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लिङ्गपुराणम् - पूर्वभागः/अध्यायः २७

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शैलादिरुवाच।।
वक्ष्यामि श्रृणु संक्षोपाल्लिंगार्चनविधिक्रमम्।।
वक्तुं वर्षशतेनापि न शक्यं विस्तरेण यत्।। २७.१ ।।

एवं स्नात्वा यथान्यायं पूजास्थानं प्रविश्य च।।
प्राणायामत्रयं कृत्वा ध्यायेद्देवं त्रियंबकम्।। २७.२ ।।

पंचवक्त्रं दश भुज शुद्धस्फटिकसन्निभम्।।
सर्वाभरणसंयुक्तं चित्रांबरविभूषितम्।। २७.३ ।।

तस्य रूपं समाश्रित्य दाहनप्लावनादिभिः।।
शैवीं तनुं समास्थाय पूजयेत्परमेश्वरम्।। २७.४ ।।

देहशुद्धिं च कृत्वैव मूलमंत्रं न्यसेत् क्रमात्।।
सर्वत्र प्रणवेनैव ब्रह्माणि च यथाक्रमम्।। २७.५ ।।

सूत्रे नमः शिवायेति छंदांसि परमे शुभे।।
मंत्राणि सूक्ष्मरूपेण संस्थितानि यतस्ततः।। २७.६ ।।

न्यग्रोधबीजे न्यग्रोधस्तथा सूत्रे तु शोभने।।
महत्यपि महद्ब्रह्म संस्थितं सूक्ष्मवत्स्वयम्।। २७.७ ।।

सेचयेदर्चनस्थानं गंधचंदनवारिणा।।
द्रव्याणि शोधयेत्पश्चात्क्षालनप्रोक्षणादिभिः।। २७.८ ।।

क्षालनं प्रोक्षणं चैव प्रणवेन विधीयते।।
प्रोक्षणी चार्घ्यपात्रं च पाद्यपात्रमनुक्रमत्।। २७.९ ।।

तथा ह्याचमनीयार्थं कल्पितं पात्रमेव च।।
स्थापयेद्विधिना धीमानवगुंठ्य यथाविधि।। २७.१೦ ।।

दर्भैराच्छादयेच्चैव प्रोक्षयेच्छुद्धवारिणा।।
तेषु तेष्वथ सर्वेषु क्षिपेत्तोयं सुशीतलम्।। २७.११ ।।

प्रणवेन क्षिपेत्तेषु द्रव्याण्यालोक्य बुद्धिमान्।।
उशीरं चंदनं चैव पाद्ये तु परिकल्पयेत्।। २७.१२ ।।

जातिकंकोलकर्पूरबहुमूलतमालकम्।।
चूर्णयित्वा यथान्यायं क्षिपेदाचमनीयके।। २७.१३ ।।

एवं सर्वेषु पात्रेषु दापयेच्चंदनं तथा।।
कर्पूरं च यथान्यायं पुष्पाणि विविधानि च।। २७.१४ ।।

कुशाग्रमक्षतांश्चैव यवव्रीहितिलानि च।।
आज्यसिद्धार्थपुष्पाणि भसितं चार्घ्यपात्रके।। २७.१५ ।।

कुशपुष्पयवव्रीहिबहुमूलतमालकम्।।
दापयेत्प्रोक्षणीपात्रे भसितं प्रणवेन च।। २७.१६ ।।

न्यसेत्पंचाक्षरं चैव गायत्रीं रुद्रदेवताम्।।
केवलं प्रणवं वापि वेदसारमनुत्तमम्।। २७.१७ ।।

अथ संप्रोक्षयेत्पश्चाद्द्रव्याणि प्रणवेन तु।।
प्रोक्षणीपात्रसंस्थेन ईशानाद्यैश्च पंचभिः।। २७.१८ ।।

पार्श्वतो देवदेवस्य नंदिनं मां समर्चयेत्।।
दीप्तानलायुतप्रख्यं त्रिनेत्रं त्रिदशेश्वरम्।। २७.१९ ।।

बालेंदुमुकुटं चैव हरिवक्त्रं चतुर्भुजम्।।
पुष्पमालाधरं सौम्यं सर्वाभरणभूषितम्।। २७.२೦ ।।

उत्तरे चात्मनः पुण्यां भार्यां च मरुतां शुभाम्।।
सुयशां सुव्रतां चांबापादमंडनतत्पराम्।। २७.२१ ।।

एवं पूज्य प्रविश्यांतर्भवनं परमेष्ठिनः।।
दत्त्वा पुष्पांजलिं भक्त्या पंचमूर्धसु पंचभिः।। २७.२२ ।।

गंधपुष्पैस्तथा धूपैर्विविधैः पूज्य शंकरम्।।
स्कंदं विनायकं देवीं लिंगशुद्धिं च कारयेत्।। २७.२३ ।।

जप्त्वा सर्वाणि मंत्राणि प्रणवादिनमेंतकम्।।
कल्पयेदासनं पश्चात्पद्माख्यं प्रणवेन तत्।। २७.२४ ।।

तस्य पूर्वदलं साक्षादणिमामयमक्षरम्।।
लघिमा दक्षिणं चैव महिमा पश्चिमं तथा।। २७.२५ ।।

प्राप्तिस्तथोत्तरं पत्रं प्राकाम्यं पावकस्य तु।।
ईशित्वं नैऋतं पत्रं वशित्वं वायुगोचरे।। २७.२६ ।।

सर्वज्ञत्वं तथैशान्यं कर्णिका सोम उच्यते।।
सोमस्याधस्तथा सूर्यस्तस्याधः पावकः स्वयम्।। २७.२७ ।।

धर्मादयो विदिक्ष्वेते त्वनंतं कल्पयेत्क्रमात्।।
अव्यक्तादिचतुर्दिक्षु सोमस्यांते गुणत्रयम्।। २७.२८ ।।


आत्मत्रयं ततश्चोर्ध्वं तस्यांते शिवपीठिका।।
सद्योजातं प्रपद्यामीत्यावाह्य परमेश्वरम्।। २७.२९ ।।

वामदेवेन मंत्रेण स्थापयेदासनोपरि।।
सान्निध्यं रुद्रगायत्र्या अघोरेण निरुद्ध्य च।। २७.३೦ ।।

ईशानः सर्वविद्यानामिति मंत्रेण पूजयेत्।।
पाद्यमाचमनीयं च विभोश्चार्घ्यं प्रदापयेत्।। २७.३१ ।।

स्नापयेद्विधिना रुद्रं गंधचंदनवारिणा।।
पंचगव्य विधानेन गृह्य पात्रेभिमंत्र्य च।। २७.३२ ।।

प्रणवेनैव गव्यैस्तु स्नापयेच्च यथाविधि।।
आज्येन मधुना चैव तथा चेक्षुरसेन च।। २७.३३ ।।

पुण्यैर्द्रव्यैर्महादेवं प्रणवेनाभिषेचयेत्।।
जलभांडैः पवित्रैस्तु मंत्रैस्तोयं क्षिपेत्ततः।। २७.३४ ।।

शुद्धिं कृत्वा यथान्यायं सितवस्त्रेण साधकः।।
कुशापामार्गकर्पूरजातिपुष्पकचंपकैः।। २७.३५ ।।

करवीरैः सितैश्चैव मल्लिकाकमलोत्पलैः।।
आपूर्य पुष्पैः सुशुभैः चंदनाद्यैश्च तज्जलम्।। २७.३६ ।।

न्यसेन्मंत्राणि तत्तोये सद्योजातादिकानि तु।।
सुवर्णकलशेनाथ तथा वै राजतेन वा।। २७.३७ ।।

ताम्रेण पद्मपत्रेण पालाशेन दलेन वा।।
शंखेन मृन्मयेनाथ शोधितेन शुभेन वा।। २७.३८ ।।

सकूर्चेन सपुष्पेण स्नापयेन्मंत्रपूर्वकम्।।
मंत्राणि ते प्रवक्ष्यामि श्रृणु सर्वार्थसिद्धये।। २७.३९ ।।

यैर्लिंगं सकृदप्येवं स्नाप्य मुच्येत मानवः।।
पवमानेन मंत्रज्ञाः तथा वामीयकेन च।। २७.४೦ ।।

रुद्रेण नीलरुद्रेण श्रीसुक्तेन शुभेन च।।
रजनीसूक्तकेनैव चमकेन शुभेन च।। २७.४१ ।।

होतारेणाथ शिरसा अर्थर्वेण शुभेन च।।
शांत्या चाथ पुनः शान्त्या भारुंडेनारुणेन च।। २७.४२ ।।

वारुणेन च ज्येष्टेन तथा वेदव्रतेन च।।
तथांतरेण पुण्येन सूक्तेन पुरुषेण च।। २७.४३ ।।

त्वरितेनैव रुद्रेण कपिना च कपिर्दिना।।
आवोसजेति साम्ना तु बृहच्चंद्रेण विष्णुना।। २७.४४ ।।

विरूपाक्षेण स्कंदेन शतऋग्भिः शिवौस्तथा।।
पंच ब्रह्मैश्च सूत्रेण केवलप्रणवेन च।। २७.४५ ।।

स्नापयेद्देवदेवेशं सर्वपापप्रशांतये।।
वस्त्रं शिवोपवीतं च तथा ह्याचमनीयकम्।। २७.४६ ।।

गंधं पुष्पं तथा धूपं दीपमन्नं क्रमेण तु।।
तोयं सुगंधितं चैव पुनराचमनीयकम्।। २७.४७ ।।

मुकुटं च शुभं छन्नं तथा वै भूषणानि च।।
दापयेत्प्रणवेनैव मुखवासादिकानि च।। २७.४८ ।।

ततः स्फटिकसंकाशं देव निष्कलमक्षरम्।।
कारणं सर्वदेवानां सर्वलोकमयं परम्।। २७.४९ ।।

ब्रह्मेंद्रविष्णुरुद्राद्यैर्ऋषिदेवैरगोचरम्।।
वेदविद्भिर्हि वेदान्तैस्त्वगोचरमिति श्रुतिः।। २७.५೦ ।।

आदिमध्यांतरहितं भेषजं भवरोगिणाम्।।
शिवतत्त्वमिति ख्यातं शिवलिंगे व्यवस्थितम्।। २७.५१ ।।

प्रणवेनैव मंत्रेण पूजयेल्लिंगमूर्धनि।।
स्तोत्रं जपेच्च विधिना नमस्कारं प्रदक्षिणम्।। २७.५२ ।।

अर्घ्यां दत्त्वाथ पुष्पाणि पादयोस्तु विकीर्य च।।
प्रणिपत्य च देवेशमात्मन्यारोपयेच्छिवम्।। २७.५३ ।।

एवं संक्षिप्य कथितं लिंगार्चनमनुत्तमम्।।
आभ्यंतरं प्रवक्ष्यामि लिंगार्चनमिहाद्य ते।। २७.५४ ।।

इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्व भागे लिंगार्चनविधिर्नाम सप्तविंशोऽध्यायः।। २७ ।।