महाभारतम्-02-सभापर्व-046
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हिरण्यकशिपुना समुद्रे तपश्ररणम्।। 1।। तपः प्रसन्नेन ब्रह्मणा तस्मै वरदानम्।।2।। तस्य वरप्राप्त्या भीतानां देवानां ब्रह्मणा परिसान्त्वनम्।। 3।। हिरण्यकशइपुना त्रैलोक्यपीडने आत्मानं शरणं गतानां देवानां श्रीहरिणाऽभयप् रदानम्।। 4।। नृसिंहरूपिणा हरिणा हिरण्यकशिपुहननम्।। 5।।
भीष्म उवाच। | 2-46-1x |
दैत्येन्द्रो बलवान्त्राजन्सुरारिर्बलगर्वितः। हिरण्यकशिपुर्नाम आसीत्रैलोक्यकण्टकः।। | 2-46-1a 2-46-1b |
दैत्यानामादिपुरुषो वीर्येणाप्रतिमो बली। प्रविश्य जलधं राजंश्चकार तप उत्तमम्।। | 2-46-2a 2-46-2b |
दशवर्षसहस्राणि शतानि दश पञ्च च। व्रतोपवासतस्तस्थौ स्याणुमौनव्रतो दृढः।। | 2-46-3a 2-46-3b |
ततः शमदमाभ्यां च ब्रह्मचर्येण चानघ। ब्रह्मा प्रीतमनास्तस्य तपसा नियमेन च।। | 2-46-4a 2-46-4b |
ततः स्वयम्भूर्भगवान्स्वयमागम्य भूपते। विमानेनार्कवर्णेन हंसयुक्तेन भास्वता।। | 2-46-5a 2-46-5b |
आदित्यैर्वसुभिः साध्यैर्मरुद्भिर्दैवतैस्तथा। रुद्रैर्विश्वसहायैश्च यक्षराक्षसकिन्नरैः।। | 2-46-6a 2-46-6b |
दिशाभिर्विदिशाभिश्च नदीभिः सागरैः सह। नक्षत्रैश्च मुहूर्तैश्च खेचरैश्चापरैर्ग्रहैः।। | 2-46-7a 2-46-7b |
देवर्षिभिस्तपोयुक्तैः सिद्धैः सप्तर्षिभिस्तदा। राजर्षिभिः पुण्यतमैर्गन्धर्वैरप्सरोगणैः।। | 2-46-8a 2-46-8b |
चराचरगुरुः श्रीमान्वृतः सर्वसुरैस्तथा। ब्रह्मा ब्रह्मविदां श्रेष्ठो दैत्यमागम्य चाब्रवीत्।। | 2-46-9a 2-46-9b |
प्रीतोऽस्मि तव भक्तस्य तपसाऽनेन सुव्रत। वरं वरय भद्रं ते यथेष्टं काममाप्नुहि।। | 2-46-10a 2-46-10b |
हिरण्यकशिपुरुवाच। | 2-46-11x |
न देवा न च गन्धर्वा न यक्षोरगराक्षसाः। न मानुषाः पिशाचाश्च हन्युर्मां देवसत्तम।। | 2-46-11a 2-46-11b |
ऋषयो वा न मां शापैः क्रुद्धा लोकपितामह। शपेयुस्तपसा युक्ता वर एष वृतो मया।। | 2-46-12a 2-46-12b |
न शस्त्रेण नचास्त्रेण गिरिणा पादपेन च। न शुष्केण न चार्देण स्यान्न वाऽन्येन मे वधः।। | 2-46-13a 2-46-13b |
नाकाशे नाथ भूमौ वा रात्रौ वा दिवसेपि वा। नान्तर्वा न बहिर्वापि स्याद्वधो मे पितामह।। | 2-46-14a 2-46-14b |
पशुभिर्वा मृगैर्न स्यात्पक्षिभिर्वा सरीसृपैः। ददासि चेद्वरानेतन्देवदेव वृणोम्यहम्।। | 2-46-15a 2-46-15b |
ब्रह्मोवाच। | 2-46-16x |
एते दिव्या वरास्तात मया दत्तास्तवाद्भुताः। सर्वकामवरांस्तात प्राप्स्यसि त्वमसंशयम्।। | 2-46-16a 2-46-16b |
एवमुक्त्वा स भगवाञ्जगामाकाशमेव हि। रराज ब्रह्मलोके हि ब्रह्मर्षिगणसेवितः।। | 2-46-17a 2-46-17b |
ततो देवाश्च नागाश्च गन्धर्वा मुनयस्तथा। वरप्रदानं श्रुत्वैव ते ब्रह्माणमुपस्थितः।। | 2-46-18a 2-46-18b |
देवा ऊचुः। | 2-46-19x |
वरेणाने भगवन्बाधिष्यति स नोऽसुरः। तत्प्रसीदस्व भगवन्वधोपायोऽस्य चिन्त्यताम्।। | 2-46-19a 2-46-19b |
भीष्म उवाच।। | 2-46-20x |
ततो लोकहितं वाक्यं श्रुत्वा देवः प्रजापतिः। प्रोवाच भगवान्वाक्यं सर्वदेवगणांस्तदा।। | 2-46-20a 2-46-20b |
अवश्यं त्रिदशास्तेन प्राप्तव्यं तपसः फलम्। तपसोऽन्तेऽस्य भगवान्वधं कृष्णः करिष्यति।। | 2-46-21a 2-46-21b |
एतच्छ्रुत्वा सुराः सर्वे ब्रह्मणा तस्य वै वधम्। स्वानि स्थानानि दिव्यानि जग्मुस्ते वै मुदान्विताः।। | 2-46-22a 2-46-22b |
लब्धमात्रे वरे चापि सर्वास्ता बाधते प्रजाः। हिरण्यकशिपुर्दैत्यो वरदानेन दर्पितः।। | 2-46-23a 2-46-23b |
राज्यं चकार दैत्येन्द्रो दैत्यसङ्घैः समावृतः। सप्तद्वीपान्वशेचके लोकालोकान्तरं बलात्।। | 2-46-24a 2-46-24b |
दिव्यभोगान्समस्तान्वै लोके सर्वानवाप सः। देवांस्त्रिभुवनस्थांस्तु पराजित्य महासुरः।। | 2-46-25a 2-46-25b |
त्रैलोक्यं वशमानीय स्वर्गे वसति दानवः। यदा वरमदोन्मत्तो न्यवसद्दानवो दिवि।। | 2-46-26a 2-46-26b |
अथ लोकान्सगस्तांश्च विजित्य स महाबलः। भवेयमहमेवेन्द्रः सोमोऽग्निर्मारुतो रविः।। | 2-46-27a 2-46-27b |
सलिलं चान्तरिक्षं च नक्षत्राणि दिशो दश। अहं क्रोधश्च कामश्च वरुणो वसवोऽर्यमा।। | 2-46-28a 2-46-28b |
धनदश्च धनाध्यक्षो यक्षकिम्पुरुषाधिपः। एते भवेयमित्युक्त्वा स्वयं भूत्वा बलात्स च।। | 2-46-29a 2-46-29b |
एषां गृहीत्वा स्थानानि तेषां कार्याण्यवाप सः। इज्यश्चासीन्मखवरैर्देवकिन्नरसत्तमैः।। | 2-46-30a 2-46-30b |
नरकस्थान्समानीय स्वर्गस्थांश्च चकार सः। एवमादीनि कर्माणि कृत्वा दैत्यपतिर्बली।। | 2-46-31a 2-46-31b |
आश्रमेषु महाभागान्मुनीन्वै शंसितव्रतान्। सत्यधर्मपरान्दान्तान्पुरा धर्षितवांस्तु सः।। | 2-46-32a 2-46-32b |
याज्ञीयान्कृतबान्दैत्यन्याजकांश्चैव देवताः। यत्रयत्र सुरा जग्मुस्तत्रतत्र व्रजत्युत।। | 2-46-33a 2-46-33b |
स्थानानि देवतानां तु हृत्वा राज्यमकारयत्। पञ्चकोट्यश्च वर्षाणि अयुतान्येकषष्टि च।। | 2-46-34a 2-46-34b |
षष्टिश्चैव सहस्राणां जग्मुस्तस्य दुरात्मनः। एतद्वर्षं स दैत्येन्द्रो भोगैश्चर्यमवाप सः।। | 2-46-35a 2-46-35b |
तेनातिबाध्यमानास्ते दैत्येन्द्रेण बलीयसा। ब्रह्मलोकं सुरा जग्मुः शर्वशक्रपुरोगमाः।। | 2-46-36a 2-46-36b |
पितामहं समासाद्य खिन्नाः प्राञ्जलयोऽब्रुवन् ।। | 2-46-37a |
देवा ऊचुः। | 2-46-38x |
भगवन्भूतभव्येश नस्त्रायस्व इहागतान्। भयं दितिसुताद्घोराद्भवत्यद्य दिवानिशम्।। | 2-46-38a 2-46-38b |
भगवन्सर्वदैत्यानां स्वयम्भूरादिकृत्प्रभुः। स्रष्टा त्वं हव्यकव्यानामव्यक्तः प्रकृतिर्ध्रुवः।। | 2-46-39a 2-46-39b |
ब्रह्मोवाच। | 2-46-40x |
श्रूयतामापदेवं हि दुर्विज्ञेया मयापि च। नारायणस्तु पुरुषो विश्वरूपो महाद्युतिः।। | 2-46-40a 2-46-40b |
अव्यक्तः सर्वभूतानामचिन्त्यो विभुरव्ययः। ममापि स तु युष्माकं व्यसने परमा गतिः।। | 2-46-41a 2-46-41b |
नारायणः परोऽव्यक्तादहमव्यक्तसम्भवः। मत्तो जज्ञुः प्रजा लोकाः सर्वे देवासुराश्च ते।। | 2-46-42a 2-46-42b |
देवा यथाहं युष्माकं तथा नारायणो मम। पितामहोऽहं सर्वस्य स विष्णुः प्रपितामहः।। | 2-46-43a 2-46-43b |
निश्चितं विषुधा दैत्यं स विष्णुस्तं हनिष्यति। तस्य नास्ति न शक्यं च तस्माद्व्रजत माचिरम्।। | 2-46-44a 2-46-44b |
भीष्म उवाच।। | 2-46-45x |
पितामहवचः श्रुत्वा सर्वे ते भरतर्षभ। विबुधा ब्रह्मणा सार्धं जग्मुः क्षीरोदधिं प्रति।। | 2-46-45a 2-46-45b |
आदित्या वसवः साध्या विश्वे च मरुतस्तथा। रुद्रा महर्षयश्चैव अश्विनौ च सुरूपिणौ।। | 2-46-46a 2-46-46b |
अन्ये च दिव्या ये राजंस्ते सर्वे सगणाः सुराः। चतुर्मुखं पुरस्कृत्य श्वेतद्वीपमुपागताः।। | 2-46-47a 2-46-47b |
देवा ऊचुः। | 2-46-48x |
त्रायस्व नोऽद्य देवेश हिरण्यकशिपोर्वधात्। त्वं हि नः परमो धाता ब्रह्मादीनां सुरोत्तम।। | 2-46-48a 2-46-48b |
उत्फुल्लाम्बुजपत्राक्ष शत्रुपक्षभयङ्कर। क्षयाय दितिवंशस्य शरणं त्वं भविष्यसि।। | 2-46-49a 2-46-49b |
भीष्म उवाच।। | 2-46-50x |
तद्देवानां वचः श्रुत्वा तदा विष्णुः शुचिश्रवाः। अदृश्यः सर्वभूतात्मा वक्तुमेवोपचक्रमे।। | 2-46-50a 2-46-50b |
विष्णुरुवाच।। | 2-46-51x |
भयं त्यजध्वममरा अभयं वो ददाम्यहम्। तदेव त्रिदिवं देवाः प्रतिपद्यत माचिरम्।। | 2-46-51a 2-46-51b |
एषोऽहं सगणं दैत्यं वरदानेन दर्पितम्। अवध्यममरेन्द्राणां दानवेन्द्रं निहन्म्यहम्।। | 2-46-52a 2-46-52b |
ब्रह्मोवाच।। | 2-46-53x |
भहवन्देवदेवेश खिन्ना एते भृशं सुराः। तस्मात्त्वं जहि दैत्येन्द्रं क्षिप्रं कालोऽस्य माचिरम्। एष त्वं सगणं दैत्यं वरदानेन दर्पितम्।। | 2-46-53a 2-46-53b 2-46-53c |
विष्णुरुवाच।। | 2-46-54x |
क्षिप्रमेव करिष्यामि त्वरया दैत्यनाशनम्। तस्मात्त्वं विबुधाश्चैव प्रतिपद्यत वै दिवम्।। | 2-46-54a 2-46-54b |
भीष्म उवाच।। | 2-46-55x |
एवमुक्त्वा तु भगवान्विसृज्य त्रिदिवेश्वरान्। नरस्यार्धतनुर्भूत्वा सिंहस्यार्धतनुः पुनः।। | 2-46-55a 2-46-55b |
नारसिंहेन वपुषा पाणिं संस्पृश्य पाणिना। भीमरूपो महातेजा व्यादितास्य इवान्तकः।। | 2-46-56a 2-46-56b |
हिरण्यकशिपुं राजञ्जगाम हरिरीश्वरः। दैत्यास्तमागतं दृष्ट्वा नारसिंहं महाबलम्।। | 2-46-57a 2-46-57b |
ववर्षुः शस्त्रवर्षैस्ते सुसङ्क्रुद्धास्तदा हरिम्। तैः सृष्टसर्वशस्त्राणि भक्षयामास वै हरिः।। | 2-46-58a 2-46-58b |
जघान न रणे दैत्यान्सहस्राणि बहूनि च। तान्निहत्य च दैतेयान्सर्वान्क्रुद्धान्महाबलान्।। | 2-46-59a 2-46-59b |
अभ्यधावत्सुसङ्क्रुद्धो दैत्येन्द्रं बलगर्वितम्। जीमूतघनसङ्काशो जीमूतघननिस्वनः।। | 2-46-60a 2-46-60b |
जीमूत इव दीप्तौजा जीमूत इव वेगवान्। सोऽतिबलं दृप्तं दृप्तशार्दूलविक्रमम्।। | 2-46-61a 2-46-61b |
दृप्तैर्दैत्यगणैर्गुप्तं खरैर्नखमुकैरुत। ततः कृत्वा तु युद्धं वै तेन दैत्येन वै हरिः।। | 2-46-62a 2-46-62b |
सन्ध्याकाले महातेजा भवनान्ते त्वरान्वितः। ऊरौ निधाय दैत्येन्द्रं निर्बिभेद नखैस्तदा।। | 2-46-63a 2-46-63b |
महाबलं महावीर्यं वरदानेन गर्वितम्। दैत्यश्रेष्ठं सुरश्रेष्ठो जघान तरसा हरिः।। | 2-46-64a 2-46-64b |
हिरण्यकशिपुं हत्वा सर्वदैत्यांश्च वै तदा। विबुधानां प्रजानां च हितं कृत्वा महाद्युतिः।। | 2-46-65a 2-46-65b |
प्रमुमोद हरिर्देवः प्राप्य धर्मं तदा भुवि। एष ते नारसिंहोऽत्र कथितः पाण्डुनन्दन। | 2-46-66a 2-46-66b |
शृणु त्वं वामनं नाम प्रादुर्भावं महात्मनः।। | 2-46-67a |
। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि अर्घाहरणपर्वणि षट्चत्वारिंशोऽध्यायः।। 46।। |
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