महाभारतम्-02-सभापर्व-089

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दुश्शासनेन द्रौपद्याः सभां प्रत्यानयनम्।। 1।। द्रौपद्या सभ्यान्प्रति प्रश्नः।। 2।।

दुर्योधन उवाच।। 2-89-1x
एहि क्षत्तर्द्रौपदीमानस्व
प्रियां भार्यां संमतां पाण्डवानाम्।
संमार्जतां वेश्म परैतु शीघ्रं
तत्रास्तु दासीभिरपुण्यशीला।।
2-89-1a
2-89-1b
2-89-1c
2-89-1d
विदुर उवाच।। 2-89-2x
दर्विभाषं भाषितं त्वादृशेन
न मन्द सम्बुद्ध्यसि पाशबद्धः।
प्रपाते त्वं लम्बमानो न वेत्सि
व्याघ्रान्मृगः कोपयसेऽतिवेलम्।।
2-89-2a
2-89-2b
2-89-2c
2-89-2d
आशीविषास्ते शिरसि पूर्णकोपा महाविषाः।
मा कोपिष्ठाः सुमन्दात्मन्मा गमस्त्वं यमक्षयम्।।
2-89-3a
2-89-3b
न हि दासीत्वमापन्ना कृष्णा भवितुमर्हति।
जनीशेन हि राज्ञैषा पणे न्यस्तेति मे मतिः।।
2-89-4a
2-89-4b
अयं दत्ते वेणुरिवात्मघाती
फलं राजा धृतराष्ट्रस्य पुत्रः।
द्यूतं हि वैराय महाभयाय
मत्तो न बुध्यत्ययमन्तकालम्।।
2-89-5a
2-89-5b
2-89-5c
2-89-5d
नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी
न हीनताः परमभ्याददीत।
ययास्य वाचा पर उद्विजेत
न तां वदेदुशती पापलोक्याम्।।
2-89-6a
2-89-6b
2-89-6c
2-89-6d
समुच्चरन्त्यतिवादाश्च वक्त्रा-
ध्यौराहतः शोचति रात्र्यहानि।
परस्य नामर्मसु ते पतन्ति
तान्पण्डितो नावसृजेत्परेषु।।
2-89-7a
2-89-7b
2-89-7c
2-89-7d
अजो हि शस्त्रमगिलत्किलैकः
शस्त्रे विपन्ने शिरसास्य भूमौ।
निकृन्तनं स्वस्य कण्ठस्य घोरं
तद्वद्वेरं मा कृथाः पाण्डुपुत्रैः।।
2-89-8a
2-89-8b
2-89-8c
2-89-8d
न किञ्चिदित्थं प्रवदन्ति पार्था
वनेचरं वा गृहमेधिनं वा।
तपस्विनं वा परिपूर्णविद्यं
भषन्ति हैवं श्वनराः सदैव।।
2-89-9a
2-89-9b
2-89-9c
2-89-9d
द्वारं सुघोरं नरकस्य जिह्यं
न बुध्यते धृतराष्ट्रस्य पुत्रः।
तमन्वेतारो बहवः कुरूणां
द्यूतोदये सह दुःशासनेन।।
2-89-10a
2-89-10b
2-89-10c
2-89-10d
मज्जन्त्यलाबूनि शिलाः प्लवन्ते
मुह्यन्ति नावोम्भसि शश्वदेव।
मूढो राजा धृतराष्ट्रस्य पुत्रो
न मे वाचः पथ्यरूपाः शृणोति।।
2-89-11a
2-89-11b
2-89-11c
2-89-11d
अन्तो नूं भवितायं करूणां
सुदारुणः सर्वहरो विनाशः।
वाचः काव्याः सुहृदां पथ्यरूपा
न श्रूयन्ते वर्धते लोभ एव।।
2-89-12a
2-89-12b
2-89-12c
2-89-12d
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-13x
धिगस्तु क्षत्तारमिति ब्रुवाणो
दर्पेण मत्तो धृतराष्ट्रस्य पुत्रः।
अवैक्षत प्रातिकामीं सभाया-
मुवाच चैनं परमार्यमध्ये।।
2-89-13a
2-89-13b
2-89-13c
2-89-13d
दुर्योधन उवाच।। 2-89-14x
त्वं प्रातिकामिन्द्रौपदीमानयस्व
न ते भयं विद्यते पाण्डवेभ्यः।
क्षत्ता ह्ययं विवदत्येव भीतो
न चास्माकं वृद्धिकामः सदैव।।
2-89-14a
2-89-14b
2-89-14c
2-89-14d
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-15x
एवमुक्तः प्रातिकामी स सूतः
प्रायाच्छीघ्रं राजवचो निशम्य।
प्रविश्य च श्वेव हि सिंहगेष्ठं
समासदन्महिषीं पाण्डवानाम्।।
2-89-15a
2-89-15b
2-89-15c
2-89-15d
प्रातिकाम्युवाच। 2-89-16x
युधिष्ठिरो द्यूतमदेन मत्तो
दुर्योधनो द्रौपदि त्वामजैषीत्।
सा त्वं प्रपद्यस्व धृतराष्ट्रस्य वेश्म
नयामि त्वां कर्मणि याज्ञसेनि।।
2-89-16a
2-89-16b
2-89-16c
2-89-16d
द्रौपद्युवाच।। 2-89-17x
कथं त्वेवं वदसि प्रातिकामि-
को हि दीव्येद्भार्यया राजपुत्रः।
मूडो राजा द्यूतमदेन मत्तो
ह्यभून्नान्यत्कैतवमस्य किञ्चित्।।
2-89-17a
2-89-17b
2-89-17c
2-89-17d
प्रातिकाम्युवाच।। 2-89-18x
यदा नाभूत्कैतवमन्यदस्य
तदाऽदेवीत्पाण्डवोऽजातशत्रुः।
न्यस्ताः पूर्वं भ्रातरस्तेन राज्ञा
स्वयं चात्मा त्वमथो राजपुत्रि।।
2-89-18a
2-89-18b
2-89-18c
2-89-18d
द्रौपद्युवाच।। 2-89-19x
गच्छ त्वं कितवं गत्वा सभायां पृच्छ सूतज।
किं तु पूर्वं पराजैषीरात्मानमथवा नु माम्।।
2-89-19a
2-89-19b
एतज्ज्ञात्वा समागच्छ ततो मां नयं सूतज।
ज्ञात्वा चिकीर्षितमहं राज्ञो यास्यामि दुःखिता।।
2-89-20a
2-89-20b
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-21x
सभां गत्वा स चोवाच द्रौपद्यस्तद्वचस्तदा।
युधिष्ठिरं नरेनद्राणां मध्ये स्थितमिदं वचः।।
2-89-21a
2-89-21b
कस्येशो नः पराजैषीरिति त्वामाह द्रौपदी।
किं नु पूर्वं पराजैषीरात्मानमथवापि माम्।।
2-89-22a
2-89-22b
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-23x
युधिष्ठिरस्तु निश्चेता गतसत्व इवाभवत्।
न तं सूतं प्रत्युवाच वचनं साध्वसाधु वा।।
2-89-23a
2-89-23b
दुर्योधन उवाच।। 2-89-24x
इहैवागत्य पाञ्चाली प्रश्नमेनं प्रभाषताम्।
इहैव सर्वे शृण्वन्तु तस्याश्चैतस्य यद्वचः।।
2-89-24a
2-89-24b
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-25x
स गत्वा राजभवनं दुर्योधनवशानुगः।
उवाच द्रौपदीं सूतः प्रातिकामी व्यथन्निव।।
2-89-25a
2-89-25b
सभ्यास्त्वमी राजपुत्र्याह्वयन्ति
मन्ये प्राप्तः संशयः कौरवाणाम्।
न वै समृद्दिं पालयते लघीयान्
यस्त्वां सभां नेष्यति राजपुत्रि।।
2-89-26a
2-89-26b
2-89-26c
2-89-26d
द्रौपद्युवाच।। 2-89-27x
एवं नूनं व्यदधात्संविधाता
स्पर्शावुभौ स्पृशतो वृद्धबालौ।
धर्मं त्वेकं परमं प्राह लोके
स नः शमं धास्यति गोप्यमानः।।
2-89-27a
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2-89-27c
2-89-27d
सोऽयं धर्मो मा त्यगात्कौरवान्वै
सभ्यान्गत्वा पृच्छ धर्म्यं वचो मे।
ते मां ब्रूयुर्निश्चितं तत्करिष्ये
धर्मात्मानो नीतिमन्तो वरिष्ठाः।।
2-89-28a
2-89-28b
2-89-28c
2-89-28d
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-29x
श्रुत्वा सूतस्तद्वचो याज्ञसेन्याः
सभां गत्वा प्राह वाक्यं तदानीम्।
अधोमुखास्ते न च किञ्चिदूचु-
र्निर्बन्धं तं धार्तराष्ट्रस्य बुद्ध्वा।।
2-89-29a
2-89-29b
2-89-29c
2-89-29d
युधिष्ठिरस्तु तच्छ्रुत्वा दुर्योधनचिकीर्षितम्।
द्रौपद्याः संमतं दूतं प्राहिणोद्भरतर्षभ।।
2-89-30a
2-89-30b
एकवस्त्र त्वधोनीवो रोदमाना रजस्वला।
सभामागम्य पाञ्चालि श्वशुरस्याग्रतो भव।।
2-89-31a
2-89-31b
अथ त्वामागतां दृष्ट्वा राजपुत्रीं सभां तदा।
सभ्याः सर्वे विनिन्देरन्मनोर्भिर्धृतराष्ट्रजम्।।
2-89-32a
2-89-32b
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-33x
स गत्वा त्वरितं दूतः कृष्णाया भवनं नृप।
न्यवेदयन्मतं धीमान्धर्मराजस्य निश्चितम्।।
2-89-33a
2-89-33b
पाण्डवाश्च महात्मानो दीना दुःखसमन्विताः।
सत्येनातिपरीताङ्गा नोदीक्षन्ते स्म किञ्चन।।
2-89-34a
2-89-34b
ततस्त्वेषां मुखमालोक्य राजा
दुर्योधनः सूतमुवाच हृष्टः।
इहैवैतामानय प्रातिकामिन्
प्रत्यक्षमस्याः कुरवो ब्रुवन्तः।।
2-89-35a
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2-89-35c
2-89-35d
ततः सूतस्तस्य वशानुगामी
भीतश्च कोपाद्द्रुपदात्मजायाः।
विहाय मानं पुनरेव सभ्या-
नुवाच कृष्णां किमहं ब्रवीमि।।
2-89-36a
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2-89-36c
2-89-36d
दूर्योधन उवाच। 2-89-37x
दुःशासनैष मम सूतपुत्रो
वृकोदरादुद्विजतेऽल्पचेताः।
स्वयं प्रगृह्यानय याज्ञसेनीं
किं ते करिष्यन्त्यवशाः सपत्नाः।।
2-89-37a
2-89-37b
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2-89-37d
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-38x
ततः समुत्थाय स राजपुत्रः
श्रुत्वा भ्रातुः शासनं रक्तदृष्टिः।
प्रविश्य तद्वेश्म महारथाना-
मित्यब्रवीद्द्रौपदीं राजपुत्रीम्।।
2-89-38a
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2-89-38c
2-89-38d
एह्येहि पाञ्चालि राजपुत्रीम्।
दुर्योधनं पश्य विमुक्तलज्जा।
कुरून्भजस्वायतपत्रनेत्रे
धर्मेण लब्धाऽसि सभां परैहि।।
2-89-39a
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2-89-39d
ततः समुत्थाय सुदूर्मनाः सा
विवर्णमामृज्य मुखं करेण।
आर्ता प्रदुद्राव यतः स्त्रियस्ता
वृद्धस्य राज्ञः कुरुपुङ्गवस्य।।
2-89-40a
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2-89-40d
ततो जवेनाभिससार रोषा-
द्दुःशासनस्तामभिगर्जमानः।
दीर्घेषु नीलेष्वथ चोर्मिमत्सु
जग्राह केशेषु नरेन्द्रपत्नीम्।।
2-89-41a
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2-89-41d
ये राजसूयावभृथे जलेन
महाक्रतौ मन्त्रपूतेन सिक्ताः।
ते पाण्डवानां परिभूय वीर्यं
बलात्प्रमृष्टा धृतराष्ट्रजेन ।।
2-89-42a
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2-89-42d
स तां पराकृष्य सभासमीप-
मानीय कृष्णामतिदीर्घकेशीम्।
दुःशासनो नाथवतीमनाथव-
च्चकर्ष वायुः कदलीमिवार्ताम्।।
2-89-43a
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2-89-43d
सा कृष्णमाणा नमिताङ्गयष्टिः
शनैरुवाचाथ रजस्वलाऽस्मि।
एकं च वासो मम मन्दबुद्धे
सभां नेतुं नार्हसि मामनार्य।।
2-89-44a
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2-89-44d
ततोऽब्रवीत्तां प्रसभं निगृह्य
केशेशु कृष्णेषु तदा स कृष्णाम्।
कृष्णं च जिष्णुं च हरिं नरं च
त्रायाय विक्रोशति याज्ञसेनि।।
2-89-45a
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2-89-45c
2-89-45d
रजस्वला वा भव याज्ञसेनि
एकाम्बरा वाप्यथवा विवस्त्रा।
द्यूते जिता चासि कृताऽसि दासी
दासीषु वासश्च यथोपजोषम्।।
2-89-46a
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2-89-46c
2-89-46d
वैशम्पायन उवाच। 2-89-47x
प्रकीर्णकेशी पतितार्धवस्त्रा
दुःशासनेन व्यवधूयमाना।
हीमत्यमर्षेण च दह्यमाना
शनैरिदं वाक्यमुवाच कृष्णा।।
2-89-47a
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2-89-47d
द्रौपद्युवाच। 2-89-48x
इमे समायामुपनीतशास्त्राः
क्रियावन्तः सर्व एवेन्द्रकल्पाः।
गुरुस्थाना गुरवश्चैव सर्वे
तेषामग्रे नोत्सहे स्थातुमेवम्।।
2-89-48a
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2-89-48d
नशंसकर्मंस्त्वमनार्यवृत
मा मा विवस्त्रां कुरु मा विकार्षीः।
न मर्षयेयुस्तव राजपुत्राः
सेन्द्रापि देवा यदि ते सहायाः।।
2-89-49a
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2-89-49d
धर्मे स्थितो धर्मसुतो महात्मा
धर्मश्च सूक्ष्मो निपुणोपलक्ष्यः।
वाचापि भर्तुः परमाणुमात्र-
मिच्छामि दोषं न गुणान्विसृज्य।।
2-89-50a
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2-89-50c
2-89-50d
इदं त्वकार्यं कुरुवीरमध्ये
रजस्वलां यत्परिकर्षसे माम्।
न चापि कश्चित्कुरुतेऽत्र कुत्सां
ध्रुवं तवेदं मतमभ्युपेतः।।
2-89-51a
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2-89-51d
धिगस्तु नष्टः खलु भारतानां
धर्मस्तथा क्षत्रविदां च वृत्तम्।
यत्र ह्यतीतां कुरुधर्मवेलां
प्रेक्षन्ति सर्वे कुरवः सभायाम्।।
2-89-52a
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2-89-52c
2-89-52d
द्रोणस्य भीष्मस्य च नास्ति सत्त्वं
क्षत्तुस्तथैवास्य चनास्ति सत्त्वं
क्षत्तुस्तथैवास्य महात्मनोपि।
न लक्षयन्ति कुरुवृद्धमुख्याः।।
2-89-53a
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2-89-53c
2-89-53d
वैशम्पायन उवाच।। 2-89-54x
तथा ब्रुवन्ती करुणं सुमध्यमा
भर्तॄन्कटाक्षैः कुपितानपश्यत्।
सा पाण्डवान्कोपपरीतदेहा-
न्सन्दीपयामास कटाक्षपातैः।।
2-89-54a
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2-89-54c
2-89-54d
हृतेन राज्येन तथा धनेन
रत्नैश्च मुख्यैर्न तथा बभूव।
यथा त्रपाकोपसमीरितेन
कृष्णाकटाक्षेण बभूव दुःखम्।।
2-89-55a
2-89-55b
2-89-55c
2-89-55d
दुःशासनश्चापि समीक्ष्य कृष्णा-
मवेक्षमाणां कृपणान्पतींस्तान्।
आधूय वेगेन विसञ्ज्ञकल्पा-
मुवाच दासीति हसन्सशब्दम्।।
2-89-56a
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2-89-56c
2-89-56d
कर्णस्तु तद्वाक्यमतीव हृष्टः
सम्पूजयामास हसन्सशब्दम्।
गान्धारराजः सुबलस्य पुत्र-
स्तथैव दुःशासनमभ्यनन्दत्।।
2-89-57a
2-89-57b
2-89-57c
2-89-57d
सभ्यास्तु ये तत्र बभूवुरन्ये
ताभ्यामृते धार्तराष्ट्रेण चैव।
तेषामभूद्दुः खमतीव कृष्णां
दृष्ट्वा सभायां परिकृष्यमाणाम्।।
2-89-58a
2-89-58b
2-89-58c
2-89-58d
भीष्म उवाच। 2-89-59x
न धर्मसौक्ष्म्यात्सुभगे विवेक्तुं
शक्रोमि ते प्रश्नमिमं यथावत्।
अस्वाम्यशक्तः पणितुं परस्वं
स्त्रियाश्च भर्तुर्वशतां समीक्ष्य।।
2-89-59a
2-89-59b
2-89-59c
2-89-59d
त्यजेत सर्वां पृथिवीं समृद्धां
युधिष्ठिरो धर्ममथो न जह्यात्।
उक्तं जितोऽस्मीति च पाण्डवेन
तस्मान्न शक्नोमि विवेक्तुमेतत्।।
2-89-60a
2-89-60b
2-89-60c
2-89-60d
द्व्यूतेऽद्वितीयः शकुनिर्नरेषु
कुन्तीसुतस्तेन निसृष्टकामः।
न मन्यते तां निकृतिं युधिष्ठिर-
स्तस्मान् ते प्रश्नमिमं ब्रवीमि।।
2-89-61a
2-89-61b
2-89-61c
2-89-61d
द्रौपद्युवाच। 2-89-61x
आहूय राजा कुशलैरनार्यै-
र्दुष्टात्मभिर्नैकृतिकैः सभायाम्।
द्यूतप्रियैर्नातिकृतप्रयत्नः
कस्मादयं नाम निसृष्टकामः।।
2-89-62a
2-89-62b
2-89-62c
2-89-62d
अशुद्धभावैर्निकृतिप्रवृत्तै-
रबुध्यमानः कुरुपाण्डवाग्र्यः।
सम्भूय सर्वैश्च जितोऽपि यस्मा-
त्पश्चादयं कैतवमभ्युपेतः।।
2-89-63a
2-89-63b
2-89-63c
2-89-63d
तिष्ठन्ति चेमे कुरवः सभाया-
मीशाः सुतानां च तथा स्नुपाणाम्।
समीक्ष्य सर्वे मम चापि वाक्यं
विब्रूत मे प्रश्नमिमं यथावत्।।
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2-89-64b
2-89-64c
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न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा
न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मम्।
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति
न तत्सत्यं यच्छलेनानुविद्धम्।।
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वैशम्पायन उवाच।। 2-89-66x
तथा ब्रुवन्तीं करुणं रुदन्ती-
मवेक्षमाणां कृपणान्पतींस्तान्।
दुःशासनः परुषाण्यप्रियाणि
वाक्यान्युवाचामधुराणि चैव।।
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2-89-66d
तां कृष्यमाणां च रजस्वलां च
स्रस्तोत्तरीयामतदर्हमाणाम्।
वृकोदरः प्रेक्ष्य युधिष्ठिरं च
चकार कोपं परमार्तरूपः।।
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2-89-67b
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2-89-67d
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
द्यूतपर्वणि एकोननवतितमोऽध्यायः।। 89।।

2-89-17 कैतवं कितवेभ्यो देयं धनम्।। 2-89-27 स्पर्शो सुखदुःखे वृद्धबालौ स्पृशतः प्राप्नुतः । शमं स्वास्थ्यम्।। 2-89-41 ऊर्मिमत्सु प्रवहन्नदीजलवन्निम्नोन्नतेषु ।। 2-89-49 सेन्द्रपि सेन्द्रा अपि।। 2-89-64 विब्रूत विस्पष्ट ब्रूत नतु भईष्मवत्सन्दिग्धमिति भावः।।

सभापर्व-088 पुटाग्रे अल्लिखितम्। सभापर्व-090
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