लिङ्गपुराणम् - पूर्वभागः/अध्यायः ६२

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ऋषय ऊचुः।।
कथं विष्णोः प्रसादाद्वै ध्रुवो बुद्धिमतां वरः।।
मेढीभूतो ग्राहाणां वै वक्तुमर्हसि सांप्रतम्।। ६२.१ ।।

सूत उवाच।।
एतमर्थं मया पृष्टो नानाशास्त्रविशारदः।।
मार्कण्डेयः पुरा प्राह मह्यं शुश्रूषवे द्विजाः।। ६२.२ ।।

मार्कंडेय उवाच।।
सार्वभौमो महातेजाः सर्वशस्त्रभृतां वरः।।
उत्तानपादो राजा वै पालयामास मेदिनीम्।। ६२.३ ।।

तस्य भार्याद्वयमभूत्सुनीतिः सुरुचिस्तथा।।
अग्रजायामभूत्पुत्रः सुनीत्यां तु महा यशाः।। ६२.४ ।।

ध्रुवो नाम महाप्राज्ञः कुलदीपो महामतिः।।
कदाचित्सप्तवर्षोपि पितुरङ्कमुपाविशत्।। ६२.५ ।।

सुरुचिस्तं विनिर्धूय स्वपुत्रं प्रीतिमानसा।।
न्यवेशयत्तं विप्रेन्द्रा ह्यङ्कं रूपेण मानिता।। ६२.६ ।।

अलब्ध्वा स पितुर्धीमानङ्कं दुःखितमानसः।।
मातुः समीपमागम्य रुरोद स पुनः पुनः।। ६२.७ ।।

रुदन्तं पुत्रमाहेदं माता शोकपरिप्लुता।।
सुरुचिर्दयिता भर्तुस्तस्याः पुत्रोपि तादृशः।। ६२.८ ।।

मम त्वं मंदभाग्याया जातः पुत्रोप्यभाग्यवान्।।
किं शोचसि किमर्थं त्वं रोदमानः पुनः पुनः।। ६२.९ ।।

सन्तप्तहृदयो भूत्वा मम शोकं करिष्यसि।।
स्वस्थस्थानं ध्रुवं पुत्र स्वशक्त्या त्वं समाप्नुयाः।। ६२.१೦ ।।

इत्युक्तः स तु मात्रा वै निर्जगाम तदा वनम्।।
विश्वामित्रं ततो दृष्ट्वा प्रणिपत्य यथाविधि।। ६२.११ ।।

उवाच प्रांजलिर्भूत्वा भगवन् वक्तुमर्हसि।।
सर्वेषामुपरिस्थानं केन प्राप्स्यामि सत्तम।। ६२.१२ ।।

पितुरङ्के समासीनं माता मां सुरुचिर्मुने।।
व्यधूनयत्स तं राजा पिता नोवाच किंचन।। ६२.१३ ।।

एतस्मात्कारणाद्ब्रह्मंस्त्रस्तोहं मातरं गतः।।
सुनीतिराह मे माता माकृथाः शोकमुत्तमम्।। ६२.१४ ।।

स्वकर्मणा परं स्थानं प्राप्तुमर्हसि पुत्रक।।
तस्या हि वचनं श्रुत्वा स्थानं तव महामुने।। ६२.१५ ।।

प्राप्तो वनमिदं ब्रह्मन्नद्य त्वां दृष्टवान्प्रभो।।
तव प्रसादात्प्राप्स्येहं स्थानमद्भुतमुत्तमम्।। ६२.१६ ।।

इत्युक्तः स मुनिः श्रीमान्प्रहसन्निदमब्रवीत्।।
राजपुत्र श्रृणुष्वेदं स्थानमुत्तममाप्स्यसि।। ६२.१७ ।।

आराध्य जगतामीशं केशवं क्लेशनाशनम्।।
दक्षिणांगभवं शंभोर्महादेवस्य धीमतः।। ६२.१८ ।।

जप नित्यं महाप्राज्ञ सर्वपाप विनाशनम्।।
इष्टदं परमं शुद्धं पवित्रममलं परम्।। ६२.१९ ।।

ब्रूहि मंत्रमिमं दिव्यं प्रणवेन समन्वितम्।।
नमोस्तु वासुदेवाय इत्येवं नियतेन्द्रियः।। ६२.२೦ ।।

ध्यायन्सनातनं विष्णुं जपहोमपरायणः।।
इत्युक्तः प्रणिपत्यैनं विश्वामित्रं महायशाः।। ६२.२१ ।।

प्राङ्मुखो नियतो भूत्वा जजाप प्रीतमानसः।।
शाकमूलफलाहारः संवत्सरमतंद्रितः।। ६२.२२ ।।

जजाप मंत्रमनिशमजस्रं स पुनः पुनः।।
वेताला राक्षसा घोराः सिंहाद्याश्च महामृगाः।। ६२.२३ ।।

तमभ्ययुर्महात्मानं बुद्धिमोहाय भीषणाः।।
जपन् स वासुदेवेति न किंचित्प्रत्यपद्यत।। ६२.२४ ।।

सुनीति रस्य या माता तस्या रूपेण संवृता।।
पिशाचि समनुप्राप्ता रुरोद भृशदुःखता।। ६२.२५ ।।

मम त्वमेकः पुत्रोसि किमर्थं क्लिश्यते भवान्।।
मामनाथामपहाय तप आस्थितवानसि।। ६२.२६ ।।

एवमादीनि वाक्यानि भाषमाणां महातपाः।।
अनिरीक्ष्यैव हृष्टात्मा हरेर्नाम जजाप सः।। ६२.२७ ।।

ततः प्रशेमुः सर्वत्र विघ्नरूपाणि तत्र वै।।
तता गरुडमारुह्य कालमघसमद्युतिः।। ६२.२८ ।।

सर्वदेवैः परिवृतः स्तूयमानो महर्षिभिः।।
आययौ भगवान्विष्णुः ध्रुवांतिकमरातिहा।। ६२.२९ ।।

समागतं विलोक्याथ कोसावित्येव चिंतयन्।।
पिबन्निव हृषीकेशं नय नाभ्यां जगत्पतिम्।। ६२.३೦ ।।

जपन् स वासुदेवेति ध्रुवस्तस्थौ महाद्युतिः।।
शंखप्रांतेन गोविंदः पस्पर्शास्यं हि तस्य वै।। ६२.३१ ।।

ततः स परमं ज्ञानमवाप्य पुरुषोत्तमम्।।
तुष्टाव प्रांजलिर्भूत्वा सर्वलोकेश्वरं हरिम्।। ६२.३२ ।।

प्रसीद देवदेवेश शंखचक्रगदाधर।।
लोकात्मन् वेदगुह्यात्मन् त्वां प्रपन्नोस्मि केशव।। ६२.३३ ।।

न विदुस्त्वां महात्मानं सनकाद्या महर्षयः।।
तत्कथं त्वामहं विद्यां नमस्ते भुवनेश्वर।। ६२.३४ ।।

तमहा प्रहसन्विष्णुरेहि वत्स ध्रुवो भवान्।।
स्थानं ध्रुवं समासाद्य ज्योतिषामग्रभुग्भव।। ६२.३५ ।।

मात्रा त्वं सहितस्तत्र ज्योतिषां स्थानमाप्नुहि।।
मत्स्थानमेतत्परमं ध्रुवं नित्यं सुशोभनम्।। ६२.३६ ।।

तपसाराध्य देवेशं पुरा लब्धं हि शंकरात्।।
वासुदेवेति यो नित्यं प्रणवेन समन्वितम्।। ६२.३७ ।।

नमस्कारसमायुक्तं भगवच्छब्दसुंयुतम्।।
जपेदेवं हि यो विद्वान्ध्रुवं स्थानं प्रपद्यते।। ६२.३८ ।।

ततो देवाः सगंधर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः।।
मात्रा सह ध्रुवं सर्वे तस्मिन् स्थाने न्यवेशयन्।। ६२.३९ ।।

विष्णोराज्ञां पुरस्कृत्य ज्योतिषां स्थानमाप्तवान्।।
एवं ध्रुवो महातेजा द्वादशाक्षरविद्यया।। ६२.४೦ ।।

अवाप महतीं सिद्धिमेतत्ते कथितं मया।। ६२.४१ ।।
सूत उवाच।।

तस्माद्यो वासुदेवाय प्रणामं कुरुते नरः।।
स याति ध्रुवसालोक्यं ध्रुवत्वं तस्य तत्तथा।। ६२.४२ ।।

इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे भुवनकोशे ध्रुवसंस्थानवर्णनं नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः।। ६२ ।।