सामग्री पर जाएँ

महाभारतम्-02-सभापर्व-083

विकिस्रोतः तः
← सभापर्व-082 महाभारतम्
द्वितीयपर्व
महाभारतम्-02-सभापर्व-083
वेदव्यासः
सभापर्व-084 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103

विदुरस्य इन्द्रप्रस्थगमनम्।। 1।। पाण्डवानां द्यूतसभाप्रवेशः।। 2।।

वैशम्पायन उवाच।। 2-83-1x
ततः प्रायाद्विदुरोऽश्वैरुदारै-
र्महाजवैर्बलिभिः साधु दान्तैः।
बलान्नियुक्तो धृतराष्ट्रेण राज्ञा
मनीषिणां पाण्डवानां सकाशे।।
2-83-1a
2-83-1b
2-83-1c
2-83-1d
सोऽभिपत्य तदध्वानमासाद्य नृपतेः पुरम्।
प्रविवेश महाबुद्धिः पूज्यमानो द्विजातिभिः।।
2-83-2a
2-83-2b
स राजगृहमासाद्य कुबेरभवनोपमम्।
अभ्यागच्छत धर्मात्मा धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्।।
2-83-3a
2-83-3b
तं वै राजा सत्यधृतिर्महात्मा
अजातशत्रुर्विदुरं यथावत्।
पूजापूर्वं प्रतिगृह्याजमीढ-
स्ततोऽपृच्छद्धृतराष्ट्रं सपुत्रम्।।
2-83-4a
2-83-4b
2-83-4c
2-83-4d
युधिष्ठिर उवाच।। 2-83-5x
विज्ञायते ते मनसोऽप्रहर्षः
कच्चित्क्षत्तः कुशलेनागतोऽसि।
कच्चित्पुत्राः स्थविरस्यानुलोमा
वशानुगाश्चापि विशोऽथ कच्चित्।।
2-83-5a
2-83-5b
2-83-5c
2-83-5d
विदुर उवाच।। 2-83-6x
राजा महात्मा कुशली सपुत्र
आस्ते वृतो ज्ञातिभिरिन्द्रकल्पः।
प्रीतो राजन्पुत्रगुणैर्विनीतो
विशोक एवात्मरतिर्महात्मा।।
2-83-6a
2-83-6b
2-83-6c
2-83-6d
इदं तु त्वां कुरुराजोऽभ्युवाच
पूर्वं पृष्ट्वा कुशलं चाव्ययं च।
इयं सभा त्वत्सभातुल्यरूपा
भ्रातॄणां ते दृस्यतामेत्य पुत्र।।
2-83-7a
2-83-7b
2-83-7c
2-83-7d
समागम्य भ्रातृभिः पार्थ तस्यां
सुहृद्द्यूतं क्रियतां रम्यतां च।
प्रीयामहे भवतां सङ्गमेन
समागताः कुरवश्चापि सर्वे।।
2-83-8a
2-83-8b
2-83-8c
2-83-8d
दुरोदरा विहिता ये तु तत्र
महात्मना धृतराष्ट्रेण राज्ञा।
तान्द्रक्ष्यसे कितवान्सन्निविष्टा-
नित्यागतोऽहं नृपते तज्जुषस्व।।
2-83-9a
2-83-9b
2-83-9c
2-83-9d
युधिष्ठर उवाच।। 2-83-10x
द्यूते क्षत्तः कलहो विद्यते नः
को वै रोचतने बुध्यमानः।
किं वा भवान्मन्यते युक्तरूपं
भवद्वाक्ये सर्व एव स्थिताः स्मः।।
2-83-10a
2-83-10b
2-83-10c
2-83-10d
विदुर उवाच।। 2-83-11x
जानाम्यहं द्यूतमनर्थमूलं
कृतश्च यत्नोऽस्य मया निवारणे।
राजा च मां प्राहिमोत्त्वत्सकाशं
श्रुत्वा विद्वञ्श्रेय इहाचरस्व।।
2-83-11a
2-83-11b
2-83-11c
2-83-11d
युधिष्ठिर उवाच।। 2-83-12x
के तत्रान्ये कितवा दीव्यमाना
विना राज्ञो धृतराष्ट्रस्य पुत्रैः।
पृच्छामि त्वां विदुर ब्रूहि नस्तान्
यैर्दीव्यामः शतशः सन्निपत्य।।
2-83-12a
2-83-12b
2-83-12c
2-83-12d
विदुर उवाच।। 2-83-13x
गन्धारराजः शकुनिर्विशाम्पते
राजाऽतिदेवी कृतहस्तो मताक्षः।
विनिंशतिश्चित्रसेनश्च राजा
सत्यव्रतः पुरुमित्रो जयश्च।।
2-83-13a
2-83-13b
2-83-13c
2-83-13d
युधिष्ठिर उवाच।। 2-83-14x
महाभयाः कितवाः सन्निविष्टा
मायोपधा देवितारोऽत्र सन्ति।
धात्रा तु दिष्टस्य वशे किलेदं
सर्वं जगत्तिष्ठति न स्वतन्त्रम्।।
2-83-14a
2-83-14b
2-83-14c
2-83-14d
नाहं राज्ञो धृतराष्ट्रस्य शासना-
न्न गन्तुमिच्छामि कवे दुरोदरम्।
इष्टो हि पुत्रस्य पिता सदैव
तदस्मि कर्ता विदुरात्थ मां यथा।।
2-83-15a
2-83-15b
2-83-15c
2-83-15d
न चाकामः शकुनिना देविताहं
न चेन्मां जिष्णुराह्वयिता सभायाम्।
आहूतोऽहं न निवर्ते कदाचित्
तदाहितं शाश्वतं वै व्रतं मे।।
2-83-16a
2-83-16b
2-83-16c
2-83-16d
वैशम्पायन उवाच।। 2-83-17x
एवमुक्त्वा विदुरं धर्मराजः
प्रायात्रिकं सर्वमाज्ञाप्य तूर्णम्।
प्रायाच्छ्वोभूते सगणः सानुयात्रः
सह स्त्रीभिर्दौपदामादि कृत्वा।।
2-83-17a
2-83-17b
2-83-17c
2-83-17d
दैवं हि प्रज्ञां मुष्णाति चक्षुस्तेज इवापतत्।
धातुश्च वशमन्वेति पाशैरिव नरः सितः।।
2-83-18a
2-83-18b
इत्युक्त्वा प्रययौ राजा सह क्षत्र्रा युधिष्ठिरः।
अमृष्यमाणस्तस्याथ समाह्वानमरिन्दमः।।
2-83-19a
2-83-19b
बाह्लिकेन रथं यत्तमास्थाय परवीरहा।
परिच्छन्नो ययौ पार्थो भ्रातृभिः सह पाण्डवः।
राजश्रिया दीप्यमानो ययौ ब्रह्मपुरः सरः।।
2-83-20a
2-83-20b
2-83-20c
`सन्दिदेश ततः प्रेष्यानागतान्नगरं प्रति।
ततस्ते नृपशार्दूल चक्रुर्वै नृपशासनम्।।
2-83-21a
2-83-21b
ततो राजा महातेजाः संयम्य सपरिच्छदम्।
ह्मणैः स्वस्ति वाच्याथ प्रययौ मन्दिराद्बहिः
2-83-22a
2-83-2b
ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा गत्यर्थं स यथाविधि।
अन्येभ्यः स तु दत्त्वा च गन्तुमेवोपचक्रमे।।
2-83-23a
2-83-23b
सर्वलक्षणसम्पन्नं राजहंसपरिच्छदम्।
तमारुह्य महाराजो गजेन्द्रं षष्टिहायनम्।।
2-83-24a
2-83-24b
हारी किरीटी हेमाभः सर्वाभरणभूषितः।
रराज राजन्पार्थो वै परया नृपशोभया।।
2-83-25a
2-83-25b
रुक्मवेदिगतः प्राज्यो ज्वलन्निव हुताशनः।
ततो जगाम राजा स प्रहृष्टनरवाहनः।।
2-83-26a
2-83-26b
रथघोषेण महता पूरयन्वै नभः स्थलम्।
संस्तूयमानः स्तुतिभिः सूतमागधबन्दिभिः।।
2-83-27a
2-83-27b
महासैन्येन सहितो यथादित्यः स्वरश्मिभिः।
ण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि।।
2-83-28a
2-83-28b
बभौ युधिष्ठिरो राजा पौर्णमास्यामिवोडुराट्।
चामरैर्हेमदण्डैश्च धूयमानः समन्ततः।।
2-83-29a
2-83-29b
याशिषः प्रहृष्टानां नराणां पथि पाण्डवः।
प्रत्यगृह्णाद्यथान्यायं यथआवद्भरतर्षभः।।
2-83-30a
2-83-30b
तथैव सैनिका राजन्राजानमनुयान्ति ये।
तेषां हलहलाशब्दो दिवं स्तब्धः प्रतिष्ठितः।।
2-83-31a
2-83-31b
नृपस्याग्ने ययौ राजन्भीमसेनो रथी बली।
उभौ पार्श्वगतौ राज्ञः सतल्पौ वै सुकल्पितौ।।
2-83-32a
2-83-32b
अधिरूढौ यमौ चापि जग्मतुर्भरतर्षभ।
शोभयन्तौ महासैन्यं तावुभौ रूपशालिनौ।।
2-83-33a
2-83-33b
पृष्ठतोऽनुययौ जिष्णुर्वीरः शस्त्रभृतां वरः।
श्वेताश्वो गाण्डिवं गृह्य अग्निदत्तं रथं गतः।।
2-83-34a
2-83-34b
सैन्यमध्ये ययौ राजन्कुरुराजो युधिष्ठिरः।
द्रौपदीप्रमुखा नार्यः सानुगाः सपरिच्छदाः।।
2-83-35a
2-83-35b
आरुह्य ता विचित्राङ्ग्यो यानानि विविधानि च।
महत्या सेनया राजन्नग्रे यानानि विविधानि च।
2-83-36a
2-83-36b
समृद्धनरनागाश्वं सपताकरथध्वजम्।
संनद्धवरनिस्त्रिंशं पथि निर्घोषनिः स्वनम्।।
2-83-37a
2-83-37b
शङ्खदुन्दुभितालानां वेणुवीणानुवनादितम्।
शुशुभे पाण्डवं सैन्यं प्रयास्यत्तत्तदा नृप।।
2-83-38a
2-83-38b
यथा कुबेरो लङ्कायां पुरा चात्यन्तशोभया।
महत्या सेनया सार्धं गुरुमिन्द्रं स गच्छति।।
2-83-39a
2-83-39b
तथा ययौ स पार्थोऽपि असङ्ख्येयविभूतिना।
सुसमृद्धेन सैन्येन यथा वैश्रवणस्तथा।।
2-83-40a
2-83-40b
स सरांसि नदीश्चैव वनान्युपवनानि च।
अत्यक्रामन्महाराज पुरीं चाभ्यवपद्यत।।
2-83-41a
2-83-41b
स हास्तिनसमीपे तु कुरुराजो युधिष्ठिरः।
चक्रे निवेशनं तत्र ततः स सहसैनिकाः।।
2-83-42a
2-83-42b
शिवे देशे समे चैव न्यवसत्पाण्डवस्तदा।
ततोराजन्समाहूय शोकविह्वलया गिरा।।
2-83-43a
2-83-43b
तद्वाक्यं च सर्वस्वं धृतराष्ट्रचिकीर्षितम्।
आचचक्षे यथावृत्तं विदुरोऽथ नृपस्य ह।।
2-83-44a
2-83-44b
तच्छ्रुत्वा भाषितं तेन धर्मराजोऽब्रवीदिदम्।
न मर्षयाम्यहं क्षत्तः समाह्वानं व्रतं हि मे।
स्वस्त्यस्तु लोके विप्राणां प्रजानां चैव सर्वदा।।
2-83-45a
2-83-45b
2-83-45c
वैशम्पायन उवाच।। 2-83-46x
प्रविवेश ततो राजा नगरं नागसाह्वयम्।
धृतराष्ट्रेण चाहूतः कालस्य समयेन च'।।
2-83-46a
2-83-46b
स हास्तिनपुरं गत्वा धृतराष्ट्रगृहं ययौ।
समियाय च धर्मात्मा धृतराष्ट्रेण पाण्डवः।।
2-83-47a
2-83-47b
तथा भीष्मेण द्रोणेन कर्णेन च कृपेण च।
समियाय यथान्यायं द्रौणिना च विभुः सह
2-83-48a
2-83-48b
समेत्य च महाबाहुः सोमदत्तेन चैव ह।
दूर्योधनेन सभ्रात्रा सौबलेन च वीर्यवान्।।
2-83-49a
2-83-49b
ये चान्ये तत्र राजानः पूर्वमेव समागताः।
दुःशासनेन वीरेण सर्वैर्भ्रातृभिरेव च।।
2-83-50a
2-83-50b
जयद्रथेन च तथा कुरुभिश्चापि सर्वशः।
ततः सर्वैर्महाबाहुर्भ्रातृभिः पिरवारितः।।
2-83-51a
2-83-51b
प्रविवेश गृहं राज्ञो धृतराष्ट्रस्य धीमतः।
ददर्श तत्र गान्धारीं देवीं पतिमनुव्रताम्।।
2-83-52a
2-83-52b
स्नुषाभिः संवृतां शश्वत्ताराभिरिव रोहिणीम्।
अभिवाद्य स गान्धारीं तया च प्रतिनन्दितः।।
2-83-53a
2-83-53b
ददर्श पितरं वृद्धं प्रज्ञाचक्षुषमीश्वरम्।। 2-83-54a
राज्ञा मूर्धन्युपाघ्रातास्ते च कौरवनन्दनाः।
चत्वारः पाण्डवा राजन्भीमसेनपुरोगमाः।।
2-83-55a
2-83-55b
ततो हर्षः समभवत्कौरवाणां विशाम्पते।
तान्दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्रान्पाण्डवान्प्रियदर्शनान्।।
2-83-56a
2-83-56b
विविशुस्तेऽभ्यनुज्ञाता रत्नवन्ति गृहाणि च।
ददृशुश्चोपयातारो द्रोपदीप्रमुखाः स्त्रियः।।
2-83-57a
2-83-57b
याज्ञसेन्याः परामृद्धिं दृष्ट्वा प्रज्वलितामिव।
स्नुषास्ता धृतराष्ट्रस्य नातिप्रमनसोऽभवन्।।
2-83-58a
2-83-58b
ततस्ते पुरुषव्याघ्रा ग्तवा स्त्रीभिस्तु संविदम्।
कृत्वा व्यायामपूर्वाणि कृत्यानि प्रतिकर्म च।।
2-83-59a
2-83-59b
ततः कृताह्निकाः सर्वे दिव्यचन्दनभूषिताः।
कल्याणमनसश्चैव ब्राह्मणान्स्वस्ति वाच्य च।।
2-83-60a
2-83-60b
मनोज्ञमशनं भुक्त्वा विविशुः शरणान्यथ।
उपगीयमाना नारीभिरस्वपन्कुरुपुङ्गवाः।।
2-83-61a
2-83-61b
जगाम तेषां सा रात्रिः पुण्या रतिविहारिणाम्।
स्तूयमानाश्च विश्रान्ताः काले निद्रामथात्यजन्।।
2-83-62a
2-83-62b
मुखोषितास्ते रजनीं प्रातः सर्वे कृताह्निकाः।
सभां रम्यां प्रविविशुः कितवैरभिनन्दिताः।।
2-83-63a
2-83-63b
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
द्यूतपर्वणि व्यशीतितमोऽध्यायः।।83 ।।

2-83-2 द्विजातिभिस्त्रैवर्णिकैः।।

2-83-6 आत्मरतिः आत्मनः स्वस्योत्कर्ष एव रतिर्यस्य नतु धर्ममन्वीक्षते इति भावः।। 2-83-7 अव्ययं धनादेरविनाशम्।। 2-83-9 दुरोदरा द्यूतकराः।। 2-83-17 आदि अविभक्तिकनिर्देशः।। 2-83-57 यातारः यातरः।। 2-83-59 संविदं मिथः कथाम्। व्यायामः श्रमानोदनव्यापारः पूर्वो येषां तानि। प्रतिकर ्म केशप्रसाधनादिपरिष्कारम्।।

सभापर्व-082 पुटाग्रे अल्लिखितम्। सभापर्व-084
"https://sa.wikisource.org/w/index.php?title=महाभारतम्-02-सभापर्व-083&oldid=50540" इत्यस्माद् प्रतिप्राप्तम्