महाभारतम्-02-सभापर्व-015
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राजसूयविषये श्रीकृष्णयुधिष्ठिरभीमानां संवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 2-15-1x |
उक्तं त्वया बुद्धिमता यन्नान्यो वक्तुमर्हति। संशयानां हि निर्मोक्ता त्वन्नान्यो विद्यते भुवि।। | 2-15-1a 2-15-1b |
गृहे गृहे हि राजानः स्वस्य स्वस्य प्रियङ्कराः। न च साम्राज्यमाप्तास्ते सम्रादशब्दो हि कृच्छ्रभाक्। | 2-15-2a 2-15-2b |
कथं परानुभावज्ञः स्वं प्रशंसितुमर्हति। परेण समवेतस्तु यः प्रशस्यः स पूज्यते।। | 2-15-3a 2-15-3b |
विशाला बहुला भूमिर्बहुरत्नसमाचिता। दूरं गत्वा विजानाति श्रेयो वृष्णिकुलोद्वह।। | 2-15-4a 2-15-4b |
शममेव परं मन्ये शमात्क्षेमं भवेन्मम। आरम्भे पारमेष्ठ्यं तु न प्राप्यमिति मे मतिः।। | 2-15-5a 2-15-5b |
एवमेते हि जानन्ति कुले जाता मनस्विनः। कश्चित्कदाचिदेतेषां भवेच्छ्रेष्ठो जनार्दन। | 2-15-6a 2-15-6b |
वयं यैव महाभाग जरासन्धभयात्तदा। शङ्किताः स्म महाभाग द्वौरात्म्यात्तस्य चानघ।। | 2-15-7a 2-15-7b |
अहं हि तव दुर्धर्ष भुजवीर्याश्रयः प्रभो। नात्मानं बलिनं मन्ये त्वयि तस्माद्विशङ्किते।। | 2-15-8a 2-15-8b |
त्वत्सकाशाच्च रामाच्च भीमसेनाच्च माधव। अर्जुनाद्वा महाबाहो हन्तुं शक्यो नवेति वै। एवं जानन्हि वार्ष्णेय विमृशामि पुनः पुनः।। | 2-15-9a 2-15-9b 2-15-9c |
त्वं मे प्रमाणभूतोऽसि सर्वकार्येषु केशव। तच्छ्रुत्वा चाब्रवीद्भीमो वाक्यं वाक्यविशारदः।। | 2-15-10a 2-15-10b |
भीम उवाच।। | 2-15-11x |
अनारम्भपरो राजा वल्मीक इव सीदति। दुर्बलश्चानुपायेन बलिनं योऽधितिष्ठति।। | 2-15-11a 2-15-11b |
अतन्द्रितश्च प्रायेण दुर्बलो बलिनं रिपुम्। जयेत्सम्यक्प्रयोगेण नीत्याऽर्थानात्मनो हितान्।। | 2-15-12a 2-15-12b |
कृष्णे नयो मयि बलं जयः पार्थे धनञ्जये। मागधं साधयिष्याम इष्टिं त्रय इवाग्रयः।। | 2-15-13a 2-15-13b |
`त्वद्बुद्धिबलमाश्रित्य सर्वं प्राप्स्यति धर्मराद। जयोऽस्माकं हि गोविन्द येषां नाथो भवान्सदा'।। | 2-15-14a 2-15-14b |
कृष्ण उवाच। | 2-15-15x |
अर्थानारभते बालो नानुबन्धमवेक्षते। तस्मादरिं न मृष्यन्ति बालमर्थपरायणम्।। | 2-15-15a 2-15-15b |
जित्वा जय्यान्यौवनाश्विः पालनाच्च भगीरथः। कार्तवीर्यस्तपोवीर्याद्बलात्तु भरतो विभुः।। | 2-15-16a 2-15-16b |
ऋद्ध्या मरुत्तस्तान्पश्च सम्राजस्त्वनुशुश्रुम। `सर्वान्वंश्याननुमृशन्नैते सन्ति युगे युगे'।। | 2-15-17a 2-15-17b |
साम्राज्यमिच्छतस्ते तु सर्वाकारं युधिष्ठिर। निग्राह्यलक्षणं प्राप्तिर्धर्मार्थनयलक्षणैः।। | 2-15-18a 2-15-18b |
बार्हद्रथो नरासन्धस्तद्विद्धि भरतर्षभ। न चैनं प्रत्यत्युद्ध्यन्त कुलान्येकशतं नृपाः।। | 2-15-19a 2-15-19b |
तस्मादिह बलादेव साम्राज्यं कुरुते हि सः।। | 2-15-20a |
रत्नभाजो हि राजानो जरासन्धमुपासते। न च तुष्यति तेनापि बाल्यादनयमास्थितः।। | 2-15-21a 2-15-21b |
मूर्धाभिषिक्तं नृपतिं प्रधानपुरुषो बलात्। आदत्ते न च नो दृष्टोऽभागः पुरुषतः क्वचित्।। | 2-15-22a 2-15-22b |
एवं सर्वान्वशे चक्रे जरासन्धः शतावरान्। तं दुर्बलतरो राजा कथं पार्थ उपैष्यति।। | 2-15-23a 2-15-23b |
`तण्डुलप्रस्थके राजा कपर्दिनमुपासते'। प्रोक्षितानां प्रमृष्टानां राज्ञां पशुपतेर्गृहे। पशूनामिव प्रमृष्टानां राज्ञां पशुपतेर्गृहे। | 2-15-24a 2-15-24b 2-15-24c |
क्षत्रियः शस्त्रमरणो यदा भवति सत्कृतः। ततः स्म मागधं सङ्ख्ये प्रतिबाधेम यद्वयम्।। | 2-15-25a 2-15-25b |
षडशीतिः समानीताः शेषा राजंश्चतुर्दश। जरासन्धेन राजानस्ततः क्रूरं प्रवर्त्स्यते।। | 2-15-26a 2-15-26b |
प्राप्नुयात्स यशो दीप्तं तत्र यो विघ्नमाचरेत्। जयेद्यश्च जरासन्धं स सम्राण्णियतं भवेत्।। | 2-15-27a 2-15-27b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि मन्त्रपर्वणि पञ्चदशोऽध्यायः।। 25।। |
2-15-18 युधिष्ठिर धर्मार्थनयलक्षणैः सहिता प्राप्तिः पालनं निग्राह्यलक्षणं साम्रा ज्यं च तेऽस्ति ।।
2-15-19 बार्हद्रथं जरासन्धं तं विद्धि इति क. घ.पाठः।। 2-15-22 बलात्प्रधानपुरुषः जरासन्धः पुरुषतः पुरुषेषु अभागः अस्वीकृतः।।
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