लिङ्गपुराणम् - पूर्वभागः/अध्यायः ९७

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ऋषय ऊचुः।।
जलंधरं जटामौलिः पुरा जंभरिविक्रमम्।।
कथं जघान भगवान् भगनेत्रहरो हरः।। ९७.१ ।।

वक्तुमर्हसि चास्माकं रोमहर्षणसुव्रत।।
सूत उवाच।।
जलंधर इति ख्यातो जलमंडलसंभवः।। ९७.२ ।।

आसीदंतकसंकाशस्तपसा लब्धविक्रमः।।
तेन देवाः सगंधर्वाः सयक्षोरगराक्षसाः।। ९७.३ ।।

निर्जिताः समरे सर्वे ब्रह्मा च भगवानजः।।
जित्वैव देवसंघातं ब्रह्माणं वै जलंधरः।। ९७.४ ।।

जगाम देवदेवशं विष्णुं विश्वहरं गुरुम्।।
तयोः समभवद्युद्धं दिवारत्रमविश्रमम्।। ९७.५ ।।

जलंधरेशयोस्तेन निर्जितो मधुसूदनः।।
जलंधरोपि तं जित्वा देवदेवंजनार्दनम्।। ९७.६ ।।

प्रोवाचेदं दितेः पुत्रान् न्यायधीर्जेतुमीश्वरम्।।
सर्वे जिता मया युद्धे शंकरो ह्यजितो रणे।। ९७.७ ।।

तं जित्वा सर्वमीशानं गणपैर्नदिना क्षणात्।।
अहमेव भवत्वं च ब्रह्मत्वं वैष्णवं तथा।। ९७.८ ।।

वासवत्वं च युष्माकं दास्ये दानवपुंगवाः।।
जलंधरवचः श्रुत्वा सर्वे ते दानवाधमाः।। ९७.९ ।।

जगर्जुरुच्चैः पापिष्ठा मृत्युदर्शनतत्पराः।।
दैत्यैरेतैस्तथान्यैश्च रथनागतुरंगमैः।। ९७.१० ।।

सन्नद्धैः सह सन्नह्य शर्वं प्रति ययौ बली।।
भवोपि दृष्ट्वा दैत्येंद्रं मेरुकूटमिव स्थितम्।। ९७.११ ।।

अवध्यत्वमपि श्रुत्वा तथान्यैर्भगनेत्रहा।।
ब्रह्मणो वचनं रक्षन् रक्षको जगतां प्रभुः।। ९७.१२ ।।

सांबः सनंदी सगमः प्रोवाच प्रहसन्निव।।
किं कृत्यमसुरेशान युद्धेनानेन सांप्रतम्।। ९७.१३ ।।

मद्बाणैर्भिन्नसर्वांगो मर्तुमभ्युद्यते मुदा।।
जलंधरोपि तद्वाक्यं श्रुत्वा श्रोत्रविदारणम्।। ९७.१४ ।।

सुरेश्वरमुवाचेदं सुरेतरबलेश्वरः।।
वाक्येनालं महाबाहो देवदेव वृषध्वज।। ९७.१५ ।।

चंद्रांशुसन्निभैः शस्त्रैर्हर योद्धुमिहागतः।।
निशम्यास्यवचः शूली पादांगुष्ठेन लीलया।।
महांभसि चकाराशु रथांगं रौद्रमायुधम्।। ९७.१६ ।।

कृत्वार्णवांभसि सितं भगवान् रथांगं स्मृत्वा जगत्त्रयमनेन हताः सुराश्च।।
दक्षांधकांतकपुरत्रययज्ञहर्ता लोकत्रयांतककरः प्रहसंतदाह।। ९७.१७ ।।

पादेन निर्मितं दैत्य जलंधर महार्णवे।।
बलवान् यदि चोद्धर्तुं तिष्ठ योद्धुं न चान्यथा।। ९७.१८ ।।

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा क्रोधेनादीप्तलोचनः।।
प्रदहन्निव नेत्राभ्यां प्राहालोक्य जगत्त्रयम्।। ९७.१९ ।।

जलंधर उवाच।।
गदामुद्धृत्य हत्वा च नंदिनं त्वां च शंकर।।
हत्वा लोकान्सुरैः सार्धं डुंडुभान् गरुडो यथा।। ९७.२० ।।

हंतुं चराचरं सर्वं समर्थोहं सवासवम्।।
को महेश्वर मद्बाणैरच्छेद्यो भुवनत्रये।। ९७.२१ ।।

बालभावे च भगवान् तपसैव विनिर्जितः।।
ब्रह्मा बलीयौवने वै मुनयः सुरपुंगवैः।। ९७.२२ ।।

दग्धं क्षणेन सकलं त्रैलोक्यं सचराचरम्।।
तपसा किं त्वयया रुद्र निर्जितो भगवानपि।। ९७.२३ ।।

इंद्राग्नियमवित्तेशवायुवारीश्वरादयः।।
न सेहिरे यथा नागा गंधं पक्षिपतेरिव।। ९७.२४ ।।

न लब्ध्वा दिवि भूमौ च बाहवो मम शंकर।।
समस्तान्पर्वतान्प्राप्य घर्षिताश्च गणेश्वर।। ९७.२५ ।।

गिरींद्रो मंदरः श्रीमान्नलो मेरुः सुशोभनः।।
घर्षितो बाहुदंडेन कंडूनोदार्थमापतत्।। ९७.२६ ।।

गंगा निरुद्धा बाहुभ्यां लीलार्थं हिमवद्गिरौ।।
नारीणां मम भृत्यैश्च वज्रो बद्धो दिवौकसाम्।। ९७.२७ ।।

वडवाया मुखं भग्नं गृहीत्वा वै करेण तु।।
तत्क्षणादेव सकलं चैकार्णवमभूदिदम्।। ९७.२८ ।।

ऐरावतादयो नागाः क्षिप्तः सिंधुजलोपरि।।
सरथो भगवानिंद्रः क्षिप्तश्च शतयोजनम्।। ९७.२९ ।।

गरुडोपि मया बद्धो नागपाशेन विष्णुना।।
उर्वश्याद्या मया नीता नार्यः कारागृहांतरम्।। ९७.३० ।।

कथंचिल्लब्धवान् शक्रः शचीमेकां प्रणम्य माम्।।
मां न जानासि दैत्येंद्रं जलंधरमुमापते।। ९७.३१ ।।

सूत उवाच।।
एवमुक्तो महादेवः प्रादहद्वै रथं तदा।।
तस्य नेत्राग्निभागैककलाधाधन चाकुलम्।। ९७.३२ ।।

दैत्यानामतुलबलैर्हयैश्च नागैर्दैत्येंद्रास्त्रिपुररिपोर्निरीक्षणेन।।
नागाद्वैशसमनुसंवृतश्च नागैर्देवेशं वचनमुवाच चाल्पबुद्धिः।। ९७.३३ ।।

किं कार्यं मम युधि देवदैत्यसंघैर्हंतुं यत्सकलमिदं क्षणात्समर्थः।।
यत्तस्माद्भयमिहनास्ति योद्धमीश वांछैषा विपुलतरा न संशयोत्रः।। ९७.३४ ।।

तस्मात्त्वं मम मदनारिदक्षशत्रो यज्ञारे त्रिपुररिपो ममैव वीरैः।।
भूतेंद्रैर्हरिवदनेन देवसंघैर्योद्धुं ते बलमिह चास्ति चेद्धि तिष्ठ।। ९७.३५ ।।

इत्युक्त्वाथ महादेवं महादेवारिनंदनः।।
न चचाल न सस्मार निहतान्बांधवान्युधि।। ९७.३६ ।।

दुर्मदेनाविनीतात्मा दोर्भ्यामास्फोट्य दोर्बलात्।।
सुदर्शनाख्यं यच्चक्रंतेन हंतुं समुद्यतः।। ९७.३७ ।।

दुर्धरेण रथांगेन कुच्छ्रेणापि द्विजोत्तमाः।।
स्थापयामास वै स्कंधे द्विधाभूतश्च तेन वै।। ९७.३८ ।।

कुलिशेन यथा छिन्नो द्विधा गिरिवरोद्विजाः।।
पपात दैत्यो बलवानंजनाद्रिरिवापरः।। ९७.३९ ।।

तस्य रक्तेन रौद्रेण संपूर्णमभवत्क्षणात्।।
तद्रक्तमखिलं रुद्रनियोगान्मांसमेव च।। ९७.४० ।।

महारौरवमासाद्य रक्तकुंडमभूदहो।।
जलंधरं हतं दृष्ट्वा देवगंधर्वपार्षदाः।। ९७.४१ ।।

सिंहनादं महत्कृत्वा साधु देवेति चाब्रुवन्।।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि जलंधरविमर्दनम्।। ९७.४२ ।।

श्रावयेद्वा यथान्यायं गाणपत्यमवाप्नुयात्।। ९७.४३ ।।

इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे जलंधरवधो नाम सप्तनवितितमोऽध्यायः।। ९७ ।।