लिङ्गपुराणम् - पूर्वभागः/अध्यायः १६

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सूत उवाच।।
अथान्यो ब्रह्मणः कल्पो वर्तते मुनिपुंगवाः।।
विश्वरूप इति ख्यातो नामतः परमाद्भुतः।। १६.१ ।।
विनिवृत्ते तु संहारे पुनः सृष्टे चराचरे।।
ब्रह्मणः पुत्रकामस्य ध्यायतः परमेष्ठिनः।। १६.२ ।।
प्रादुर्भूता महानादा विश्वरूपा सरस्वती।।
विश्वमाल्यांबरधरा विश्वयज्ञोपवीतिनी।। १६.३ ।।
विश्वोष्णीषा विश्वगंधा विश्वमाता महोष्ठिका।।
तथाविधं स भगवानीशानं परमेश्वरम्।। १६.४ ।।
शुद्धस्फटिकसंकाशं सर्वाभरणभूषितम्।।
अथ तं मनसा ध्यात्वा युक्तात्मा वै पितामहः।। १६.५ ।।
ववंदे देवमीशानं सर्वेशं सर्वगं प्रभुम्।।
ओमीशान नमस्तेऽस्तु महादेव नमोस्तु ते।। १६.६ ।।
नमोस्तु सर्वविद्यानामीशान परमेश्वर।।
नमोस्तु सर्वभूतानामीशान वृषवाहन।। १६.७ ।।
ब्रह्मणोधिपते तुभ्यं ब्रह्मणे ब्रह्मरूपिणे।।
नमो ब्रह्माधिपतये शिवं मेऽस्तु सदाशिव।। १६.८ ।।
ओंकारमूर्ते देवेश सद्योजात नमोनमः।।
प्रपद्ये त्वां प्रपन्नोऽस्मि सद्योजाताय वै नमः।। १६.९ ।।
अभवे च भवे तुभ्यं तथा नातिभवे नमः।।
भवोद्भव भवेशान मां भजस्व महाद्युते।। १६.१೦ ।।
वामदेव नमस्तुभ्यं ज्येष्ठाय वरदाय च।।
नमो रुद्राय कालाय कलनाय नमो नमः।। १६.११ ।।
नमो विकरणायैव कालवर्णाय वर्णिने।।
बलाय बलिनां नित्यं सदा विकरणाय ते।। १६.१२ ।।
बलप्रमथनायैव बलिने ब्रह्मरूपिणे।।
सर्वभूतेश्वरेशाय भूतानां दमनाय च।। १६.१३ ।।
मनोन्मनाय देवाय नमस्तुभ्यं महाद्युते।।
वामदेवाय वामाय नमस्तुभ्यं महात्मने।। १६.१४ ।।
ज्येष्ठाय चैव श्रेष्ठाय रुद्राय वरदाय च।।
कालहंत्रे नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं महात्मने।। १६.१५ ।।
इति स्तवेन देवेशं ननाम वृषभध्वजम्।।
यः पठेत् सकृदेवेह ब्रह्मलोकं गमिष्यति।। १६.१६ ।।
श्रावयेद्वा द्विजान् श्राद्धे स याति परमां गतिम्।।
एवं ध्यानगतं तत्र प्रणमंतं पितामहम्।। १६.१७ ।।
उवाच भगवानीशः प्रीतोहं ते किमिच्छसि।।
ततस्तु प्रणतो भूत्वा वाग्विशुद्धं महेश्वरम्।। १६.१८ ।।
उवाच भगवान् रुद्रं प्रीतं प्रीतेन चेतसा।।
यदिदं विश्वरूपं ते विश्वगौः श्रेयसीश्वरी।। १६.१९ ।।
एतद्वेदितुमिच्छामि यथेयं परमेश्वर।।
कैषा भगवती देवी चतुष्पादा चतुर्मुखी।। १६.२೦ ।।
चतुःश्रृंगी चतुर्वक्रा चतुर्दंष्ट्रा चतुःस्तनी।।
चतुर्हस्ता चतुर्नेत्रा विश्वरूपा कथं स्मृता।। १६.२१ ।।
किंनामगोत्रा कस्येयं किंवीर्या चापि कर्मतः।।
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा देवदेवो वृषध्वजः।। १६.२२ ।।
प्राह देववृषं ब्रह्मा ब्रह्माणं चात्मसंभवम्।।
रहस्यं सर्वमंत्राणां पावनं पुष्टिवर्धनम्।। १६.२३ ।।
श्रृणुष्वैतत्परं गुह्यमादिसर्गे यथा तथा।।
एवं यो वर्तते कल्पो विश्वरूपस्त्वसौ मतः।। १६.२४ ।।
ब्रह्मस्थानमिदं चापि यत्र प्राप्तं त्वया प्रभो।।
त्वत्तः परतरं देव विष्णुना तत्पदं शुभम्।। १६.२५ ।।
वैकुंठेन विशुद्धेन मम वामांगजेन वा।।
तदाप्रभृति कल्पश्च त्रयस्त्रिंशत्तमो ह्ययम्।। १६.२६ ।।
शतं शतसहस्राणामतीता ये स्वयंभुवः।।
पुरस्तात्तव देवेश तच्छृणुष्व महामते।। १६.२७ ।।
आनंदस्तु स विज्ञेय आनंदत्वे व्यवस्थितः।।
मांडव्यगोत्रस्तपसा मम पुत्रत्वमागतः।। १६.२८ ।।
त्वयि योगं च सांख्यं च तपोविद्याविधिक्रियाः।।
ऋतं सत्यं दया ब्रह्म अहिंसा सन्मतिः क्षमा।। १६.२९ ।।
ध्यानं ध्येयं दमः शांतिर्विद्याऽविद्या मतिर्धृतिः।।
कांतिर्नीतिः प्रथा मेधा लज्जा दृष्टिः सरस्वती।। १६.३೦ ।।
तुष्टिः पुष्टिः क्रिया चैव प्रसादश्च प्रतिष्ठिताः।।
द्वात्रिंशत्सुगुणा ह्येषा द्वात्रिंशाक्षरसंज्ञया।। १६.३१ ।।
प्रकृतिर्विहिता ब्रह्मंस्त्वत्प्रसूतिर्महेश्वरी।।
विष्णोर्भगवतश्चापि तथान्येषामपि प्रभो।। १६.३२ ।।
सैषा भगवती देवी मत्प्रसूतिः प्रतिष्ठिता।।
चतुर्मुखी जगद्योनिः प्रकृतिर्गौः प्रतिष्ठिता।। १६.३३ ।।
गौरी माया च विद्या च कृष्णा हैमवतीति च।।
प्रधानं प्रकृतिश्चैव यामाहुस्तत्त्वचिंतकाः।। १६.३४ ।।
अजामेकां लोहितां शुक्लकृष्णां विश्वप्रजां सृजमानां सरूपाम्।।
अजोहं मां विद्धि तां विश्वरूपं गायत्रीं गां विश्वरूपां हि बुद्ध्या।। १६.३५ ।।
एवमुक्त्वा महादेवः ससर्ज परमेश्वरः।।
ततश्च पार्श्वगा देव्याः सर्वरूपकुमारकाः।। १६.३६ ।।
जटी मुंडी शिखंडी च अर्धमुंडश्च जज्ञिरे।।
ततस्तेन यथोक्तेन योगेन सुमहौजसः।। १६.३७ ।।
दिव्यवर्षसहस्रांते उपासित्वा महेश्वरम्।।
धर्मोपदेशमखिलं कृत्वा योगमयं दृढम्।। १६.३८ ।।
शिष्टाश्च नियतात्मानः प्रविष्टा रुद्रमीश्वरम्।। १६.३९ ।।
इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे ईशानमाहात्म्यकथनं नाम षोडशोऽध्यायः।। १६ ।।