस्य छायायां समुपाविशत।।
2-17-33a
2-17-33b
तस्योपविष्टस्य मुनेरुत्सङ्गे निपपात ह।
अवानमशुकादष्टमेकमाम्रफलं किल।।
2-17-34a
2-17-34b
तत्प्रगृह्य मुनिश्रेष्ठो हृदयेनाभिमन्त्र्य च।
राज्ञे ददावप्रतिमं पुत्रसम्प्राप्तिकारणम्।।
2-17-35a
2-17-35b
उवाच च महाप्राज्ञस्तं राजानं महामुनिः।
गच्छ राजन्कृतार्थोऽसि निवर्तस्व नराधिप।।
2-17-36a
2-17-36b
`एष ते तनयो राजन्मा तपेह तपोवने।
प्रजाः पालय धर्मेण एव धर्मो महीक्षिताम्।।
2-17-37a
2-17-37b
यजस्व विविधैर्यज्ञैरिन्द्रं तर्पय चेन्दुना।
पुत्रं राज्ये प्रतिष्ठाप्य तत आश्रममाव्रज।।
2-17-38a
2-17-38b
अष्टौ वरान्प्रयच्छामि तव पुत्रस्य पार्थिव।
ब्रह्मण्यत्वमजेयत्वं युद्धेषु च तथा मतिः।।
2-17-39a
2-17-39b
प्रियातिथेयतां चैव दीनानामन्ववेक्षणम्।
तथा बलं च सुभहल्लोके कीर्ति च शाश्वतीम्।।
2-17-40a
2-17-40b
अनुरागं प्रजानां चेत्येवमष्टौ वरान्नृप।
गच्छ त्वं कृतकृत्योऽसि निवर्तस्व जनाधिप'।।
2-17-41a
2-17-41b
अनुज्ञातः स ऋषिणा पत्नीभ्यां सहितो नृपः।
पौरैरनुगतश्चापि विवेश स्वपुरं ततः।।
2-17-42a
2-17-42b
यथासमयमाज्ञाय तदा स नृपसत्तमः।
द्वाभ्यामेकं फलं प्रादात्पत्नीभ्यां भरतर्षभ।।
2-17-43a
2-17-43b
मुनेश्च बहुमानेन कालस्य च विपर्ययात्।
ते तदाम्रं द्विधा कृत्वा भक्षयामासतुः शुभे।
2-17-44a
2-17-44b
तयोः समभवद्गर्भः फलप्राशनसम्भवः।
ते च दृष्ट्वा स नृपतिः परां मुदमवाप ह।।
2-17-45a
2-17-45b
अथ काले महाप्राज्ञ यथासमयमागते।
जायेतामुभे राजञ्शरीरशकले तदा।।
2-17-46a
2-17-46b
एकाक्षिबाहुचरणे अर्धोदरमुखस्फिचे।
दृष्ट्वा शरीरशकले प्रवेपतुरुभे भृशम्।।
2-17-47a
2-17-47b
उद्विग्रे सह संमन्त्र्य ते भगित्यौ तदाऽबले।
सजीवे प्राणिशकले तत्यजाते सुदुःखिते।।
2-17-48a
2-17-48b
तयोर्धात्र्यौ सुसंवीते कृत्वा ते गर्भसम्प्लवे।
निर्गम्यान्तः पुरद्वारात्समुत्सृज्याभिजग्मतुः।।
2-17-49a
2-17-49b
`दुकूलाभ्यां सुसञ्छन्ने पाण्डराभ्यामुभे तदा।
अज्ञाते कस्यचित्ते तु जहतुस्ते चतुष्पथे।।
2-17-50a
2-17-50b
ततो विविशतुर्धात्र्यौ पुनरन्तः पुरं तदा।
कथयामासतुरुभे देवीभ्यां तु पृथक्पृथक्'।।
2-17-51a
2-17-51b
ते चतुष्पथनिक्षिप्ते जरा नामाथ राक्षसी।
जग्राह मनुजव्याघ्र मांसशोणितभोजना।।
2-17-52a
2-17-52b
कर्तुकामा सुखवहे शकले सा तु राक्षसी।
संयोजयामास तदा विधानबलचोदिता।।
2-17-53a
2-17-53b
ते समानीतमात्रे तु शकले पुरुषर्षभ।
एकमूर्तिधरो वीरः कुमारः समपद्यत।।
2-17-54a
2-17-54b
ततः सा राक्षसी राजन्विस्मयोत्फुल्ललोचना।
न शशाक समुद्वोदुं वज्रसारमयं शिशुम्।।
2-17-55a
2-17-55b
बालस्ताम्रतलं मुष्टिं कृत्वा चास्ये निधाय सः।
प्राक्रोशदतिसंरब्धः सतोय इव तोयदः।।
2-17-56a
2-17-56b
तेन शब्देन सम्भ्रान्तः सहसाऽन्तः पुरे जनः।
निर्जगाम नरव्याघ्र राज्ञा सह परन्तप।।
2-17-57a
2-17-57b
ते चाबले परिम्लाने पयः पूर्णपयोधरे।
निराशे पुत्रलाभाय सहसैवाब्यगच्छताम्।।
2-17-58a
2-17-58b
ते च दृष्ट्वा तथाभूते राजानं चेष्टसंततिम्।
तं च बालं सुबलिनं चिन्तयामास राक्षसी।।
2-17-59a
2-17-59b
नार्हामि विषये राज्ञो वसन्ती पुत्रगृद्धिनः।
बालं पुत्रमिमं हन्तुं धार्मिकस्य महात्मनः।।
2-17-60a
2-17-60b
सा तं बालमुपादाय मेघलेखेन भास्करम्।
कृत्वा च मानुषं रूपमुवाच वसुधाधिपम्।।
2-17-61a
2-17-61b
बृहद्रथ सुतस्तेऽयं मया दत्तः प्रगृह्यताम्।
तव पत्नीद्वये जातो द्विजातिवरशासनात्।
धात्रीजनपरित्यक्तो मयाऽयं परिरक्षितः।।
2-17-62a
2-17-62b
2-17-62c
कृष्ण उवाच। 2-17-63x
ततस्ते भरतश्रेष्ठ काशिराजसुते शुभे।
तं बालमभिपद्याशु प्रस्रवैरभ्यषिञ्जताम्।।
2-17-63a
2-17-63b
ततः स राजा संहृष्टः सर्वं तदुपलभ्य च।
अपृच्छद्धेमगर्भाभां राक्षसीं तामराक्षसीम्।।
2-17-64a
2-17-64b
कात्वं कमलगर्भाभे मम पुत्रप्रदायिनी।
कामं मा ब्रूहि कल्याणि देवता प्रतिभासि मे।।
2-17-65a
2-17-65b
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
मन्त्रपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः।। 17।।

2-17-4 क्रमः उपक्रमः।।

2-17-9 तत्क्षये बलक्षयः इति पाठः।। 2-17-34 अवानमशुष्कं सरसमिति यावत्। अमारुतमनाविद्धं इति घ.पाठः।। 2-17-46 प्रजायेतां सुषुवतुः।। 2-17-47 स्फिक् कट्या अधोभागः।। 2-17-53 सुखवहे एकीकृतयोर्वहनं हि सुखेन भवतीति प्रसिद्धम्।। 2-17-54 समानीतमात्रे संयोजितमात्रे।। 2-17-64 अराक्षसी वेषतः।।

सभापर्व-016 पुटाग्रे अल्लिखितम्। सभापर्व-018
"https://sa.wikisource.org/w/index.php?title=महाभारतम्-02-सभापर्व-017&oldid=50309" इत्यस्माद् प्रतिप्राप्तम्