महाभारतम्-02-सभापर्व-046

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  103. 103

हिरण्यकशिपुना समुद्रे तपश्ररणम्।। 1।। तपः प्रसन्नेन ब्रह्मणा तस्मै वरदानम्।।2।। तस्य वरप्राप्त्या भीतानां देवानां ब्रह्मणा परिसान्त्वनम्।। 3।। हिरण्यकशइपुना त्रैलोक्यपीडने आत्मानं शरणं गतानां देवानां श्रीहरिणाऽभयप् रदानम्।। 4।। नृसिंहरूपिणा हरिणा हिरण्यकशिपुहननम्।। 5।।

भीष्म उवाच। 2-46-1x
दैत्येन्द्रो बलवान्त्राजन्सुरारिर्बलगर्वितः।
हिरण्यकशिपुर्नाम आसीत्रैलोक्यकण्टकः।।
2-46-1a
2-46-1b
दैत्यानामादिपुरुषो वीर्येणाप्रतिमो बली।
प्रविश्य जलधं राजंश्चकार तप उत्तमम्।।
2-46-2a
2-46-2b
दशवर्षसहस्राणि शतानि दश पञ्च च।
व्रतोपवासतस्तस्थौ स्याणुमौनव्रतो दृढः।।
2-46-3a
2-46-3b
ततः शमदमाभ्यां च ब्रह्मचर्येण चानघ।
ब्रह्मा प्रीतमनास्तस्य तपसा नियमेन च।।
2-46-4a
2-46-4b
ततः स्वयम्भूर्भगवान्स्वयमागम्य भूपते।
विमानेनार्कवर्णेन हंसयुक्तेन भास्वता।।
2-46-5a
2-46-5b
आदित्यैर्वसुभिः साध्यैर्मरुद्भिर्दैवतैस्तथा।
रुद्रैर्विश्वसहायैश्च यक्षराक्षसकिन्नरैः।।
2-46-6a
2-46-6b
दिशाभिर्विदिशाभिश्च नदीभिः सागरैः सह।
नक्षत्रैश्च मुहूर्तैश्च खेचरैश्चापरैर्ग्रहैः।।
2-46-7a
2-46-7b
देवर्षिभिस्तपोयुक्तैः सिद्धैः सप्तर्षिभिस्तदा।
राजर्षिभिः पुण्यतमैर्गन्धर्वैरप्सरोगणैः।।
2-46-8a
2-46-8b
चराचरगुरुः श्रीमान्वृतः सर्वसुरैस्तथा।
ब्रह्मा ब्रह्मविदां श्रेष्ठो दैत्यमागम्य चाब्रवीत्।।
2-46-9a
2-46-9b
प्रीतोऽस्मि तव भक्तस्य तपसाऽनेन सुव्रत।
वरं वरय भद्रं ते यथेष्टं काममाप्नुहि।।
2-46-10a
2-46-10b
हिरण्यकशिपुरुवाच। 2-46-11x
न देवा न च गन्धर्वा न यक्षोरगराक्षसाः।
न मानुषाः पिशाचाश्च हन्युर्मां देवसत्तम।।
2-46-11a
2-46-11b
ऋषयो वा न मां शापैः क्रुद्धा लोकपितामह।
शपेयुस्तपसा युक्ता वर एष वृतो मया।।
2-46-12a
2-46-12b
न शस्त्रेण नचास्त्रेण गिरिणा पादपेन च।
न शुष्केण न चार्देण स्यान्न वाऽन्येन मे वधः।।
2-46-13a
2-46-13b
नाकाशे नाथ भूमौ वा रात्रौ वा दिवसेपि वा।
नान्तर्वा न बहिर्वापि स्याद्वधो मे पितामह।।
2-46-14a
2-46-14b
पशुभिर्वा मृगैर्न स्यात्पक्षिभिर्वा सरीसृपैः।
ददासि चेद्वरानेतन्देवदेव वृणोम्यहम्।।
2-46-15a
2-46-15b
ब्रह्मोवाच। 2-46-16x
एते दिव्या वरास्तात मया दत्तास्तवाद्भुताः।
सर्वकामवरांस्तात प्राप्स्यसि त्वमसंशयम्।।
2-46-16a
2-46-16b
एवमुक्त्वा स भगवाञ्जगामाकाशमेव हि।
रराज ब्रह्मलोके हि ब्रह्मर्षिगणसेवितः।।
2-46-17a
2-46-17b
ततो देवाश्च नागाश्च गन्धर्वा मुनयस्तथा।
वरप्रदानं श्रुत्वैव ते ब्रह्माणमुपस्थितः।।
2-46-18a
2-46-18b
देवा ऊचुः। 2-46-19x
वरेणाने भगवन्बाधिष्यति स नोऽसुरः।
तत्प्रसीदस्व भगवन्वधोपायोऽस्य चिन्त्यताम्।।
2-46-19a
2-46-19b
भीष्म उवाच।। 2-46-20x
ततो लोकहितं वाक्यं श्रुत्वा देवः प्रजापतिः।
प्रोवाच भगवान्वाक्यं सर्वदेवगणांस्तदा।।
2-46-20a
2-46-20b
अवश्यं त्रिदशास्तेन प्राप्तव्यं तपसः फलम्।
तपसोऽन्तेऽस्य भगवान्वधं कृष्णः करिष्यति।।
2-46-21a
2-46-21b
एतच्छ्रुत्वा सुराः सर्वे ब्रह्मणा तस्य वै वधम्।
स्वानि स्थानानि दिव्यानि जग्मुस्ते वै मुदान्विताः।।
2-46-22a
2-46-22b
लब्धमात्रे वरे चापि सर्वास्ता बाधते प्रजाः।
हिरण्यकशिपुर्दैत्यो वरदानेन दर्पितः।।
2-46-23a
2-46-23b
राज्यं चकार दैत्येन्द्रो दैत्यसङ्घैः समावृतः।
सप्तद्वीपान्वशेचके लोकालोकान्तरं बलात्।।
2-46-24a
2-46-24b
दिव्यभोगान्समस्तान्वै लोके सर्वानवाप सः।
देवांस्त्रिभुवनस्थांस्तु पराजित्य महासुरः।।
2-46-25a
2-46-25b
त्रैलोक्यं वशमानीय स्वर्गे वसति दानवः।
यदा वरमदोन्मत्तो न्यवसद्दानवो दिवि।।
2-46-26a
2-46-26b
अथ लोकान्सगस्तांश्च विजित्य स महाबलः।
भवेयमहमेवेन्द्रः सोमोऽग्निर्मारुतो रविः।।
2-46-27a
2-46-27b
सलिलं चान्तरिक्षं च नक्षत्राणि दिशो दश।
अहं क्रोधश्च कामश्च वरुणो वसवोऽर्यमा।।
2-46-28a
2-46-28b
धनदश्च धनाध्यक्षो यक्षकिम्पुरुषाधिपः।
एते भवेयमित्युक्त्वा स्वयं भूत्वा बलात्स च।।
2-46-29a
2-46-29b
एषां गृहीत्वा स्थानानि तेषां कार्याण्यवाप सः।
इज्यश्चासीन्मखवरैर्देवकिन्नरसत्तमैः।।
2-46-30a
2-46-30b
नरकस्थान्समानीय स्वर्गस्थांश्च चकार सः।
एवमादीनि कर्माणि कृत्वा दैत्यपतिर्बली।।
2-46-31a
2-46-31b
आश्रमेषु महाभागान्मुनीन्वै शंसितव्रतान्।
सत्यधर्मपरान्दान्तान्पुरा धर्षितवांस्तु सः।।
2-46-32a
2-46-32b
याज्ञीयान्कृतबान्दैत्यन्याजकांश्चैव देवताः।
यत्रयत्र सुरा जग्मुस्तत्रतत्र व्रजत्युत।।
2-46-33a
2-46-33b
स्थानानि देवतानां तु हृत्वा राज्यमकारयत्।
पञ्चकोट्यश्च वर्षाणि अयुतान्येकषष्टि च।।
2-46-34a
2-46-34b
षष्टिश्चैव सहस्राणां जग्मुस्तस्य दुरात्मनः।
एतद्वर्षं स दैत्येन्द्रो भोगैश्चर्यमवाप सः।।
2-46-35a
2-46-35b
तेनातिबाध्यमानास्ते दैत्येन्द्रेण बलीयसा।
ब्रह्मलोकं सुरा जग्मुः शर्वशक्रपुरोगमाः।।
2-46-36a
2-46-36b
पितामहं समासाद्य खिन्नाः प्राञ्जलयोऽब्रुवन् ।। 2-46-37a
देवा ऊचुः। 2-46-38x
भगवन्भूतभव्येश नस्त्रायस्व इहागतान्।
भयं दितिसुताद्घोराद्भवत्यद्य दिवानिशम्।।
2-46-38a
2-46-38b
भगवन्सर्वदैत्यानां स्वयम्भूरादिकृत्प्रभुः।
स्रष्टा त्वं हव्यकव्यानामव्यक्तः प्रकृतिर्ध्रुवः।।
2-46-39a
2-46-39b
ब्रह्मोवाच। 2-46-40x
श्रूयतामापदेवं हि दुर्विज्ञेया मयापि च।
नारायणस्तु पुरुषो विश्वरूपो महाद्युतिः।।
2-46-40a
2-46-40b
अव्यक्तः सर्वभूतानामचिन्त्यो विभुरव्ययः।
ममापि स तु युष्माकं व्यसने परमा गतिः।।
2-46-41a
2-46-41b
नारायणः परोऽव्यक्तादहमव्यक्तसम्भवः।
मत्तो जज्ञुः प्रजा लोकाः सर्वे देवासुराश्च ते।।
2-46-42a
2-46-42b
देवा यथाहं युष्माकं तथा नारायणो मम।
पितामहोऽहं सर्वस्य स विष्णुः प्रपितामहः।।
2-46-43a
2-46-43b
निश्चितं विषुधा दैत्यं स विष्णुस्तं हनिष्यति।
तस्य नास्ति न शक्यं च तस्माद्व्रजत माचिरम्।।
2-46-44a
2-46-44b
भीष्म उवाच।। 2-46-45x
पितामहवचः श्रुत्वा सर्वे ते भरतर्षभ।
विबुधा ब्रह्मणा सार्धं जग्मुः क्षीरोदधिं प्रति।।
2-46-45a
2-46-45b
आदित्या वसवः साध्या विश्वे च मरुतस्तथा।
रुद्रा महर्षयश्चैव अश्विनौ च सुरूपिणौ।।
2-46-46a
2-46-46b
अन्ये च दिव्या ये राजंस्ते सर्वे सगणाः सुराः।
चतुर्मुखं पुरस्कृत्य श्वेतद्वीपमुपागताः।।
2-46-47a
2-46-47b
देवा ऊचुः। 2-46-48x
त्रायस्व नोऽद्य देवेश हिरण्यकशिपोर्वधात्।
त्वं हि नः परमो धाता ब्रह्मादीनां सुरोत्तम।।
2-46-48a
2-46-48b
उत्फुल्लाम्बुजपत्राक्ष शत्रुपक्षभयङ्कर।
क्षयाय दितिवंशस्य शरणं त्वं भविष्यसि।।
2-46-49a
2-46-49b
भीष्म उवाच।। 2-46-50x
तद्देवानां वचः श्रुत्वा तदा विष्णुः शुचिश्रवाः।
अदृश्यः सर्वभूतात्मा वक्तुमेवोपचक्रमे।।
2-46-50a
2-46-50b
विष्णुरुवाच।। 2-46-51x
भयं त्यजध्वममरा अभयं वो ददाम्यहम्।
तदेव त्रिदिवं देवाः प्रतिपद्यत माचिरम्।।
2-46-51a
2-46-51b
एषोऽहं सगणं दैत्यं वरदानेन दर्पितम्।
अवध्यममरेन्द्राणां दानवेन्द्रं निहन्म्यहम्।।
2-46-52a
2-46-52b
ब्रह्मोवाच।। 2-46-53x
भहवन्देवदेवेश खिन्ना एते भृशं सुराः।
तस्मात्त्वं जहि दैत्येन्द्रं क्षिप्रं कालोऽस्य माचिरम्।
एष त्वं सगणं दैत्यं वरदानेन दर्पितम्।।
2-46-53a
2-46-53b
2-46-53c
विष्णुरुवाच।। 2-46-54x
क्षिप्रमेव करिष्यामि त्वरया दैत्यनाशनम्।
तस्मात्त्वं विबुधाश्चैव प्रतिपद्यत वै दिवम्।।
2-46-54a
2-46-54b
भीष्म उवाच।। 2-46-55x
एवमुक्त्वा तु भगवान्विसृज्य त्रिदिवेश्वरान्।
नरस्यार्धतनुर्भूत्वा सिंहस्यार्धतनुः पुनः।।
2-46-55a
2-46-55b
नारसिंहेन वपुषा पाणिं संस्पृश्य पाणिना।
भीमरूपो महातेजा व्यादितास्य इवान्तकः।।
2-46-56a
2-46-56b
हिरण्यकशिपुं राजञ्जगाम हरिरीश्वरः।
दैत्यास्तमागतं दृष्ट्वा नारसिंहं महाबलम्।।
2-46-57a
2-46-57b
ववर्षुः शस्त्रवर्षैस्ते सुसङ्क्रुद्धास्तदा हरिम्।
तैः सृष्टसर्वशस्त्राणि भक्षयामास वै हरिः।।
2-46-58a
2-46-58b
जघान न रणे दैत्यान्सहस्राणि बहूनि च।
तान्निहत्य च दैतेयान्सर्वान्क्रुद्धान्महाबलान्।।
2-46-59a
2-46-59b
अभ्यधावत्सुसङ्क्रुद्धो दैत्येन्द्रं बलगर्वितम्।
जीमूतघनसङ्काशो जीमूतघननिस्वनः।।
2-46-60a
2-46-60b
जीमूत इव दीप्तौजा जीमूत इव वेगवान्।
सोऽतिबलं दृप्तं दृप्तशार्दूलविक्रमम्।।
2-46-61a
2-46-61b
दृप्तैर्दैत्यगणैर्गुप्तं खरैर्नखमुकैरुत।
ततः कृत्वा तु युद्धं वै तेन दैत्येन वै हरिः।।
2-46-62a
2-46-62b
सन्ध्याकाले महातेजा भवनान्ते त्वरान्वितः।
ऊरौ निधाय दैत्येन्द्रं निर्बिभेद नखैस्तदा।।
2-46-63a
2-46-63b
महाबलं महावीर्यं वरदानेन गर्वितम्।
दैत्यश्रेष्ठं सुरश्रेष्ठो जघान तरसा हरिः।।
2-46-64a
2-46-64b
हिरण्यकशिपुं हत्वा सर्वदैत्यांश्च वै तदा।
विबुधानां प्रजानां च हितं कृत्वा महाद्युतिः।।
2-46-65a
2-46-65b
प्रमुमोद हरिर्देवः प्राप्य धर्मं तदा भुवि।
एष ते नारसिंहोऽत्र कथितः पाण्डुनन्दन।
2-46-66a
2-46-66b
शृणु त्वं वामनं नाम प्रादुर्भावं महात्मनः।। 2-46-67a
। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
अर्घाहरणपर्वणि षट्‌चत्वारिंशोऽध्यायः।। 46।।
सभापर्व-045 पुटाग्रे अल्लिखितम्। सभापर्व-047
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