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महाभारतम्-02-सभापर्व-036

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द्वितीयपर्व
महाभारतम्-02-सभापर्व-036
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  103. 103

द्वारकातः आगतस्य श्रीकृष्णस्याज्ञया यज्ञसामग्रीसम्पादनोपक्रमः।। 1।।
द्वैपायनेन ऋत्विगानयनम्।। 2।।
ब्राह्मणक्षत्रियादीनामामन्त्रणाय दूतप्रेषणम्।। 3।।
धृतराष्ट्राद्यमन्त्रणाय नकुलगमनम्।। 4।।।
दीक्षा ।। 5।।

वैशम्पायन उवाच।। 2-36-1x
रक्षणाद्धर्मराजस्य सत्यस्य परिपालनात्।
शत्रूणां क्षपणाच्चैव स्वकर्मनिरताः प्रजाः।।
2-36-1a
2-36-1b
बलीनां सम्यगादानाद्धर्मतश्चानुशासनात्।
निकामवर्षी पर्जन्यः स्फीतो जनपदोऽभवत्।।
2-36-2a
2-36-2b
सर्वारम्भाः सुप्रवृत्ता गोरक्षा कर्षणं वणिक्।
विशेषात्सर्वमेवैतत्सञ्जज्ञे राजकर्मणः।।
2-36-3a
2-36-3b
दस्युभ्यो वञ्चकेभ्यो वा राजन्प्रति परस्परम्।
राजवल्लभतश्चैव नाश्रूयन्त मृषागिरः।।
2-36-4a
2-36-4b
अवर्षं चातिवर्षं च व्याधिपावकमूर्छनम्।
सर्वमेतत्तदा नासीद्धर्मनित्ये युधिष्ठिरे।।
2-36-5a
2-36-5b
प्रियं कर्तुमुपस्थातुं बलिकर्म स्वभावजम्।
अभिहर्तुं नृपा जग्मुर्नान्यैः कार्यैः कथञ्चनः।।
2-36-6a
2-36-6b
धर्मैर्धनागमैस्तस्य ववधे निचयो महान्।
कर्तुं यस्य न शक्येन क्षयो वर्षशतैरपि।।
2-36-7a
2-36-7b
स्वकोष्ठस्य परीमाणं कोशस्य च महीपतिः।
विज्ञाय राजा कौन्तेयो यज्ञायैव मनो दधे।।
2-36-8a
2-36-8b
सुहृदश्चैव ये सर्वे पृथक्च सहचाब्रुवन्।
यज्ञकालस्तव विभो क्रियतामत्र साम्प्रतम्।।
2-36-9a
2-36-9b
अथैवं ब्रुवतामेव तेषामभ्याययौ हरिः।
ऋषिः पुराणो वेदात्मा दृश्यश्चैव विजानताम्।।
2-36-10a
2-36-10b
जगतस्तस्थुषां श्रेष्ठः प्रभवश्चाप्ययश्च ह।
भूतभव्यभवन्नाथः केशवः केशिसूदनः।।
2-36-11a
2-36-11b
प्राकारः सर्ववृष्णीनामापत्स्वभयदोऽरिहा।
बलाधिकारे निक्षिप्य सम्यगानकदुन्दुभिम्।।
2-36-12a
2-36-12b
उच्चावचमुपादाय धर्मराजाय माधवः।
धनौघं पुरुषव्याघ्रो बलेन महता वृतः।।
2-36-13a
2-36-13b
तं धनौघमपर्यन्तं रत्नसागरमक्षयम्।
नादयन्रथघोषेण प्रविशेश पुरोत्तमम्।।
2-36-14a
2-36-14b
पूर्णमापूरयंस्तेषां द्विषच्छोकावहोऽभवत्।
असूर्यमिव सूर्येण निवातमिव वायुना।
कृष्णेन समुपेतेन जहृषे भारतं पुरम्।।
2-36-15a
2-36-15b
2-36-15c
तं मुदाऽभिसमागम्य सत्कृत्य च यथाविधि।
स पृष्ट्वा कुशलं चैव सुखासीनं युधिष्ठिरः।।
2-36-16a
2-36-16b
म्यद्वैपायनमुखैर्ऋत्विग्भिः पुरुषर्षभः।
भीमार्जुनयमैश्चैव सहितः कृष्णमब्रवीत्।।
2-36-17a
2-36-17b
युधिष्ठिर उवाच।। 2-36-18x
त्वत्कृते पृथिवी सर्वा मद्वशे कृष्ण वर्तते।
धनं च बहु वार्ष्णेय त्वत्प्रसादादुपार्जितम्।।
2-36-18a
2-36-18b
सोऽहमिच्छामि तत्सर्वं विधिवद्देवकीसुत।
उपयोक्तुं द्विजाग्र्येभ्यो हव्यवाहे च माधव।।
2-36-19a
2-36-19b
तदहं यष्टुमिच्छामि दाशार्ह सहितस्त्वया।
अनुजैश्च महाबाहो तन्माऽनुज्ञातुमर्हसि।।
2-36-20a
2-36-20b
तद्दीक्षापय गोविन्द त्वमात्मानं महाभुज।
त्वयीष्टवति दाशार्ह विपाप्मा भविता ह्यहम्।।
2-36-21a
2-36-21b
मां वाप्यभ्यनुजानीह सहैभिरनुजैर्विभो।
अनुज्ञातस्त्वया कृष्ण प्राप्नुयां क्रतुमुत्तमम्।।
2-36-22a
2-36-22b
वैशम्पायन उवाच। 2-36-23x
तं कृष्णःस प्रत्युवाचेदं बहूक्त्वा गुणविस्तरम्।
त्वमेव राजशार्दूल रम्राडर्हो महाक्रतुम्।
सम्प्राप्नुहि त्वया प्राप्ते कृतकृत्यास्ततो वयम्।।
2-36-23a
2-36-23b
2-36-23c
यदस्वाभीप्सितं यज्ञं मयि श्रेयस्यवस्थिते।
नियुङ्क्ष्व त्वं च मां कृत्ये सर्वं कर्तास्मि ते वचः।।
2-36-24a
2-36-24b
युधिष्ठिर उवाच। 2-36-25x
सफलः कृष्ण सङ्कल्पः सिद्धिश्च नियता मम।
यस्यमे त्वं हृषीकेश यथेप्सितमुपस्थितः।।
2-36-25a
2-36-25b
वैशम्पायन उवाच। 2-36-26x
अनुज्ञातस्तु कृष्णेन पाण्डवो भ्रातृभिः सह।
ईजितुं राजसूयेन साधनान्युपचक्रमे।।
2-36-26a
2-36-26b
ततस्त्वाज्ञापयामास पाण्डवोऽरिनिबर्हणः।
सहदेवं युधां श्रेष्ठं मन्त्रिणश्चैव सर्वशः।।
2-36-27a
2-36-27b
अस्मिन्क्रतौ यथोक्तानि यज्ञाङ्गानि द्व्जातिभिः।
यथोपकरणं सर्वं मङ्गलानि च सर्वशः।।
2-36-28a
2-36-28b
अधियज्ञांश्च सम्भारान्दौम्योक्तान्क्षिप्रमेव हि।
समानयन्तु पुरुषा यथायोगं यथाक्रमम्।।
2-36-29a
2-36-29b
इन्द्रसेनो विशोकश्च पूरश्चार्जुनसारथिः।
अन्नाद्याहरणे युक्ताः सन्तु मत्प्रियकाम्यया।।
2-36-30a
2-36-30b
सर्वकामाश्च कार्यन्तां रसगन्धसमन्विताः।
मनोरथप्रीतिकरा द्विजानां कुरुसत्तम।।
2-36-31a
2-36-31b
वैशम्पायन उवाच।। 2-36-32x
तद्वाक्यसमकालं च कृतं सर्वं न्यवेदयत्।
सहदेवो युधां श्रेष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिरे।।
2-36-32a
2-36-32b
ततो द्वैपायनो राजन्नृत्विजः समुपानयत्।
वेदानिव महाभागान्साक्षान्मूर्तिमतो द्विजान्।।
2-36-33a
2-36-33b
स्वयं ब्रह्मत्वमकरोत्तस्य सत्यवतीसुतः।
धनञ्जयानामृषभः सुसामा सामगोऽभवत्।।
2-36-34a
2-36-34b
याज्ञवल्क्यो बभूवाथ ब्रह्मिष्ठोऽध्वर्युसत्तमः।
पैलो होता वसोः पुत्रो धौम्येन सहितोऽभवत्।।
2-36-35a
2-36-35b
एतेषां पुत्रवर्गाश्च शिष्याश्च भरतर्षभ।
बभूवुर्होत्रगाः सर्वे वेदवेदाङ्गपारगाः।।
2-36-36a
2-36-36b
ते वाचयित्वा पुण्याहमूहयित्वा च तं विधिम्।
शास्त्रोक्तं पूजयामासुस्तद्देवयजनं महत्।।
2-36-37a
2-36-37b
तत्र चक्रुरनुज्ञाताः शरणान्युत शिल्पिनः।
गन्धवन्ति विशालानि वेश्मानीव दिवौकसाम्।।
2-36-38a
2-36-38b
तत आज्ञापयामास स राजा राजसत्तमः।
सहदेवं तदा सद्यो मन्त्रिणं पुरुषर्षभः।।
2-36-39a
2-36-39b
आमन्त्रणार्थं दूतांस्त्वं प्रेषयस्वाशुगान्द्रुतम्।
उपश्रुत्य वचो राज्ञः स दूतान्प्राहिणोत्तदा।।
2-36-40a
2-36-40b
आमन्त्रयध्वं राष्ट्रेषु ब्राह्मणान्भूमिपानथ।
विनाश्च मान्याञ्शूद्रांश्च सर्वानानयतेति च।।
2-36-41a
2-36-41b
वैशम्पायन उवाच।। 2-36-42x
ते सर्वान्पृथिवीपालान्पाण्डवेयस्य शासनात्।
आमन्त्रयाम्बभूवुस्ते प्रेषयामास चापरान्।।
2-36-42a
2-36-42b
दूताश्च वाहनैर्जग्भू राष्ट्राणि सुबहून्यपि।
ततो युधिष्ठिरो राजा प्रेषयामास पाण्डवम्।।
2-36-43a
2-36-43b
नकुलं हास्तिनपुरं भीष्माय भरतर्षभ।
द्रोणाय धृतराष्ट्राय विदुराय कृपाय च।
भ्रातृणां चैव सर्वेणां येऽनुरक्ता युधिष्ठिरे।।
2-36-44a
2-36-44b
2-36-44c
ततस्ते तु यथाकालं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
दीक्षयाञ्चक्रिरे विप्रा राजसूयाय भारत।।
2-36-45a
2-36-45b
`ज्येष्ठामूले अमावास्यां मृगाजिनसमावृतः।
रौरवाजिनसंवीतो नवनीताक्तदेहवान्'।।
2-36-46a
2-36-46b
दीक्षितः स तु धर्मात्मा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
जगाम यज्ञायतनं वृतो विप्रैः सहस्रशः।।
2-36-47a
2-36-47b
भातृभिर्ज्ञातिभिश्चैव सुहृद्भिः सचिवैः सह।
क्षत्रियैश्च मनुष्येन्द्रैर्नानादेशसमागतैः।।
2-36-48a
2-36-48b
अमात्यैश्च नरश्रेष्ठो धर्मो विग्रहवानिव।
आजग्मुर्ब्राह्मणास्तत्र विषयेभ्यस्ततस्ततः।।
2-36-49a
2-36-59b
सर्वविद्यासु निष्णाता वेदवेदाङ्गपारगाः।
तेषामावसथांश्चक्रुर्धर्मराजस्य शासनात्।।
2-36-50a
2-36-50b
बह्वन्नाच्छादनैर्युक्तान्सगणानां पृथक् पृथक्।
सर्वर्तुगुणसम्पन्नाञ्शिल्पिनोऽथ सहस्रशः।।
2-36-51a
2-36-51b
तेषु ते न्यवसन्राजन्ब्राह्मणा नृपसत्कृताः।
कथयन्तः कथा बह्वीः पश्यन्तो नटनर्तकान्।।
2-36-52a
2-36-52b
भुञ्जतां चैव विप्राणां वदतां च महास्वनः।
अनिशं श्रूयते तत्र मुदितानां महात्मनाम्।।
2-36-53a
2-36-53b
दीयतां दीयतामेषां भुज्यतां भुज्यतामिति।
एवम्प्रकाराः सञ्जल्पाः श्रूयन्तेस्मात्र नित्यशः।।
2-36-54a
2-36-54b
गवां शतसहस्राणि शयनानां च भारत।
रुक्मस्य योषितां चैव धर्मराजः पृथक् ददौ।।
2-36-55a
2-36-55b
प्रावर्ततैव यज्ञः स पाण्डवस्य महात्मनः।
पृथिव्यामेकवीरस्य शक्रस्येव त्रिविष्टपे।।
2-36-56a
2-36-56b
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
दिग्विजयपर्वणि षट्‌त्रिंशोऽध्यायः।। 36।।

2-36-5 मूर्छनं प्रदीपनम्।। 2-36-7 निचयो भाण्डागारम्।। 2-36-34 धनञ्जयानां धनञ्जयगोत्राणां मध्ये श्रेष्ठः सुसामानाम आङ्गिरसः ।।

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