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लिङ्गपुराणम् - पूर्वभागः/अध्यायः २८

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शैलादिरुवाच।।
आग्नेयं सौरममृतं बिंबं भाव्यं ततोपरि।।
गुणत्रयं च हृदये तथा चात्मत्रयं क्रमात्।। २८.१ ।।

तस्योपरि महादेवं निष्कलं सकलाकृतिम्।।
कांतार्धरूढदेहं च पूजयेद्ध्यानविद्यया।। २८.२ ।।

ततो बहुविधं प्रोक्तं चिंत्यं तत्रास्ति चेद्यतः।।
चिंतकस्य ततश्चिंता अन्यथा नोपपद्यते।। २८.३ ।।

तस्माद्ध्येयं तथा ध्यानं यजमानः प्रयोजनम्।।
स्मरेत्तन्नान्यथा जातु बुद्ध्यते पुरुषस्य ह।। २८.४ ।।

पुरे शेते पुरं देहं तस्मात्पुरुष उच्यते।।
याज्यं यज्ञेन यजते यजमानस्तु स स्मृतः।। २८.५ ।।

ध्येयो महेश्वरो ध्यानं चिंतनं निर्वृतिः फलम्।।
प्रधानपुरुषेशानं याथातथ्यं प्रपद्यते।। २८.६ ।।

इह षड्विंशको ध्येयो ध्याता वै पंचविंशकः।।
चतुर्विंशकमव्यक्तं महदाद्यास्तु सप्त च।। २८.७ ।।

महांस्तथा त्वहंकारं तन्मात्रं पंचकं पुनः।।
कर्मेद्रियाणि पञ्चैव तथा बुद्धींद्रियाणि च।। २८.८ ।।

मनश्च पंच भूतानि शिवः षड्विंशकस्ततः।।
स एव भर्ता कर्ता च विघेरपि महेश्वरः।। २८.९ ।।

हिरण्यगर्भं रुद्रोसौ जनयामास शंकरः।।
विश्वाधिकश्च विश्वात्मा विश्वरूप इति स्मृतः।। २८.१೦ ।।

विना यथा हि पितरं मातरं तनयास्त्विह।।
न जायंते तथा सोमं विना नास्ति जगत्त्रयम्।। २८.११ ।।

सनत्कुमार उवाच।।
कर्ता यदि महादेवः परमात्मा महेश्वरः।।
तथा कारयिता चैव कुर्वतोल्पात्मनस्तथा।। २८.१२ ।।

नित्यो विशुद्धो बुद्धश्च निष्कलः परमेश्वरः।।
त्वयोक्तो मुक्तिदः किं वा निष्कलश्चेत्करोति किम्।। २८.१३ ।।

शैलादिरूवाच।।
कालः करोति सकलं कालं कलयते सदा।।
निष्कलं च मनः सर्वं मन्यते सोपि निष्कलः।। २८.१४ ।।

कर्मण तस्य चैवेह जगत्सर्वं प्रतिष्ठितम्।।
किमत्र देवदेवस्य मूर्त्यष्टकमिदं जगत्।। २८.१५ ।।

विनाकाशं जगन्नैव विना वायुना विना।।
तेजसा वारिणा चैव यजमानं तथा विना।। २८.१६ ।।

भानुना शाशिना लोकस्तस्यैतास्तनवः प्रभोः।।
विचारतस्तु रुद्रस्य स्थूलमेतच्चराचरम्।। २८.१७ ।।

सूक्ष्मं वदंति ऋषयो यन्न वाच्यं द्विजोत्तमाः।।
यतो वाचो निवर्तंते अप्राप्य मनसा सह।। २८.१८ ।।

आनंदं ब्रह्मणो विद्वान्न बिभेति कुतश्चन।।
न भेतव्यं तथा तस्माज्ज्ञात्वानंदं पिनाकिनः।। २८.१९ ।।

विभूतयश्च रुद्रस्य मत्वा सर्वत्र भावतः।।
सर्वं रुद्र इति प्राहुर्मुनयस्तत्त्वदर्शिनः।। २८.२೦ ।।

नमस्कारेण सततं गौरवात्परमेष्ठिनः।।
सर्वं तु खल्विदं ब्रह्म सर्वो वै रुद्र ईश्वरः।। २८.२१ ।।

पुरुषो वै महादेवो महेशानः परः शिवः।।
एवं विभुर्विनिर्दिष्टो ध्यानं तत्रैव चिंतनम्।। २८.२२ ।।

चतुर्व्यूहेण मार्गेण विचार्यालोक्य सुव्रत।।
संसारहेतुः संसारो मोक्षहेतुश्च निर्वृतिः।। २८.२३ ।।

चतुर्व्यूहः समाख्यातश्चिन्तकस्येह योगिनः।।
चिंता बहुविधा ख्याता सैकत्र परमेष्ठिना।। २८.२४ ।।

सुनिष्ठेत्यत्र कथिता रुद्रं रोद्री न संशयः।।
एन्द्री चैन्द्रे तथा सौम्या सोमे नारायणे तथा।। २८.२५ ।।

सूर्यो वह्नौ च सर्वेषां सर्वत्रैवं विचारतः।।
सैवाहं सोहमित्येवं द्विधा संस्थाप्य भावतः।। २८.२६ ।।

भक्तोसौ नास्ति यस्तस्माच्चिंता ब्राह्मी न संशयः।।
एवं ब्रह्ममयं ध्यायेत्पूर्वे विप्र चराचरम्।। २८.२७ ।।

चराचरविभागं च त्यजेदभिमतं स्मरन्।।
त्याज्यं ग्राह्यमलभ्यं च कृत्यं चाकृत्यमेव च।। २८.२८ ।।

यस्य नास्ति सुतृप्तस्य तस्य ब्राह्मी न चान्यथा।।
आभ्यंतंरं समाख्यातमेवमभ्यर्चनं क्रमात्।। २८.२९ ।।

आभ्यंतरार्चकाः पूज्या नमस्कारादिभिस्तथा।।
विरूपा विकृतास्चापि न निंद्या ब्रह्म वादिनः।। २८.३೦ ।।

आभ्यंतरार्चकाः सर्वे न परीक्ष्या विजानता।।
निंदका एव दुःखार्ता भविष्यंत्यल्पचेतसः।। २८.३१ ।।

यथा दारुवने रुद्रं विनिंद्य मुनयः पुरा।।
तस्मात्सेव्या नमस्कार्याः सदा ब्रह्मविदस्तथा।। २८.३२ ।।

वर्णाश्रमविनिर्मुक्ता वर्णाश्रमपरायणैः।। २८.३३ ।।
इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे शिवार्चनतत्त्वसंख्यादिवर्णनं नामाऽष्टाविंशोध्यायः।। २८ ।।