महाभारतम्-02-सभापर्व-005
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तत्रागतेन युधिष्ठिरपूजितेन नारदेन कुशलप्रश्नव्याजेन राजनीतिकथनम्।। 1।।
वैशम्पायन उवाच। | 2-5-1x |
अथ तत्रोपविष्टेषु पाण्डवेषु महात्मसु। महत्सु चोपविष्टेषु गन्धर्वेषु च भारत।। | 2-5-1a 2-5-1b |
वेदोपनिषदां वेत्ता ऋषिः सुरगणार्चितः। इतिहासपुराणज्ञः क्रियाकल्पविशेषवित्।। | 2-5-2a 2-5-2b |
`स्तुतस्तोमग्रहस्तोभपदक्रमविभागवित्। शिक्षाक्षरविभागज्ञः पुराकल्पविशेषवित्।। | 2-5-3a 2-5-3b |
आदिकल्पार्थवेत्ता च कल्पसूत्रार्थतत्त्ववित्। ब्रह्मचर्यव्रतपर ऊहापोहविशारदः।। | 2-5-4a 2-5-4b |
नृत्तगान्धर्वसेवी च सर्वत्राप्रतिमस्तथा। अष्टादशानां विद्यानां कोशभूतो महाद्युतिः'।। | 2-5-5a 2-5-5b |
न्यायविद्धर्मतत्त्वज्ञः षडङ्गविदनुत्तमः। ऐक्यसंयोगनानात्वसमवायविशारदः।। | 2-5-6a 2-5-6b |
वक्ता प्रगल्भो मेधावी स्मृतिमान्नयवित्कविः। परापरविभागज्ञः प्रमाणकृतनिश्चयः।। | 2-5-7a 2-5-7b |
पञ्चावयवयुक्तस्य वाक्यस्य गुणदोषवित्। उत्तरोत्तरवक्ता च वदतोपि बृहस्पतेः।। | 2-5-8a 2-5-8b |
धर्मकामार्थमोक्षेषु यथावत्कृतनिश्चयः। तथा भुवनकोशस्य सर्वस्यास्य महामतिः।। | 2-5-9a 2-5-9b |
प्रत्यक्षदर्शी लोकस्य तिर्यगूर्ध्वमधस्तथा। साङ्ख्ययोगविभागज्ञो निर्विवित्सुः सुरासुरान्।। | 2-5-10a 2-5-10b |
सन्धिविग्रहतत्त्वज्ञस्त्वनुमानविभागवित्। षाङ्गुण्यविधियुक्तश्च सर्वशास्त्रविशारदः।। | 2-5-11a 2-5-11b |
युद्धगान्धर्वसेवी च सर्वत्राप्रतिघस्तथा। एतैश्चान्यैश्च बहुभिर्युक्तो गुणगणैर्मुनिः।। | 2-5-12a 2-5-12b |
लोकाननुचरन्सर्वानागमत्तां सभां नृप। नारदः सुमहातेजा ऋषिभिः सहितस्तदा।। | 2-5-13a 2-5-13b |
पारिजातेन राजेन्द्र पर्वतेन च धीमता। सुमुखेन च सौम्येन देवर्षिरमितद्युतिः।। | 2-5-14a 2-5-14b |
सभास्थान्पाण्डवान्द्रष्टुं प्रीयमाणो मनोजवः। जयाशीर्भिस्तु तं विप्रो धर्मराजानमार्चयत्।। | 2-5-15a 2-5-15b |
तमागतमृषिं दृष्ट्वा नारदं सर्वधर्मवित्। सहसा पाण्डवश्रेष्ठः प्रत्युत्थायानुजैः सह।। | 2-5-16a 2-5-16b |
अभ्यवादयत प्रीत्या विनयावनतस्तदा। तदर्हमासनं तस्मै सम्प्रदाय यथाविधि।। | 2-5-17a 2-5-17b |
गां चैव मधुपर्कं च सम्प्रदायार्घ्यमेव च। अर्चयामास रत्नैश्च सर्वकामैश्च धर्मवित्।। | 2-5-18a 2-5-18b |
तुतोष च यथावच्च पूजां प्राप्य युधिष्ठिरात्। सोऽर्चितः पाण्डवैः सर्वैर्महर्षिर्वेदपारगः। धर्मकामार्थसंयुक्तं पप्रच्छेदं युधिष्ठिरम्।। | 2-5-19a 2-5-19b 2-5-19c |
नारद उवाच। | 2-5-20x |
कच्चिदर्थाश्च कल्पन्ते धर्मे च रमते मनः। सुखानि चानुभूयन्ते मनश्च न विहन्यते।। | 2-5-20a 2-5-20b |
कच्चिदाचरितां पूर्वैर्नरदेवपितामहैः। वर्तसे वृत्तिमक्षुद्रां धर्मार्थसहितां त्रिषु।। | 2-5-21a 2-5-21b |
कच्चिदर्थेन वा धर्मं धर्मेणार्थमथापि वा। उभौ वा प्रीतिसारेण न कामेन प्रबाधसे।। | 2-5-22a 2-5-22b |
कच्चिदर्थं च धर्मं च कामं च जयतां वर। विभज्य काले कालज्ञः सदा वरद सेवसे ।। | 2-5-23a 2-5-23b |
कच्चिद्राजगुणैः षड्भिः सप्तोपायांस्तथाऽनघ। बलाबलं तथा सम्यक्वतुर्दश परीक्षसे।। | 2-5-24a 2-5-24b |
कच्चिदात्सानमर्न्वाक्ष्य परांश्च जयतां वर। तथा सन्धाय कर्माणि अष्टौ भारत सेवसे।। | 2-5-25a 2-5-25b |
कच्चित्प्रकृतयः सप्त न लुप्ता भरतर्षभ। आढ्यास्तथा व्यसनिनः स्वनुरक्ताश्च सर्वशः।। | 2-5-26a 2-5-26b |
कच्चिन्न कृतकैर्दूतैर्ये चाप्यपरिशङ्किताः। त्वत्तो वा तव चामात्यैर्भिद्यते मन्त्रितं तथा।। | 2-5-27a 2-5-27b |
मित्रोदासीनशत्रूणां कच्चिद्वेत्सि चिकीर्षितम्। कच्चित्सन्धिं यथाकालं विग्रहं चोपसेवसे।। | 2-5-28a 2-5-28b |
कच्चिद्वृत्तिमुदासीने मध्यमे चानुमन्यसे। कच्चिदात्मसमा वृद्धाः शुद्धाः सम्बोधनक्षमाः।। | 2-5-29a 2-5-29b |
कुलीनाश्चानुरक्ताश्च कृतास्ते वीरमन्त्रिणः। विजयो मन्त्रमूलो हि राज्ञो भवति भारत।। | 2-5-30a 2-5-30b |
कच्चित्संवृतमन्त्रैस्ते अमात्यैः शास्त्रकोविदैः। राष्ट्रं सुरक्षितं तात शत्रुभिर्न विलुप्यते।। | 2-5-31a 2-5-31b |
कच्चिन्निद्रावशं नैषि कच्चित्काले विबुद्ध्यसे। कच्चिच्चापररात्रेषु चिन्तयस्यर्थमर्थवित्।। | 2-5-32a 2-5-32b |
कच्चिन्मन्त्रयसे नैकः कच्चिन्न बहुभिः सह। कच्चित्ते मन्त्रितो मन्त्रो न राष्ट्रं परिधावति।। | 2-5-33a 2-5-33b |
कच्चिदर्थान्विनिश्चित्य लघुमूलान्महोदयान्। क्षिप्रमारभसे कर्तुं न विघ्नयसि तादृशान्।। | 2-5-34a 2-5-34b |
कच्चिन्न स्रवे कर्मान्ताः परोक्षास्ते विशङ्किताः। सर्वे वा पुनरुत्सृष्टाः संसृष्टं चात्र कारणम्।। | 2-5-35a 2-5-35b |
आप्तैरलुब्धैः क्रमिकैस्ते च कच्चिदनुष्ठिताः। कच्चिद्राजन्कृतान्येव कृतप्रायाणि वा पुनः।। | 2-5-36a 2-5-36b |
विदुस्ते वीर कर्माणि नानवाप्तानि कानिचित्। कच्चित्कारणिका धर्मे सर्वशास्त्रेषु कोविदाः। कारयन्ति कुमारांश्च योधमुख्यांश्च सर्वशः।। | 2-5-37a 2-5-37b 2-5-37c |
कच्चित्सहस्रैर्मूर्खाणामेकं क्रीणासि पण्डितम्। पण्डितो ह्यर्थकृच्छ्रेषु कुर्यान्नः श्रेयसं परम्।। | 2-5-38a 2-5-38b |
कच्चिद्दुर्गाणि सर्वाणि धनधान्यायुधोदकैः। यन्त्रैश्च परिपूर्णानि तथा शिल्पिधनुर्धरैः।। | 2-5-39a 2-5-39b |
एकोप्यमात्यो मेधावी शूरो दान्तो विचक्षणः। राजानं राजपुत्रं वा प्रापयेन्महतीं श्रियम्।। | 2-5-40a 2-5-40b |
कच्चिदष्टादशान्येषु स्वपक्षे दश पञ्च च। त्रिभिस्त्रिभिरविज्ञातैर्वेत्सि तीर्थानि चारकैः।। | 2-5-41a 2-5-41b |
कच्चिद्द्विषामविदितः प्रतिपन्नश्च सरवदा। नित्ययुक्तो रिपून्सर्वान्वीक्षसे रिपुसूदन।। | 2-5-42a 2-5-42b |
कच्चिद्विनयसम्पन्नः कुलपुत्रो बहुश्रुतः। अनसूयुरनुप्रष्टा सत्कृतस्ते पुरोहितः।। | 2-5-43a 2-5-43b |
कच्चिदग्निषु ते युक्तो विधिज्ञो मतिमानृजुः। हुतं च होष्यमाणं च काले वेदयते सदा।। | 2-5-44a 2-5-44b |
कच्चिदङ्गेषु निष्णातो ज्योतिपः प्रतिपादकः। उत्पातेषु च सर्वेषु दैवज्ञः कुशलस्तव।। | 2-5-45a 2-5-45b |
कच्चिन्मुख्या महत्स्वेव मध्यमेषु च मध्यमाः। जघन्याश्च जघन्येषु भृत्याः कर्मसु योजिताः।। | 2-5-46a 2-5-46b |
अमात्यानुपधातीतान्पितृपैतामहाञ्शुचीन्। श्रेष्ठाञ्श्रेष्ठेषु कच्चित्त्वं नियोजयसि कर्मसु।। | 2-5-47a 2-5-47b |
कच्चिन्नोग्रेण दण्डेन भृशमुद्विजसे प्रजाः। राष्ट्रं तवानुशासन्ति मन्त्रिणो भरतर्षभ।। | 2-5-48a 2-5-48b |
कच्चित्त्वां नावजानन्ति याजकाः पतितं यथा। उग्रप्रतिग्रहीतारं कामयानमिव स्त्रियः।। | 2-5-49a 2-5-49b |
कच्चिद्धृष्टश्च शूरश्च मतिमान्धृतिमाञ्शुचिः। कुलीनश्चानुरक्तश्च दक्षः सेनापतिस्तथा। | 2-5-50a 2-5-50b |
कच्चिद्बलस्य ते मुख्याः सर्वयुद्धविशारदाः। धृष्टावदाता विक्रान्तास्त्वया सत्कृत्य मानिताः।। | 2-5-51a 2-5-51b |
कच्चिद्वलस्य भक्तं च वेतनं च यथोचितम्। सम्प्राप्तकाले दातव्यं ददासि न विकर्षसि।। | 2-5-52a 2-5-52b |
कालातिक्रमणादेते भक्तवेतनयोर्भृताः। भर्तुः कुप्यन्ति दौर्गत्यात्सोऽनर्थः सुमहान्स्मृतः।। | 2-5-53a 2-5-53b |
कच्चित्सर्वेऽनुरक्तास्त्वां कुलपुत्राः प्रधानतः। कच्चित्प्राणांस्तवार्थेषु सन्त्यजन्ति सदा युधि।। | 2-5-54a 2-5-54b |
कच्चिन्नैको बहूनर्थान्सर्वशः साम्परायिकान्। अनुशास्ति यथाकामं कामात्मा शासनातिगः।। | 2-5-55a 2-5-55b |
कच्चित्पुरुषकारेण पुरुषः कर्म शोभयन्। लभते मानमधिकं भूयो वा भक्तवेतनम्।। | 2-5-56a 2-5-56b |
कच्चिद्विद्याविनीतांश्च नराञ्ज्ञानविशारदान्। यथार्हं गुणतश्चैव दानेनाभ्युपपद्यसे।। | 2-5-57a 2-5-57b |
कच्चिद्दारान्मनुष्याणां तवार्थे मृत्युमीयुषाम्। व्यसनं चाभ्युपेतानां बिभर्षि भरतर्षभ।। | 2-5-58a 2-5-58b |
कच्चिद्भयादुपगतं क्षीणं वा रिपुमागतम्। युद्धे वा विजितं पार्थ पुत्रवत्परिरक्षसि।। | 2-5-59a 2-5-59b |
कच्चित्त्वमेव सर्वस्याः पृथिव्याः पृथिवीपते। समश्चानभिशङ्क्यश्च यथा माता यथा पिता।। | 2-5-60a 2-5-60b |
कच्चिद्व्यसनिनं शत्रुं निशम्य भरतर्षभ। अभियासि जवेनैव समीक्ष्य त्रिविधं बलम्।। | 2-5-61a 2-5-61b |
यात्रामारभसे दिष्ट्या प्राप्तकालमरिन्दम। पार्ष्णिमूलं च विज्ञाय व्यवसायं पराजयम्।। | 2-5-62a 2-5-62b |
बलस्य च महाराज दत्त्वा वेतनमग्रतः। कच्चिच्च बलमुख्येभ्यः परराष्ट्रे परन्तप। उपच्छन्नानि रत्नानि प्रयच्छसि यथार्हतः।। | 2-5-63a 2-5-63b 2-5-63c |
कच्चिदात्मानमेवाग्रे विजित्य विजितेन्द्रियः। पारञ्जिगीषसे पार्थ प्रमत्तानजितेन्द्रियान्।। | 2-5-64a 2-5-64b |
कच्चित्ते यास्यतः शत्रून्पर्वं यान्ति स्वनुष्ठिताः। साम दानं च भेदश्च दण्डश्च विधिवद्गुणाः।। | 2-5-65a 2-5-65b |
तांश्च विक्रमसे जेतुं जित्वा च परिरक्षसि।। कच्चिदष्टाङ्गसंयुक्ता चतुर्विधबला चमूः। | 2-5-66a 2-5-66b |
बलमुख्यैः सुनीता ते द्विषतां प्रतिवर्धिनी ।। कच्चिल्लवं च मुष्टिं च परराष्ट्रे परन्तप। | 2-5-67a 2-5-67b |
अविहाय महाराज निहंसि समरे रिपून्।। कच्चित्स्वपरराष्ट्रेषु बहवोऽधिकृतास्तव। | 2-5-68a 2-5-68b |
अर्थान्समधितिष्ठन्ति रक्षन्ति च परस्परम्।। | 2-5-69a |
कच्चिदभ्यवहार्याणि गात्रसंस्पर्शनानि च। घ्रेयाणि च महाराज रक्षन्त्यनुमतास्तव। | 2-5-70a 2-5-70b |
कच्चित्कोशश्च कोष्ठं च वाहनं द्वारमायुधम्।। आयश्च कृतकल्याणैस्तव भक्तैरनुष्ठितः।। | 2-5-71a 2-5-71b |
कच्चिदाभ्यन्तरेभ्यश्च बाह्येभ्यश्च विशाम्पते।। रक्षस्यात्मानमेवाग्रे तांश्च स्वेभ्यो मिथश्च तान्। | 2-5-72a 2-5-72b |
कच्चिन्न पाने द्यूते वा क्रीडासु प्रमदासु च। प्रतिजानन्ति पूर्वाह्णे व्ययं व्यसनजं तव।। | 2-5-73a 2-5-73b |
कच्चिदायस्य चार्धेन चतुर्भागेन वा पुनः। पादभागैस्त्रिभिर्वापि व्ययः संशुद्ध्यते तव।। | 2-5-74a 2-5-74b |
कच्चिज्ज्ञातीन्गुरून्वृद्धा- न्वणिजः शिल्पिनः श्रितान्। अभीक्ष्णमनुगृहाणिसि धनधान्येन दुर्गतान्।। | 2-5-75a 2-5-75b 2-5-75c 2-5-75d |
कच्चिच्चायव्यये युक्ताः सर्वे गणकलेखकाः। अनुतिष्ठन्ति पूर्वाह्णे नित्यमायं व्ययं तव।। | 2-5-76a 2-5-76b |
कच्चिदर्थेषु सम्प्रौढान्हितकामाननुप्रियान्। नापकर्षसि कर्मभ्यः पूर्वमप्राप्य किल्बिषम्।। | 2-5-77a 2-5-77b |
कच्चिद्विदित्वा पुरुषानुत्तमाधममध्यमान्। त्वं कर्मस्वनुरूपेषु नियोजयसि भारत।। | 2-5-78a 2-5-78b |
कच्चिन्न लुब्धाश्चौरा वा वैरिणो वा विशाम्पते। अप्राप्तव्यवहारा वा तव कर्मस्वनुष्ठिताः।। | 2-5-79a 2-5-79b |
कच्चिन्न चौरैर्लुब्धैर्वा कुमारैः स्त्रीबलेन वा। त्वया वा पीड्यते राष्ट्रं कच्चित्तुष्टाः कृषीवलाः | 2-5-80a 2-5-80b |
कच्चिद्राष्ट्रे तटाकानि पूर्णानि च बृहन्ति च। भागशो विनिविष्टानि न कृषिर्देवमातृका।। | 2-5-81a 2-5-81b |
कच्चिन्नं भक्तं बीजं च कर्षकस्यावसीदति। प्रत्येकं च शतं वृद्ध्या ददास्यृणमनुग्रहम्।। | 2-5-82a 2-5-82b |
कच्चित्स्वनुष्ठिता तात वार्ता ते साधुभिर्जनैः। वार्तायां संश्रितस्तात लोकोऽयं सुखमेधते।। | 2-5-83a 2-5-83b |
कच्चिच्छूराः कृतप्रज्ञाः पञ्चपञ्च स्वनुष्ठिताः। क्षेमं कुर्वन्ति संहत्य राजञ्जनपदे तव।। | 2-5-84a 2-5-84b |
कच्चिन्नगरगुप्त्यर्थं ग्रामा नगरवत्कृताः। ग्रामवच्च कृताः प्रान्तास्ते च सर्वे त्वदर्पणाः।। | 2-5-85a 2-5-85b |
कच्चिद्बलेनानुगताः समानि विषमाणि च। पुराणि चौरान्निघ्नन्तश्चरन्ति विषये तव।। | 2-5-86a 2-5-86b |
कच्चित्स्रियः सान्त्वयसि कच्चित्ताश्च सुरक्षिताः। कच्चिन्न श्रद्दधास्यासां कच्चिद्गुह्यं न भाषसे।। | 2-5-87a 2-5-87b |
कच्चिदात्ययिकं श्रुत्वा तदर्थमनुचिन्त्य च। प्रियाण्यनुभवञ्शेषे न त्वमन्तः पुरे नृप।। | 2-5-88a 2-5-88b |
कच्चिद्द्वौ प्रथमौ यामौ रात्रेः सुप्त्वा विशाम्पते। सञ्चिन्तयसि धर्मार्थौ याम उत्थाय पश्चिमे ।। | 2-5-89a 2-5-89b |
कच्चिद्दर्शयसे नित्यं मनुष्यान्समलङ्कृतः। उत्थाय काले कालज्ञैः सह पाण्डव मन्त्रिभिः ।। | 2-5-90a 2-5-90b |
कच्चिद्रक्ताम्बरधराः खड्गहस्ताः स्वलङ्कृताः। उपासते त्वामभितो रक्षणार्थमरिन्दम।। | 2-5-91a 2-5-91b |
कच्चिद्दण्ड्येषु यमवत्पूज्येषु च विशाम्पते। परीक्ष्य वर्तसे सम्यगप्रियेषु प्रियेषु च।। | 2-5-92a 2-5-92b |
कच्चिच्छारीरमाबाधमौषधैर्नियमेन वा। मानसं वृद्धसेवाभिः सदा पार्थापकर्षसि ।। | 2-5-93a 2-5-93b |
कच्चिद्वैद्याश्चिकित्सायामष्टाङ्गायां विशारदाः। सुहृदश्चानुरक्ताश्च शरीरे ते हिताः सदा।। | 2-5-94a 2-5-94b |
कच्चिन्न लोभान्मोहाद्वा मानाद्वापि विशाम्पते। अर्थिप्रत्यर्थिनः प्राप्तान्नापास्यसि कथञ्चन।। | 2-5-95a 2-5-95b |
कच्चिन्न लोभान्मोहाद्वा विश्रम्भात्प्रणयेन वा। आश्रितानां मनुष्याणां वृत्तिं त्वं संरुणात्सि वै।। | 2-5-96a 2-5-96b |
कच्चित्पौरा न सहिता ये च ते राष्ट्रवासिनः। त्वया सह विरुध्यन्ते परैः क्रीताः कथञ्चन।। | 2-5-97a 2-5-97b |
कच्चिन्न दुर्बलः शत्रुर्बलेन परिपीडितः। मन्त्रेण बलवान्कश्चिदुभाभ्यां च कथञ्चन।। | 2-5-98a 2-5-98b |
कच्चित्सर्वेऽनुरक्तास्त्वां भूमिपालाः प्रधानतः। कच्चित्प्राणांस्त्वदर्थेषु सन्त्यजन्ति त्वया हृताः।। | 2-5-99a 2-5-99b |
कच्चित्ते सर्वविद्यासु गुणतोऽर्चा प्रवर्तते। ब्राह्मणानां च साधूनां तव नैः श्रेयसी शुभा। दक्षिणास्त्वं ददास्येषां नित्यं स्वर्गापवर्गदाः ।। | 2-5-100a 2-5-100b 2-5-100c |
कच्चिद्धर्मे त्रयीमूले पूर्वैराचरिते जनैः। यतमानस्तथा कर्तुं तस्मिन्कर्मणि वर्तसे।। | 2-5-101a 2-5-101b |
कच्चित्तव गृहेऽन्नानि स्वादून्यश्रन्ति वै द्विजाः। गुणवन्ति गुणोपेतास्तवाध्यक्षं सदक्षिणम्।। | 2-5-102a 2-5-102b |
कच्चित्क्रतूनेकचित्तो वाजपेयांश्च सर्वशः। पौण्डरीकांश्च कार्त्स्न्येन यतसे कर्तुमात्मवान् ।। | 2-5-103a 2-5-103b |
कच्चिज्ज्ञातीन्गुरून्वृद्धान्दैवतांस्तापसानपि। चैत्यांश्च वृक्षान्कल्याणान्ब्राह्मणांश्च नमस्यसि ।। | 2-5-104a 2-5-104b |
कच्चिच्छोको न मन्युर्वा त्वया प्रोत्पाद्यतेऽनघ। अपि मङ्गलहस्तश्च जनः पार्श्वे न तिष्ठति।। | 2-5-105a 2-5-105b |
कच्चिदेषा च ते बुद्धिर्वृत्तिरेषा च तेऽनघ। आयुष्या च यशस्या च धर्मकामार्थदर्शिनी ।। | 2-5-106a 2-5-106b |
एतया वर्तमानस्य बुद्ध्या राष्ट्रं न सीदति। विजित्य च महीं राजा सोत्यन्तं सुखमेधते।। | 2-5-107a 2-5-107b |
कच्चिदार्यो विशुद्धात्मा क्षारितश्चौरकर्मणि। अदृष्टशास्त्रकुशलैर्न लोभाद्वध्यते शुचि।। | 2-5-108a 2-5-108b |
दुष्टो गृहीतस्तत्कारितज्ज्ञैर्दृष्टः सकारणः। कच्चिन्न मुच्यते स्तेनो द्रव्यलोभान्नरर्षभ।। | 2-5-109a 2-5-109b |
उत्पन्नानकच्चिदाढ्यस्य दरिद्रस्य च भारत। अर्थान्न मिथ्या पश्यन्ति तवामात्या हृता धनैः।। | 2-5-110a 2-5-110b |
नास्तिक्यमनृतं क्रोधं प्रमादं दीर्घसूत्रताम्। अदर्शनं ज्ञानवतामालस्यं पञ्चवृत्तिताम्। एकचिन्तनमर्थानामनर्थज्ञैश्च चिन्तनम्।। | 2-5-111a 2-5-111b 2-5-111c |
निश्चितानामनारम्भं मन्त्रस्यापरिरक्षणम्। मङ्गलाद्यप्रयोगं च प्रत्युत्थानं च सर्वतः।। | 2-5-112a 2-5-112b |
कच्चित्त्वं वर्जयस्येतान्राजदोषांश्चतुर्दश। प्रायशोयैर्विनश्यन्ति कृतमूलापि पार्थिवः ।। | 2-5-113a 2-5-113b |
कच्चित्ते सफला वेदाः कच्चित्ते सफळं धनम्। कच्चित्ते सफला दाराः कच्चित्ते सफलं श्रुतम्।। | 2-5-114a 2-5-114b |
युधिष्ठिर उवाच । | 2-5-115x |
कथं वै सफला वेदाः कथं वै सफलं धनम्। कथं वै सफला दाराः कथं वै सफलं श्रुतम् ।। | 2-5-115a 2-5-115b |
नारद उवाच। | 2-5-116x |
अग्निहोत्रफला वेदा दत्तभुक्तफलं धनम्। रतिपुत्रफला दाराः शीलवृत्तफलं श्रुतम्।। | 2-5-116a 2-5-116b |
वैशम्पायन उवाच। | 2-5-117x |
एतदाख्याय स मुनिर्नारदो वै महातपाः। पप्रच्छानन्तरमिदं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।। | 2-5-117a 2-5-117b |
नारद उवाच। | 2-5-118x |
कच्चिदभ्यागता दूराद्वणिजो लाभकारणात्। यथोक्तमवहार्यन्ते शुल्कं शुल्कोपजीविभिः।। | 2-5-118a 2-5-118b |
कच्चित्ते पुरुषा राजन्पुरे राष्ट्रे च मानिताः। उपानयन्ति पण्यानि उपाधाभिरवञ्चिताः।। | 2-5-119a 2-5-119b |
कच्चिच्छृणोषि वृद्धानां धर्मार्थसहिता गिरः। नित्यमर्थविदां तात यथाधर्मार्थदर्शिनाम्।। | 2-5-120a 2-5-120b |
कच्चित्ते कृषितन्त्रेषु गोषु पुष्पफलेषु च। धर्मार्थं च द्विजातिभ्यो दीयेते मधुसर्पिषी ।। | 2-5-121a 2-5-121b |
द्रव्योपकरणं किञ्चित्सर्वदा सर्वशिल्पिनाम्। चातुर्मास्यावरं सम्यङ्नियतं सम्प्रयच्छसि।। | 2-5-122a 2-5-122b |
कच्चित्कृतं विजानीषे कर्तारं च प्रशंससि। सतां मध्ये महाराज सत्करोषि च पूजयन्।। | 2-5-123a 2-5-123b |
कच्चित्सूत्राणि सर्वाणि गृह्णासि भरतर्षभ। हस्तिसूत्राश्वसूत्राणि रथसूत्राणि वा विभो।। | 2-5-124a 2-5-124b |
कच्चिदभ्यस्यते सम्यग्गृहे ते भरतर्षभ। धनुर्वेदस्य सूत्रं वै यन्त्रसूत्रं च नागरम्।। | 2-5-125a 2-5-125b |
कच्चिदस्त्राणि सर्वाणि ब्रह्मदण्डश्च तेऽनघ। विषयोगास्तथा सर्वे विदिताः शत्रुनाशनाः।। | 2-5-126a 2-5-126b |
कच्चिदग्निभयाच्चैव सर्वं व्यालभयात्तथा। रोगरक्षोभयाच्चैव राष्ट्रं स्वं परिरक्षशि।। | 2-5-127a 2-5-127b |
कच्चिदन्धांश्च मूकांश्च पङ्गून्व्यङ्गानबान्धवान्। पितेव पासि धर्मज्ञ तथा प्रव्रजितानपि।। | 2-5-128a 2-5-128b |
षडवर्था महाराज कच्चित्ते पृष्ठतः कृताः। निद्राऽऽलस्यं भयं क्रोधो मार्दवं दीर्घसूत्रता।। | 2-5-129a 2-5-129b |
वैशम्पायन उवाच। | 2-5-130x |
ततः कुरूणामृषभो महात्मा श्रुत्वा गिरो ब्राह्मणसत्तमस्य। प्रणम्य पादावभिवाद्य तुष्टो राजाऽब्रवीन्नारदं देवरूपम्।। | 2-5-130a 2-5-130b 2-5-130c 2-5-130d |
एवं करिष्यामि यथा त्वयोक्तं प्रज्ञा हि मे भूय एवाभिवृद्धा। उक्त्वा तथा चैव चकार राजा लेभे महीं सागरमेखलां च।। | 2-5-131a 2-5-131b 2-5-131c 2-5-131d |
नारद उवाच। | 2-5-132x |
एवं यो वर्तते राजा चातुर्वर्ण्यस्य रक्षणे। स विहृत्येह सुसुखी शुक्रस्यैति सलोकताम् ।। | 2-5-132a 2-5-132b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि पञ्चमोऽध्यायः।। 5।। |
2-5-24 षड्गुणाः सन्धिविग्रहादयः। सप्तोपायाः मन्त्रौषधेन्द्रजालसहिताः सामादयः। स ्वपरपक्षबलावलसहिता एतएव चतुर्दश ।।
2-5-25 अष्टौ कर्माणि- कृषिर्वणिक्पतो दुर्ग सेतुः कुञ्जरबन्धनम्। खन्याकरकरादानं शून्यानां च निवेशनमित्युक्तानि।। 2-5-26 सप्तप्रकृतयः स्वाम्यमात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गबलाख्याः।। 2-5-27 कच्चिन्न तर्कैर्दूतैर्वा इति ख-पाठः।। 2-5-28 शुचयो जीवितक्षमाः इति ख-पाठः।। 2-5-35 कर्मान्ताः कृष्यादयः।। 2-5-37 कारणिकाः युद्धोपकरणयुक्ताः।। 2-5-41 मन्त्री पुरोहितश्चैव युवराजश्चमूपतिः। पञ्चमो द्वारपालश्च षष्ठोऽन्तर्वेश िकस्तथा 1, कारागाराधिकारी च द्रव्यसञ्चयकृत्तथा। कृत्याकृत्येषु चार्थानां नवमो विनियोजकः 2, प्रेदेष्टा नगराध्यक्षः कार्यानिर्माणकृत्तथा। धर्माध्य क्षः सभाध्यक्षो दण्डपालस्त्रिपञ्चमः 3, षोडशो दुर्गपालश्च तथा राष्ट्रान्त पालकः अटवीपालकान्तानि तीर्थान्यष्टादशैव तु 4, चारान्विचारयेत्तीर्थेष्वात ्मनश्च परस्य च । पाखण्डादीनविज्ञातानन्योन्यमितरेष्वपि 5, मन्त्रिणं युवरा जं च हित्वा स्वेषु पुरोहितमिति।। 2-5-67 अष्टाङ्गसंयुक्ता-रथा नागा हया योधाः पत्तयः कर्मकारकाः। चारा दैशिकमुख्याश ्च ध्वजिन्यष्टाङ्गिका मता। चतुर्विधबला मौलमैत्रमृत्याटविकैर्बलैर्युक्ता। बलमुख्यैः सेनापतिभिः प्रतिवर्धिनी प्रातिकूल्येन च्छेदिनी।। 2-5-68 लवः सस्यच्छेदनकालः। मुष्टिः सस्यानां गोपनकालः।। 2-5-71 कोष्ठं धान्यस्थानम्।। 2-5-73 कच्चिन्नेति पानादिव्यसनजं व्ययं तव पूर्वाह्णे धर्माचरणकाले भृत्या न प्रत िजानन्ति नावेदयन्ति।। 2-5-76 अनुतिष्ठन्ति निवेदयन्ति ।। 2-5-79 अप्राप्तव्यवहारा अप्रौढाः।। 2-5-84 प्रतिग्रामं पञ्चपञ्चेति। तेच-प्रशास्ता समाहर्ता संविधाता लेखकः साक्षी चे ति।। 2-5-88आत्ययिकमकल्याणम्।। 2-5-93 आबाधं दुःखम्। नियमेन पथ्याशनादिना।। 2-5-94 निदानं पूर्वलिङ्गानि रूपाण्युपशयस्तथा। सम्प्राप्तिरौषधी रोगी परिचारक एवं चेत्यष्टाङ्गानि।। 2-5-102 तवाध्यक्षं त्वत्समक्षण्।। 2-5-108 क्षारितः मिथ्यापवादैः पातितः।। 2-5-113 कृतमूलाः अपीति छेदः।। 2-5-126 ब्रह्मदण्डः अभिचारः।।
सभापर्व-004 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सभापर्व-006 |