लिङ्गपुराणम् - पूर्वभागः/अध्यायः ५

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सूत उवाच
यदा स्रष्टुं मतिं चक्रे मोहश्चासीन्महात्मनः।।
द्विजाश्च बुद्धिपूर्वं तु ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः।। ५.१।।

तमो मोहो महामोहस्तामिस्रश्चांधसंज्ञितः।।
अविद्या पंचधा ह्येषा प्रादुर्भूता स्वयंभुवः।। ५.२ ।।

अविद्यया मुनेर्ग्रस्तः सर्गो मुख्य इति स्मृतः।।
असाधक इति स्मृत्वा सर्गो मुख्यः प्रजापतिः।। ५.३ ।।

अभ्यमन्यत सोऽन्यं वै नगा मुख्योद्भवाः स्मृताः।।
त्रिधा कंठो मुनेस्तस्य ध्यायतो वै ह्यवर्तत।। ५.४ ।।

प्रथमं तस्य वै जज्ञे तिर्यकस्रोतो महात्मनः।।
ऊर्ध्वस्रोतः परस्तस्य सात्विकः स इति स्मृतः।। ५.५ ।।

अर्वाक्स्रोतोऽनुग्रहश्च तथा भूतादिकः पुनः।।
ब्रह्मणो महतस्त्वाद्यो द्वितीयो भौतिकस्तथा।। ५.६ ।।

सर्गस्तृतीयश्चैंद्रियस्तुरीयो मुख्य उच्यते।।
तिर्यग्योन्यः पंचमस्तु षष्ठो दैविक उच्यते।। ५.७ ।।

सप्तमो मानुषो विप्रा अष्टमोऽनुग्रहः स्मृतः।।
नवमश्चैव कौमारः प्राकृता वैकृतास्त्विमे।। ५.८।।

पुरस्तादसृजद्देवः सनंदं सनकं तथा।।
सनातनं मुनिश्रेष्ठा नैष्कर्म्येण गताः परम्।। ५.९ ।।

मरीचिभृग्वंगिरसः पुलस्त्यं पुलहंक्रतुम्।।
दक्षमत्रिं वसिष्ठं च सोऽसृजद्योगविद्यया।। ५.१० ।।

नवैते ब्रह्मणः पुत्रा ब्रह्मज्ञा ब्राह्मणोत्तमाः।।
ब्रह्मवादिन एवैते ब्रह्मणः सदृशाः स्मृताः।। ५.११ ।।

संकल्पश्चैव धर्मश्च ह्यधर्मो धर्मसंनिधिः।।
द्वादशैव प्रजास्त्वेता ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः।। ५.१२ ।।

ऋभुं सनत्कुमारं च ससर्जादौ सनातनः।।
तावूर्ध्वरेतसौ दिव्यौ चाग्रजौ ब्रह्मवादिनौ।। ५.१३ ।।

कुमारौ ब्रह्मणस्तुल्यौ सर्वज्ञौ सर्वभाविनौ।।
वक्ष्ये भार्याकुलं तेषां मुनीनामग्रजन्मनाम्।। ५.१४ ।।

समासतो मुनिश्रेष्ठाः प्रजासंभूतिमेव च।।
शतरूपां तु वै राज्ञिं विराजमसृजत्प्रभुः।। ५.१५ ।।

स्वायंभुवात्तु वै राज्ञी शतरूपा त्वयोनिजा।।
लेभे पुत्रद्वयं पुण्या तथा कन्याद्वयं च सा।। ५.१६ ।।

उत्तानपादो ह्यवरो धीमाञ्ज्येष्ठः प्रियंव्रतः।।
ज्येष्ठा वरिष्ठा त्वाकूतिः प्रसूतिश्चानुजा स्मृता।। ५.१७ ।।

उपयेमे तदाकूतिं रुचिर्नाम प्रजापतिः।।
प्रसूतिं भगवान्दक्षो लोकधात्रीं च योगिनीम्।। ५.१८ ।।

दक्षिणासहितं यज्ञमाकूतिः सुषुवे तथा।।
दक्षिणा जन्यामास दिव्या द्वादश पुत्रिकाः।। ५.१९ ।।

प्रसूतिः सुषुवे दक्षाच्चतुर्विशतिकन्यकाः।।
श्रद्धां लक्ष्मीं धृतिं पुष्टिं तुष्टिं मेधां क्रियां तथा।। ५.२० ।।

बुद्धि लज्जां वपुःशांतिं सिद्धिं कीर्ति महातपाः।।
ख्यातिं शांति च संभूतिं स्मृतिं प्रीतिं क्षमां तथा।। ५.२१ ।।

सन्नतिं चानसूयां च ऊर्जां स्वाहां सुरारणिम्।।
स्वधां चैव महाभागां प्रददौ च यथाक्रमम्।। ५.२२ ।।

श्रद्धाद्याश्चैव कीर्त्यंतास्त्रयोदश सुदारिकाः।।
धर्मं प्रजापतिं जग्मुः पतिं परमदुर्लभाः।। ५.२३ ।।

उपयेमे भृगुर्धीमान् ख्यातिं तां भार्गवारणिम्।।
संभूतिं च मरीचिस्तु स्मृतिं चैवांगिरा मुनिः।। ५.२४ ।।

प्रीतिं पुलस्त्यः पुण्यात्मा क्षमां तां पुलहो मुनिः।।
क्रतुश्च सन्नतिं धीमानत्रिस्तां चानसूयकाम्।। ५.२५ ।।

ऊर्जां वसिष्ठो भगवान्वरिष्ठो वारिजेक्षणाम्।।
विभावसुस्तथा स्वाहां स्वधां वै पितरस्तथा।। ५.२६ ।।

पुत्रीकृता सती या सा मानसी शिवसंभवा।।
दक्षेम जगतां धात्री रुद्रमेवास्थिता पतिम्।। ५.२७ ।।

अर्धनारीश्वरं दृष्ट्वा सर्गादौ कनकांडजः।।
विभजस्वेति चाहादौ यदा जाता तदाभवत्।। ५.२८ ।।

तस्याश्चैवांशजाः सर्वाः स्त्रियस्त्रिभुवने तथा।।
एकादशाविधा रुद्रास्तस्य चांशोद्भवास्तथा।। ५.२९ ।।

स्त्रीलिंगमखिलं सा वै पुल्लिंगं नीललोहितः।।
तं दृष्ट्वा भगवान् ब्रह्मा दक्षमालोक्य सुव्रताम्।। ५.३० ।।

भजस्व धात्रीं जगतां ममापि च तवापि च।।
पुन्नाम्नो नरकात्त्राति इति पुत्रेत्विहोक्तितः।। ५.३१ ।।

प्रशस्ता तव कांतेयं स्यात् पुत्री विश्वमातृका।।
तस्मात् पुत्री सती नाम्ना तवैषा च भविष्यति।। ५.३२ ।।

एवमुक्तस्तदा दक्षो नियोगाद्ब्रह्मणो मुनिः।।
लब्ध्वा पुत्रीं ददौ साक्षात् सतीं रुद्राय सादरम्।। ५.३३ ।।

धर्मस्य पत्न्यः श्रद्धाद्याः कीर्तिता वै त्रयोदश।।
तासु धर्मप्रजां वक्ष्ये यथाक्रममनुत्तमम्।। ५.३४ ।।

कामो दर्पोऽथ नियमः संतोषो लोभ एव च।।
श्रुतस्तु दंडः समयो बोधश्चैव महाद्युतिः।। ५.३५ ।।

अप्रमादश्च विनयो व्यवसायो द्विजोत्तमाः।।
क्षेमं सुखं यशश्चैव धर्मपुत्राश्च तासु वै।। ५.३६ ।।

धर्मस्य वै क्रियायां तु दंडः समय एव च।।
अप्रमादस्तथा बोधो बुद्धेर्धर्मस्य तौ सुतौ।। ५.३७ ।।

तस्मात्पंचदशैवैते तासु धर्मात्मजास्त्विह।।
भृगुपत्नी च सुषुवे ख्यातिर्विष्णोः प्रियां श्रियम्।। ५.३८ ।।

धातारं च विधातारं मेरोर्जामातरौ सुतौ।।
प्रभूतिर्नाम या पत्नी मरीचेः सुषुवे सुतौ।। ५.३९ ।।

पूर्णमासं तु मारीचं ततः कन्याचतुष्टयम्।।
तुष्टिर्ज्येष्ठा च वै दृष्टिः कृषिश्चापचितिस्तथा।। ५.४० ।।

क्षमा च सुषुवे पुत्रान् पुत्रीं च पुलहाच्छुभाम्।।
कर्दमं च वरीयांसं सहिष्णुं मुनिसत्तमाः।। ५.४१ ।।

तथा कनकपीतां स पीवरीं पृथिवीसमाम्।।
प्रीत्यां पुलस्त्यश्च तथा जनयामास वै सुतान्।। ५.४२ ।।

दत्तोर्णं वेदबाहुं च पुत्रीं चान्यां दृषद्वतीम्।।
पुत्राणां षष्टिसाहस्रं सन्नतिः सुषुवे शुभा।। ५.४३ ।।

क्रतोस्तु भार्या सर्वे ते वालखिल्या इति श्रुताः।।
सिनीवालीं कुहूं चैव राकां चानुमतिं तथा।। ५.४४ ।।

स्मृतिश्च सुषुवे पत्नी मुनेश्चांगिरसस्तथा।।
लब्धानुभावमग्निं च कीर्तिमंतं च सुव्रता।। ५.४५ ।।

अत्रेर्भार्यानसूया वै सुषुवे षट्प्रजास्तु याः।।
तास्वेका कन्यका नाम्ना श्रुतिः सा सूनुपंचकम्।। ५.४६ ।।

सत्यनेत्रो मुनिर्भव्यो मूर्तिरापः शनैश्चरः।।
सोमश्च वै श्रुतिः षष्ठी पंचात्रेयास्तु सूनवः।। ५.४७ ।।

ऊर्जा वसिष्ठाद्वै लेभे सुतांश्च सुतवत्सला।।
ज्यायसी पुंडरीकाक्षान्वासिष्ठान्वरलोचना।। ५.४८ ।।

रजः सुहोत्रो बाहुश्च सवनश्चानघस्तथा।।
सुतपाः शुक्र इत्येते मुनेर्वै सप्त सूनवः।। ५.४९ ।।

यश्चाभिमाना भगवान् भवात्मा पैतामहो वह्निरसुः प्रजानाम्।।
स्वाहा च तस्मात्सुषुवे सुतानां त्रयं त्रयाणां जगतां हिताय।। ५.५० ।।

इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे प्रजासृष्टिवर्णनं नाम पंचमोऽध्यायः।। ५ ।।