महाभारतम्-02-सभापर्व-059
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कृष्णेनाहृतविभूतिविलोकनाय देवकीरुक्मिण्यादिस्त्रीणामागमनम्।।1।। सभामागतायाः यशोदासुतायाः रामकृष्णाभ्यां सत्कारः।। 2।। सर्वेषां स्वस्वभवनगमनम्।। 3।।
भीष्म उवाच।। | 2-59-1x |
ततः सर्वदशार्हाणामाहुकस्य च याः स्त्रियः। नन्दगोपस्य महिषी यशोदा लोकविश्रुता।। | 2-59-1a 2-59-1b |
रेवती च महाभागा रुक्मिणी च पत्रिव्रता। सत्या जाम्बवती चोभे गान्धारी शिंशुमापि च।। | 2-59-2a 2-59-2b |
विशोका लक्षणा चापि सुमित्रा केतुमा तथा। वासुदेवमहिष्योऽन्याः श्रिया सार्धं ययुस्तदा।। | 2-59-3a 2-59-3b |
विभूतिं द्रष्टुमनसः केशवस्य महात्मनः। प्रीयमाणाः सभां जग्मुरालोकयितुमच्युतम्।। | 2-59-4a 2-59-4b |
देवकी सर्वदेवीनां रोहिणी च पुरस्कृता। ददृशुर्देवमासीनं कृष्णं हलभृता सह।। | 2-59-5a 2-59-5b |
तौ तु पूर्वमतिक्रम्य रोहिणीमभिवाद्य च। अभ्यवादयतां देवौ देवकीं रामकेशवौ।। | 2-59-6a 2-59-6b |
सा ताभ्यामृषभाक्षाभ्यां पुत्राभ्यां शुशुभेऽधिकम्। देवकी देवमातेव मित्रेण वरुणेन च।। | 2-59-7a 2-59-7b |
ततः प्राप्ता यशोदाया दुहिता वै क्षणेन हि। जाज्वल्यमाना वपुषा प्रभयाऽतीव भारत।। | 2-59-8a 2-59-8b |
एकानङ्गेति यामाहुः कन्यां वै कामरूपिणीम्। यत्कृते सगणं कंसं जघान पुरुषोत्तमः।। | 2-59-9a 2-59-9b |
ततः स भगवान्रामस्तामुपाक्रम्य भामिनाम्। मूर्ध्न्युपाघ्राय सव्येन परिजग्राह पाणिना।। | 2-59-10a 2-59-10b |
तां च तत्रोपसम्प्राप्य प्रियामिव सखीमिमाम्। दक्षिणेन कराग्रेण पिरजग्राह माधवः।। | 2-59-11a 2-59-11b |
ददृशुस्तां सभामध्ये भगिनीं रामकृष्णयोः। रुक्मपद्मशां पद्मश्रीमिवोत्तमनाभयोः।। | 2-59-12a 2-59-12b |
अथाक्षतमहावष्ट्या लाजपुष्पघृतैरपि। वृष्णयोऽवाकिरन्प्रीताः सङ्कर्षणजनार्दनौ।। | 2-59-13a 2-59-13b |
सबालाः सहवृद्धाश्च ये ज्ञातिकुलबान्धवाः। उपोपविविशुः प्रीता वृष्णयो मधुसूदनम्।। | 2-59-14a 2-59-14b |
पूज्यमानो महाबाहुः पौराणां रतिवर्धनः। विवेश पुरुषव्याघ्रः स्ववेश्म मधुसूदनः।। | 2-59-15a 2-59-15b |
रुक्मिण्या सहितो देव्या प्रमुमोद सुखी सुखम्। अनन्तरं च सत्याया जाम्बवत्याश्च भारत।। | 2-59-16a 2-59-16b |
सर्वासां च यदुश्रेष्ठो गेहे गेहे विहारवान्। जगाम च हृषीकेशो रुक्मिण्याः सदनं पुनः।। | 2-59-17a 2-59-17b |
एष तात महाबाहो विजयः शार्ङ्गधन्वनः। एतदर्थं च जन्माहुर्मानुषेषु महात्मनः।। | 2-59-18a 2-59-18b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि अर्घाहरणपर्वणि एकोनषष्टितमोऽध्यायः।। 59 ।। |
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