सामग्री पर जाएँ

महाभारतम्-02-सभापर्व-090

विकिस्रोतः तः
← सभापर्व-089 महाभारतम्
द्वितीयपर्व
महाभारतम्-02-सभापर्व-090
वेदव्यासः
सभापर्व-091 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103

भौमवचनम्।। 1।। विकर्णवचनम्।। 2।। दुःशासनेन द्रौपदीवस्त्रापहारः।।3।। श्रीकृष्णप्रसादात् द्रौपद्यः वस्त्रराशिप्रादुर्भावः।। 4।। विदुरवचनम्।। 5।।


भीम उवाच। 2-90-1x
भवन्ति गेहे बन्धक्यः कितवानां युधिष्ठिर।
भवन्ति दीव्यन्ति दया चैवास्ति तावस्वपि।। 2-90-1a
काश्यो यद्धनमाहार्षीद्द्रव्यं यच्चान्यदुत्तमम्।
तथाऽन्ये पृथिवीपाला यानि रत्नान्युपाहरन्।। 2-90-2a
वाहनानि धनं चैव कवचान्यायुधानि च।
राज्यमात्मा वयं चैव कैतवेन हृतं परैः।। 2-90-3a
न च मे तत्र कोपोऽभूत्सर्वस्येशो हि नो भवान्।
इमं त्वतिक्रमं मन्यो द्रौपदी यत्र पण्यते।। 2-90-4a
एषा ह्यनर्हती बाला पाण्डवान्प्राप्य कौरवैः।
त्वत्कृते क्लिश्यते क्षुद्रैर्नृशंसैरकृतात्मभिः।। 2-90-5a
अस्याः कृते मन्युरयं त्वयि राजन्निपात्यते।
बाहू ते सम्प्रधक्ष्यामि सहदेवाग्निमानयः।। 2-90-6a
अर्जुन उवाच।
न पुरा भीमसेन त्वमीदृशीर्वदिता गिरः।
परैस्ते नाशितं नूनं नृशंसैर्धर्मगौरवम्।। 2-90-7a
न सकामाः परो कार्या धर्ममेवाचरोत्तमम्।
भ्रातरं धार्मिकं ज्येष्ठं कोऽतिवर्तितुमर्हति।। 2-90-8a
आहूतो हि परै राजा क्षात्रं व्रतमनुस्मरन्।
दीव्यते परकामेन तन्नः कीर्तिकरं महत्।। 2-90-9a
भीमसेन उवाच।।
एवमस्मिन्कृतं विद्यां यदि नाहं धनञ्जय।
दीप्तेऽग्नौ सहितौ बाहू निर्दहेयं बलादिव।। 2-90-10a
वैशम्पायन उवाच।।
तथा तान्दुः खितान्दृष्ट्वा पाण्डवान्धृतराष्ट्रजः।
कृष्यमाणां च पाञ्चालीं विकर्ण इदमब्रवीत्।। 2-90-11a
याज्ञसेन्या यदुक्तं तद्वाक्यं विब्रूत पार्थिवाः।
अविवेकेन वाक्यस्य नरकः सद्य एव नः।। 2-90-12a
भीष्मश्च धृतराष्ट्रश्च कुरुवृद्धतमावुभौ।
समेत्य नाहतुः किञ्चिद्विदुरश्च महामतिः।। 2-90-13a
भारद्वाजश्च सर्वेषामाचार्यः कृप एव च।
कुत एतावपि प्रश्नं नाहतुर्द्विजसत्तमौ।। 2-90-14a
ये त्वन्ये पृथिवीपालाः समेताः सर्वतोदिशम्।
कामक्रोधौ समुत्सृज्य ते ब्रुवन्तु यथामति।। 2-90-15a
यदितं द्रौपदी वाक्यमुक्तवत्यसकृच्छुभा।
विमृश्य कस्य कः पक्षः पार्थिवा वदतोत्तरम्।। 2-90-16a
वाशम्पायन उवाच।।
एवं स बहुशः सर्वानुक्तवांस्तान्सभासदः।
न च ते पृथिवीपालास्तमूचुः साध्वसाधु वा।। 2-90-17a
उक्त्वाऽसकृत्तथा सर्वान्विकर्णः पृथिवीपतीन्।
पाणौ पाणिं विनिष्पिष्य निःश्वसन्निदमब्रवीत्।। 2-90-18a
विब्रूत पृथिवीपाला वाक्यं मा वा कथञ्चनि।
मन्ये न्याय्यं यदत्राहं तद्वि वक्ष्यामि कौरवाः।। 2-90-19a
चत्वार्याहुर्नश्रेष्ठा व्यसनानि महीक्षिताम्।
मृगयां पानमक्षांश्च ग्राम्ये चैवातिरक्तताम्।। 2-90-20a
एतेषु हि नरः सक्तो धर्ममुत्सृज्य वर्तते।
यथाऽयुक्तेन च कृतां क्रियां लोको न मन्यते।। 2-90-21a
तथेयं पाण्डुपुत्रेण व्यसने वर्तता भृशम्।
समाहूतेन कितवैरास्थितो द्रौपदीपणः।। 2-90-22a
साधारणी च सर्वेषां पाण्डवानामनिन्दिता।
जितेन पूर्वं चानेन पाण्डवेन कृतः पणः।। 2-90-23a
इयं च कीर्तिता कृष्णा सौबलेन पणार्थिना।
एतत्सर्वं विचार्याहं मन्ये न विजितामिमाम्।। 2-90-24a
वैशम्पायन उवाच।।
एतच्छ्रुत्वा महान्नादः सभ्यानामुदतिष्ठत।
विकर्णं शंसमानानां सौबलं चापि निन्दताम्।। 2-90-25a
तस्मिन्नुपरते शब्दे राधेयः क्रोधमूर्छितः।
प्रगृह्य रुचिरं बाहुमिदं वचनमब्रवीत्।। 2-90-26a
कर्ण उवाच।।
दृश्यन्ते वै विकर्णेह वैकृतानि बहून्यपि।
तज्जातस्तद्विनाशाय यथाऽग्निररणिप्रजः।। 2-90-27a
एते न किञ्चिदप्याहुश्चोदिता ह्यपि कृष्णया।
धर्मेण विजितामेतां मन्यन्ते द्रपदात्मजाम्।। 2-90-28a
त्वं तु केवलबाल्येन धार्तराष्ट्र विदीर्यसे।
यद्ब्रवीषि सभाम्ध्ये बालः स्थविरभाषितम्।। 2-90-29a
न च धर्म यथावत्त्वं कृष्णां च जितेति सुमन्दधीः।
यद्ब्रवीषि जितां कृष्णां न जितेति सुमन्दधीः।। 2-90-30a
कथं ह्यविजितां कृष्णां मन्यसे धृतराष्ट्रज।
यदा सभायां सर्वस्वं न्यस्तवान्पाण्डवाग्रजः।। 2-90-31a
अभ्यन्तर च सर्वस्वे द्रौपदी भरतर्षभ।
एवं धर्मजितां कृष्णां मन्यसे न जितां कथम्।। 2-90-32a
कीर्तिता द्रौपदी वाचा अनुज्ञाता च पाण्डवैः।
भवत्यविजिता केन हेतुनैषा मता तव।। 2-90-33a
मन्यसे वा सभामेतामानीतामेकवाससम्।
अधर्मेणेति तत्रापि शृणु मे वाक्यमुत्तमम्।। 2-90-34a
एको भर्ता स्त्रिया देवैर्विहितः कुरुनन्दन।
इयं त्वनेकवशगा बन्धकीति विनिश्चिता।। 2-90-35a
अस्याः सभामानयनं न चित्रमिति मे मतिः।
एकाम्बरधरत्वं वाऽप्यथवाऽपि विवस्त्रता।। 2-90-36a
यच्चैषां द्रविणं किञ्चिद्य चैषा ये च पाण्डवाः।
सौबलेनेह तत्सर्वं धर्मेण विजितं वसु।। 2-90-37a
दुःशासन सुबालोऽयं विकर्णः प्राज्ञवादिकः।
पाण्डवानां च वासांसि द्रौपद्याश्चाप्युपाहर।। 2-90-38a
वैशम्पायन उवाच।।
तच्छ्रुत्वा पाण्डवाः सर्वे स्वानि वासांसि भारत।
अवकीर्योत्तरीयाणि सभायां समुपाविशन्।। 2-90-39a
ततो दुःशासनो राजन्द्रौपद्या वसनं बलात्।
सभामध्ये सभाक्षिप्य व्यपाक्रष्टुं प्रचक्रमे।। 2-90-40a
आकृष्यमाणे वसने विललाप सुदुःखिता।
ज्ञातं मया वसिष्ठेन पुरा गीतं महात्मना।। 2-90-41a
महत्यापदि सम्प्राप्ते स्मर्तव्यो भगवान्हरिः।
इति निश्चित्य मनसा शरणागतवत्सलम्।
आकृष्यमाणे वसने द्रौपदी कृष्णमस्तरत्।। 2-90-42a
शङ्खचक्रगदापाणे द्वारकानिलयाच्युत।
गोविन्द पुण्डरीकाक्ष रक्ष मां शरणागताम्।। 2-90-43a
हा कृष्ण द्वारकावासिन्क्वासि यादवन्दन।
इमामवस्थां सम्प्राप्तामनाथां किमुपेक्षसे।। 2-90-44a
गोविन्द द्वारकावासिन्कृष्ण गोपीजनप्रिय।
कौरवैः परिभूतां मां किं न जानासि केशव'।। 2-90-45a
हे नाथ हे रमानाथ व्रजनाथार्तिनाशन।
कौरवार्णवमग्नां मामुद्धरस्व जनार्दन।। 2-90-46a
कृष्णकृष्ण महायोगिन्विश्वात्मन्विश्वभावन।
प्रपन्नां पाहि गोविन्द कुरुमध्येऽवसीदतीम्।। 2-90-47a
इत्यनुस्मृत्य कृष्णं सा हरिं त्रिभुवनेश्वरम्।
प्रारुदद्दुःखिता राजन्मुखमाच्छाद्य भामिनी।। 2-90-48a
तस्य प्रसाद्द्रौपद्याः कृष्यमाणेऽम्बरे तदा।
तद्रूपमपरे वस्त्रं प्रादुरासीदनेकशः।। 2-90-49a
नानारागविरागाणि वसनान्यथ वै प्रभो।
प्रादुर्भवन्ति शतशो धर्मस्य परिपालनात्।। 2-90-50a
ततो हलहलाशब्दस्तत्रासीद्घोरदर्शनः।
तदद्भुततमं लोके वीक्ष्य सर्वे महीभृतः।। 2-90-51a
शशंसुर्द्रौपदीं तत्र कुत्सन्तो धृतराष्ट्रजम्।
धिग्धिगित्यशिवां वाचमुत्सृजन्कौरवान्प्रति'।। 2-90-52a
यदा तु वाससां राशिः सभामध्ये समाचितः'।
तदा दुःशासनः श्रान्तो व्रीडितः समुपाविशत् 2-90-53a
शशाप तत्र भीमस्तु राजमध्ये बृहत्स्वनः।
क्रोधाद्विस्फुरमाणौष्ठो विनिष्पिष्य करे करम्।। 2-90-54a
भीम उवाच।।
इदं मे वाक्यमादध्वं क्षत्रिया लोकवासिनः।
नोक्तपूर्वं नरैरन्यैर्न चान्यो यद्वदिष्यति।। 2-90-55a
यद्येतदेवमुक्त्वाऽहं न कुर्यां पृथिवीश्वराः।
पितामहानां पूर्वेषां नाहं गतिमवाप्नुयाम्।। 2-90-56a
अस्य पापस्य दुर्बुद्धेर्भारतापसदस्य च।
न पिबेयं बलाद्वक्षो भित्त्वा चेद्रुधिरं युधि।। 2-90-57a
वैशम्पायन उवाच।।
तस्य ते तद्वचः श्रुत्वा रौद्रं लोमप्रहर्षणम्।।
प्रचक्रुर्बहुलां पूजां कुसन्तो धृतराष्ट्रजम्।। 2-90-58a
न विब्रुवन्ति कौरव्याः प्रश्नमेतमिति स्म ह।
सुजनः क्रोशति स्मात्र धृतराष्ट्रं विगर्हयन्।। 2-90-59a
ततो बाहू समुक्षिप्य निवार्य च सभासदः।
विदुरः सर्वधर्मज्ञ इदं वचनमब्रवीत्। 2-90-60a
विदुर उवाच।
द्रौपदी प्रश्नमुक्त्वैवं रोरवीति त्वनाथवत्।
न च विब्रूत तं प्रश्नं सभ्या धर्मोऽत्र पीड्यते।। 2-90-61a
सभां प्रपद्यते प्रश्नः प्रज्वलन्निव हव्यवाद्।
तं वै सत्येन धर्मेण सभ्याः प्रशमयन्त्युत।। 2-90-62a
धर्म्यं प्रश्नमतो ब्रूयादार्यः सत्येन मानवः।
विब्रूयुस्तत्र तं प्रश्नं कामक्रोधबलातिगाः।। 2-90-63a
विकर्णेन यथाप्रज्ञमुक्तः प्रश्नो नराधिपाः।
भवन्तोऽपि हि तं प्रश्नं विब्रुवन्तु यथामति।। 2-90-64a
यो हि प्रश्नं न विब्रूयाद्धर्मदर्शी सभां गतः।
अनृते या फलावाप्तिस्तस्याः सोऽर्धं समश्नुते।। 2-90-65a
यः पुनर्वितथं ब्रूयाद्धर्मदशीं सभां गतः।
अनृतस्य फलं कृत्स्नं स प्राप्नोतीति निश्चयः।। 2-90-66a
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
प्रह्लादस्य च संवादं मुनेराङ्गिरसस्य च।। 2-90-67a
प्रह्लादो नाम दैत्येन्द्रस्तस्य पुत्रो विरोचनः।
कन्याहेतोराङ्गिरसं सुधन्वानमुपाद्रवत्।। 2-90-68a
अहं ज्यायानहं ज्यायानिति कन्येप्सया तदा।
तयोर्देवनमत्रासीत्प्राणयोरिति नः श्रुतम्।। 2-90-69a
तयोः प्रश्नविवादोऽभूत्प्रह्लादं तावपृच्छताम्।
ज्यायान्क आवयोरेकः प्रश्नं प्रब्रूहि मा मृषा।। 2-90-70a
स वै विवदनाद्भीतः सुधन्वानं विलोकयन्।
तं सुधन्वाब्रवीत्क्रुद्धो ब्रह्मदम्ड इव ज्वलन्।। 2-90-71a
यदि वै वक्ष्यसि मृषा प्रह्लादाथ न वक्ष्यसि।।
शतघा ते शिरो वज्री वज्रेण प्रहरिष्यति।। 2-90-72a
सुधन्वना तथोक्तः सन्व्यथितोऽश्वत्थपर्णवत्।
जगाम कश्यपं दैत्यः परिप्रष्टुं महौजसम्।। 2-90-73a
प्रह्लाद उवाच।।
त्वं वै धर्मस्य विज्ञाता दैवस्येहासुरस्य च।
ब्राह्मणस्य महाभाग धर्मकृच्छ्रमिदं शृणु।। 2-90-74a
यो वै प्रश्नं न विब्रूयाद्वितथं चैव निर्दिशेत्।
के वै तस्य परे लोकास्तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः।। 2-90-75a
कश्यप उवाच।।
जानन्नविब्रुवन्प्रश्नान्कामात्क्रोधाद्भयात्तथा।
सहस्रं वारुणान्पाशानात्मनि प्रतिमुञ्चति।। 2-90-76a
साक्षी वा विब्रुवन्साक्ष्यं गोकर्णशिथिलश्वरन्।
सहस्रं वारुणान्पाशानात्मनि प्रतिमुञ्जति।। 2-90-77a
तस्य संवत्सरे पूर्णे पाश एकः प्रमुच्यते।
तस्मात्सत्यं तु वक्तव्यं जानता सत्यमुञ्जसा।। 2-90-78a
विद्धो धर्मो ह्यधर्मेण सभां यत्रोपपद्यते।
न चास्य शल्यं कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः।। 2-90-79a
अर्धं हरति वै श्रेष्ठः पादो भवति कर्तृषु।
पादश्चैव सभासत्सु ये न निन्दन्ति निन्दितम्।। 2-90-80a
अनेना भवति श्रेष्ठो मुच्यन्ते च सभासदः।
एनो गच्छति कर्तारं निन्दार्हो यत्र निन्द्यते।। 2-90-81a
वितथं तु वदेयुर्ये धर्मं प्रह्लाद पृच्छते।
इष्टापूर्तं च ते घ्न्ति सप्तसप्त परावरान्।। 2-90-82a
हृतस्वस्य हि यद्दुःखं हतपुत्रस्य चैव यत्।
ऋणिनः प्रति यच्चैव स्वार्थाद्धष्टस्य चैव यत्।। 2-90-83a
स्त्रियाः पत्या विहीनाया राज्ञा ग्रस्तस्य चैव यत्।
अपुत्रायाश्च यद्दुःखं व्याघ्राघ्रातस्य चैव यत्।। 2-90-84a
अध्यूढायाश्च यद्दुःखं व्याघ्राघ्रातस्य चैव यत्।।
एतानि वै समान्याहुर्दुःखानि त्रिदिवेश्वराः।। 2-90-85a
तानि सर्वाणि दुःखानि प्राप्नोति वितथं ब्रुवन्।
समक्षदर्शनात्साक्षी श्रवणाच्चेति धारणात्।। 2-90-86a
तस्मात्सत्यं ब्रुवत्साक्षी धर्मार्थाभ्यां न हीयते।
कश्यपस्य वचः श्रुत्वा प्रह्लादः पुत्रमब्रवीत्।। 2-90-87a
श्रेयान्सुधन्वा त्वत्तो वै मत्तः श्रेयांस्तथाङ्गिराः।
माता सुधन्वाऽयं प्राणानामीश्वरस्तव।।
विरोचन सुधन्वाऽयं प्राणानामीश्वरस्तव।। 2-90-88a
सुधन्वोवाच।
पुत्रस्नेहं पिरत्यज्य यस्त्वं धर्मे व्यवस्थितः।
अनुजानामि ते पुत्रं जीवत्वेव शतं समाः।। 2-90-89a
विदुर उवाच।
एवं वै परमं धर्मं श्रुत्वा सर्वे सभासदः।
यथाप्रश्नं तु कृष्णाया मन्यध्वं तत्र किं परम्।। 2-90-90a
वैशम्पायन उवाच।।
विदुरस्य वचः श्रुत्वा नोचुः किञ्चन पार्थिवाः।
कर्णो दुःशासनं त्वाह कृष्णं दासीं गृहान्नय।। 2-90-91a
तां वेपमानां सव्रीडां प्रलपन्तीं स्म पाण्डवान्।
दुःशासनः सभामध्ये विचकर्ष तपस्विनीम्।। 2-90-92a

।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि नवतितमोऽध्यायः।। 90।।

पाठभेदाः
2-90-20 ग्राम्ये स्त्रीभोगी।।
2-90-41 आकृष्यमाणे वसने द्रौपद्या चिन्तितो हरिः। गोविन्द द्वारकान्वासिन्कृष्ण गोपीजनप्रिय। कौरवैः परिभूतां मां किं न जानासि केशव। इति झ.पाठः।।
2-90-77 गोकर्णशिथिल उभयक्षस्पर्शी।।



भीम उवाच
भवन्ति देशे बन्धक्यः कितवानां युधिष्ठिर
न ताभिरुत दीव्यन्ति दया चैवास्ति तास्वपि १
काश्यो यद्बलिमाहार्षीद्द्र व्यं यच्चान्यदुत्तमम्
तथान्ये पृथिवीपाला यानि रत्नान्युपाहरन् २
वाहनानि धनं चैव कवचान्यायुधानि च
राज्यमात्मा वयं चैव कैतवेन हृतं परैः ३
न च मे तत्र कोपोऽभूत्सर्वस्येशो हि नो भवान्
इदं त्वतिकृतं मन्ये द्रौपदी यत्र पण्यते ४
एषा ह्यनर्हती बाला पाण्डवान्प्राप्य कौरवैः
त्वत्कृते क्लिश्यते क्षुद्रै र्नृशंसैर्निकृतिप्रियैः ५
अस्याः कृते मन्युरयं त्वयि राजन्निपात्यते
बाहू ते संप्रधक्ष्यामि सहदेवाग्निमानय ६
अर्जुन उवाच
न पुरा भीमसेन त्वमीदृशीर्वदिता गिरः
परैस्ते नाशितं नूनं नृशंसैर्धर्मगौरवम् ७
न सकामाः परे कार्या धर्ममेवाचरोत्तमम्
भ्रातरं धार्मिकं ज्येष्ठं नातिक्रमितुमर्हति ८
आहूतो हि परै राजा क्षात्रधर्ममनुस्मरन्
दीव्यते परकामेन तन्नः कीर्तिकरंमहत् ९
भीमसेन उवाच
एवमस्मिकृतं विद्यां यदस्याह धनञ्जय
दीप्तेऽग्नौ सहितौबाहू निर्दहेयं बलादिव १०
वैशम्पायन उवाच
तथा तान्दुःखितान्दृष्ट्वा पाण्डवान्धृतराष्ट्रजः
क्लिश्यमानां च पाञ्चालद्यं विकर्ण इदमब्रवीत् ११
याज्ञसेन्या यदुक्तं तद्वाक्यं विब्रूत पार्थिवाः
अविवेकेन वाक्यस्य नरकः सद्य एव नः १२
भीष्मश्च धृतराष्ट्रश्च कुरुवृद्धतमावुभौ
समेत्य नाहतुः किंचिद्विदुरश्च महामतिः १३
भारद्वाजोऽपि सर्वेषामाचार्यः कृप एव च
अत एतावपि प्रश्नं नाहतुर्द्विजसत्तमौ १४
ये त्वन्ये पृथिवीपालाः समेताः सर्वतो दिशः
कामक्रोधौ समुत्सृज्य ते ब्रुवन्तु यथामति १५
यदिदं द्रौपदी वाक्यमुक्तवत्यसकृच्छुभा
विमृश्य कस्य कः पक्षः पार्थिवा वदतोत्तरम् १६
एवं स बहुशः सर्वानुक्तवांस्तान्सभासदः
न च ते पृथिवीपालास्तमूचुः साध्वसाधु वा १७
उक्त्वा तथासकृत्सर्वान्विकर्णः पृथिवीपतीन्
पाणिं पाणौ विनिष्पिष्य निःश्वसन्निदमब्रवीत् १८
विब्रूत पृथिवीपाला वाक्यं मा वा कथंचन
मन्ये न्याय्यं यदत्राहं तद्धि वक्ष्यामि कौरवाः १९
चत्वार्याहुर्नरश्रेष्ठा व्यसनानि महीक्षिताम्
मृगया पानमक्षांश्च ग्राम्ये चैवातिसक्तताम् २०
एतेषु हि नरः सक्तो धर्ममुत्सृज्य वर्तते
तथायुक्तेन च कृतां क्रियां लोको न मन्यते २१
तदयं पाण्डुपुत्रेण व्यसने वर्तता भृशम्
समाहूतेन कितवैरास्थितो द्रौपदीपणः २२
साधारणी च सर्वेषां पाण्डवानामनिन्दिता
जितेन पूर्वं चानेन पाण्डवेन कृतः पणः २३
इयं च कीर्तिता कृष्णा सौबलेन पणार्थिना
एतत्सर्वं विचार्याहं मन्ये न विजितामिमाम् २४
एतच्छ्रुत्वा महान्नादः सभ्यानामुदतिष्ठत
विकर्णं शंसमानानां सौबलं च विनिन्दताम् २५
तस्मिन्नुपरते शब्दे राधेयः क्रोधमूर्च्छितः
प्रगृह्य रुचिरं बाहुमिदं वचनमब्रवीत् २६
दृश्यन्ते वै विकर्णे हि वैकृतानि बहून्यपि
तज्जस्तस्य विनाशाय यथाग्निररणिप्रजः २७
एते न किंचिदप्याहुश्चोद्यमानापि कृष्णया
धर्मेण विजितां मन्ये मन्यन्ते द्रुपदात्मजाम् २८
त्वं तु केवलबाल्येन धार्तराष्ट्र विदीर्यसे
यद्ब्रवीषि सभामध्ये बालः स्थविरभाषिंतम् २९
न च धर्मं यथातत्त्वं वेत्सि दुर्योधनावरः
यद्ब्रवीषि जितां कृष्णामजितेति सुमन्दधीः ३०
कथं ह्यविजितां कृष्णां मन्यसे धृतराष्ट्रज
यदा सभायां सर्वस्वं न्यस्तवान्पाण्डवाग्रजः ३१
अभ्यन्तरा च सर्वस्वे द्रौपदी भरतर्षभ
एवं धर्मजितां कृष्णां मन्यसे न जितां कथम् ३२
कीर्तिता द्रौपदी वाचा अनुज्ञाता च पाण्डवैः
भवत्यविजिता केन हेतुनैषा मया तव ३३
मन्यसे वा सभामेतामानीतामेकवाससम्
अधर्मेणेति तत्रापि शृणु मे वाक्यमुत्तरम् ३४
एको भर्ता स्त्रिया देवैर्विहितः कुरुनन्दन
इयं त्वनेकवशगा बन्धकीति विनिश्चिता ३५
अस्याः सभामानयनं न चित्रमिति मे मतिः
एकाम्बरधरत्वं वाप्यथ वापि विवस्त्रता ३६
यच्चैषांद्र विणं किंचिद्या चैषा ये च पाण्डवाः
सौबलेनेह तत्सर्वं धर्मेण विजितं वसु ३७
दुःशासन सुबालोऽय विकर्णः प्राज्ञवादिकः
पाण्डवानां च वासांसि द्रौपद्याश्चाप्युपाहर ३८
तच्छ्रुत्वा पाण्डवाः सर्वे स्वानि वासांसि भारत
अवकीर्योत्तरीयाणि सभायां समुपाविशन् ३९
ततो दुःशासनो राजन्द्रौपद्या वसनं बलात्
सभामध्ये समाक्षिप्य व्यपाक्रष्टुं प्रचक्रमे ४०
आकृष्यमाणे वसने द्रौपद्यास्तु विशां पते
तद्रूपमपरं वस्त्रं प्रादुरासीदनेकशः ४१
ततो हलहलाशब्दस्तत्रासीद्घोरनिस्वनः
तदद्भुततमं लोके वीक्ष्य सर्वे महीक्षिताम् ४२
शशाप तत्र भीमस्तु राजमध्ये महास्वनः
क्रोधाद्विस्फुरमाणोष्ठो विनिष्पिष्य करे करम् ४३
इदं मे वाक्यमादद्ध्वं क्षत्रिया लोकवासिनः
नोक्तपूर्वं नरैरन्यैर्न चान्यो यद्वदिष्यति ४४
यद्येतदेवमुक्त्वा तु न कुर्यां पृथिवीश्वराः
पितामहानां सर्वैषां नाहं गतिमवाप्नुयाम् ४५
अस्य पापस्य दुर्जातेर्भारतापसदस्य च
न पिबेयं बलाद्वक्षो भित्त्वा चेद्रुधिरं युधि ४६
तस्य ते वचनं श्रुत्वा सर्वलोकप्रहर्षणम्
प्रचक्रुर्बहुलां पूजां कुत्सन्तो धृतराष्ट्रजम् ४७
यदा तु वाससां राशिः सभामध्ये समाचितः
ततो दुःशासनः श्रान्तो व्रीडितः समुपाविशत् ४८
धिक्शब्दस्तु ततस्तत्र समभूल्लोमहर्षणः
सभ्यानां नरदेवानां दृष्ट्वा कुन्तीसुतांस्तथा ४९
न विब्रुवन्ति कौरव्याः प्रश्नमेतमिति स्म ह
स जनः क्रोशति स्मात्र धृतराष्ट्रं विगर्हयन् ५०
ततो बाहू समुच्छ्रित्य निवार्य च सभासदः
विदुरः सर्वधर्मज्ञ इदं वचनमब्रवीत् ५१
विदुर उवाच
द्रौपदी प्रश्नमुक्त्वैवं रोरवीति ह्यनाथवत्
न च विब्रूत तं प्रश्नं सभ्या धर्मोऽत्र पीड्यते ५२
सभां प्रपद्यते ह्यार्तः प्रज्वलन्निव हव्यवाट्
तं वै सत्येन धर्मेण सभ्याः प्रशमयन्त्युत ५३
धर्मप्रश्नमथो ब्रूयादार्तः सभ्येषु मानवः
विब्रूयुस्तत्र ते प्रश्नंकामक्रोधवशातिगाः ५४
विकर्णेन यथाप्रज्ञमुक्तः प्रश्नो नराधिपाः
भवन्तोऽपि हि तं प्रश्नं विब्रुवन्तु यथामति ५५
यो हि प्रश्नं न विब्रूयाद्धर्मदर्शी सभां गतः
अनृते या फलावाप्तिस्तस्याः सोऽध समश्नुते ५६
यः पुनर्वितथं ब्रूयाद्धर्मदर्शी सभां गतः
अनृतस्य फलं कृत्स्नं सम्प्राप्नोतीति निश्चयः ५७
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्
प्रह्लादस्य च संवादं मुनेराङ्गिरसस्य च ५८
प्रह्लादो नाम दैत्येन्द्र स्तस्य पुत्रो विरोचनः
कन्याहेतोराङ्गिरसं सुधन्वानमुपाद्र वत् ५९
अहं ज्यायानहं ज्यायानिति कन्येप्सया तदा
तयोर्देवनमत्रासीत्प्राणयोरिति नः श्रुतम् ६०
तयोः प्रश्नविवादोऽभूत्प्रह्लादं तावपृच्छताम्
ज्यायान्क आवयोरेकः प्रश्नं प्रब्रूहि मा मृषा ६१
स वै विवदनाद्भीतः सुधन्वानं व्यलोकयत्
तं सुधन्वाब्रवीत्क्रुद्धो ब्रह्मदण्ड इव ज्वलन् ६२
यदि वै वक्ष्यसि मृषा प्रह्लादाथ न वक्ष्यसि
शतधा ते शिरो वज्री वज्रेण प्रहरिष्यति ६३
सुधन्वना तथोक्तः सन्व्यथितोऽश्वत्थपर्णवत्
जगाम कश्यपं दैत्यः परिप्रष्टुं महौजसम् ६४
प्रह्लाद उवाच
त्वं वै धर्मस्य विज्ञाता दैवस्येहासुरस्य च
ब्राह्मणस्य महाप्राज्ञ धर्मकृच्छ्रमिदं शृणु ६५
यो वै प्रश्नं न विब्रूयाद्वितथं वापि निर्दिशेत्
के वै तस्य परे लोकास्तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ६६
कश्यप उवाच
जानन्न विब्रुवन्प्रश्नं कामात्क्रोधात्तथा भयात्
सहस्रं वारुणान्पाशानात्मनि प्रतिमुञ्चति ६७
तस्य संवत्सरे पूर्णे पाश एकः प्रमुच्यते
तस्मात्सत्यं तु वक्तव्यं जानता सत्यमञ्जसा ६८
विद्धो धर्मो ह्यधर्मेण सभां यत्र प्रपद्यते
न चास्य शल्यं कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः ६९
अर्धं हरति वै श्रेष्ठः पादो भवति कर्तृषु
पादश्चैव सभासत्सु ये न निन्दन्ति निन्दितम् ७०
अनेना भवति श्रेष्ठो मुच्यन्ते च सभासदः
एनो गच्छति कर्तारं निन्दार्हो यत्र निन्द्यते ७१
वितथं तु वदेयुर्ये धर्मं प्रह्लाद पृच्छते
इष्टापूर्तं च ते घ्नन्ति सप्त चैव परावरान् ७२
हृतस्वस्य हि यद्दुःखं हतपुत्रस्य चापि यत्
ऋणिनं प्रति यच्चैव राज्ञा ग्रस्तस्य चापि यत् ७३
स्त्रियाः पत्या विहीनायाः सार्थाद्भ्रष्टस्य चैव यत्
अध्यूढायाश्च यद्दुःखं साक्षिभिर्विहितस्य च ७४
एतानि वै समान्याहुर्दुःखानि त्रिदशेश्वराः
तानि सर्वाणि दुःखानि प्राप्नोति वितथं ब्रुवन् ७५
समक्षदर्शनात्साक्ष्यं श्रवणाच्चेति धारणात्
तस्मात्सत्यं ब्रुवन्साक्षी धर्मार्थाभ्यां न हीयते ७६
विदुर उवाच
कश्यपस्य वचः श्रुत्वा प्रह्लादः पुत्रमब्रवीत्
श्रेयान्सुधन्वा त्वत्तो वै मत्तः श्रेयांस्तथाङ्गिराः ७७
माता सुधन्वनश्चापि श्रेयसी मातृतस्तव
विरोचन सुधन्वायं प्राणानामीश्वरस्तव ७८
सुधन्वोवाच
पुत्रस्नेहं परित्यज्य यस्त्वं धर्मे प्रतिष्ठितः
अनुजानामि ते पुत्रं जीवत्वेष शतं समाः ७९
विदुर उवाच
एवं वै परमं धर्मं श्रुत्वा सर्वे सभासदः
यथाप्रश्नं तु कृष्णायाः मन्यध्वं तत्र किं परम् ८०
वैशम्पायन उवाच
विदुरस्य वचः श्रुत्वा नोचुः किंचन पार्थिवाः
कर्णो दुःशासनं त्वाह कृष्णां दासीं गृहान्नय ८१
तां वेपमानां सव्रीडां प्रलपन्तीं स्म पाण्डवान्
दुःशासनः सभामध्ये विचकर्ष तपस्विनीम् ८२

टिप्पणी

२.९०.४१ द्रौपद्याः वस्त्रहरणम्

अस्य आख्यानस्य प्रसिद्धिः चीरहरणम् रूपे अस्ति। चीरशब्दस्य व्युत्पत्तिः शुसिचिमीनां दीर्घश्च इति उणादिकोषस्य सूक्तं २.२५ अनुुसारेण अस्ति। सूत्रस्य व्याख्या अनेन प्रकारेण कृतमस्ति यत् चि-चिनोतीति चीरम् वल्कलं अस्ति। यः तन्त्रः चरः अस्ति,यस्मिन् अव्यवस्था विद्यमाना अस्ति, तस्मात् चयनं चीरस्य विषयमस्ति। फलितज्यौतिषे केचन नक्षत्राः भवन्ति येषां प्रकृतिः चरप्रकारा भवति, अन्ये स्थिरप्रकाराः भवन्ति, केचन अन्धा भवन्ति इत्यादि। यः द्रव्यः चरनक्षत्रे नष्टः भवति, तत् त्वरितैव स्थानं परिवर्तयति।

द्र. गोविन्ददामोदरस्तोत्रम्

सभापर्व-089 पुटाग्रे अल्लिखितम्। सभापर्व-091
"https://sa.wikisource.org/w/index.php?title=महाभारतम्-02-सभापर्व-090&oldid=300772" इत्यस्माद् प्रतिप्राप्तम्