लिङ्गपुराणम् - पूर्वभागः/अध्यायः २२

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सूत उवाच।।
अत्यंतावनतौ दृष्ट्वा मधुपिंगायतेक्षणः।।
प्रहृष्टवदनोऽत्यर्थमभवत्सत्य कीर्तनात्।। २२.१ ।।

उमापतिर्विरूपाक्षो दक्षयज्ञविनाशनः।।
पिनाकी खंडपरशुः सुप्रीतस्तु त्रिलोचनः।। २२.२ ।।

ततः स भगवान्देवः श्रुत्वा वागमृतं तयोः।।
जानन्नपि महादेवः क्रीडापूर्वमथाब्रवीत्।। २२.३ ।।

कौ भवंतौ महात्मानौ परस्परहितैषिणौ।।
समेतावंबुजाभाक्षावस्मिन्घोरे महाप्लवे।। २२.४ ।।

तावूचतुर्महात्मानौ सन्निरीक्ष्य परस्परम्।।
भगवान् किं तु यत्तेऽद्य न विज्ञानं त्वया विभो।। २२.५ ।।

विभो रुद्र महामाय इच्छया वां कृतौ त्वया।।
तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा अभिनंद्याभिमान्यच।। २२.६ ।।

उवाच भगवान्देवो मधुरं श्लक्ष्णया गिरा।।
भो भो हिरण्य गर्भ त्वां त्वां च कृष्ण ब्रवीम्यहम्।। २२.७ ।।

प्रीतोऽहमनया भक्त्या शाश्वताक्षरयुक्तया।।
भवंतौ हृदयस्यास्य मम हृद्यतरावुभौ।। २२.८ ।।

युवाभ्यां किं ददाम्यद्य वराणां वरमीप्सितम्।।
अथोवाच महाभागो विष्णुर्भवमिदं वचः।। २२.९ ।।

सर्वं मम कृतं देव परितुष्टोऽसि मे यदि।।
त्वयि मे सुप्रतिष्ठा तु भक्तिर्भवतु शंकरः।। २२.१೦ ।।

एवमुक्तस्तु विज्ञाय संभावयत केशवम्।।
प्रददौ च महादेवो भक्तिं निजपदांबुजे।। २२.११ ।।

भवान्सर्वस्य लोकस्य कर्ता त्वमधिदैवतम्।।
तदेवं स्वस्ति ते वत्स गमिष्याम्यंबुजेक्षण।। २२.१२ ।।

एवमुक्त्वा तु भगवान् ब्रह्माणं चापि शंकरः।।
अनुगृह्याऽस्पृशद्देवो ब्रह्माणं परमेश्वरः।। २२.१३ ।।

कराभ्यां सुशुभाभ्यां च प्राह हृष्टतरः स्वयम्।।
मत्समस्त्वं न संदेहो वत्स भक्तश्च मे भवान्।। २२.१४ ।।

स्वस्त्यस्तु ते गमिष्यामि संज्ञा भवतु सुव्रत।।
एवमुक्त्वा तु भगवांस्ततोन्तर्धानमीश्वरः।। २२.१५ ।।

गतवान् गणपो देवः सर्वदेवनमस्कृतः।।
अवाप्य संज्ञां गोविंदात् पद्मयोनिः पितामहः।। २२.१६ ।।

प्रजाः स्रष्टुमनाश्चक्रे तप उग्रं पितामहः।।
तस्यैवं तप्यमानस्य न किंचित्समवर्तत।। २२.१७ ।।

ततो दीर्घेण कालेन दुःखात्क्रोधो ह्यजायत।।
क्रोधाविष्टस्य नेत्राभ्यां प्रापतन्नश्रुबिंदवः।। २२.१८ ।।

ततस्तेभ्योऽश्रुबिंदुभ्यो वातपित्तकफात्मकाः।।
महाभागा महासत्त्वाः स्वस्तिकैरप्यलंकृताः।। २२.१९ ।।

प्रकीर्णकेशाः सर्पास्ते प्रादुर्भूता महा विषाः।।
सर्पांस्तानग्रजान्दृष्ट्वा ब्रह्मात्मानमनिंदयत्।। २२.२೦ ।।

अहो धिक् तपसो मह्यं फलमीदृशकं यदि।।
लोकवैनाशिकी जज्ञे आदावेव प्रजा मम।। २२.२१ ।।

तस्य तीव्राभवन्मूर्च्छा क्रोधामर्षसमुद्भवा।।
मूर्च्छाभिपरितापेन जहौ प्राणान्प्रजापतिः।। २२.२२ ।।

तस्याप्रतिमवीर्यस्य देहात्कारुण्यपूर्वकम्।।
अथैकादश ते रुद्रा रुदंतोऽभ्यक्रमंस्तथा।। २२.२३ ।।

रोदनात्खलु रुद्रत्वं तेषु वै समजायत।।
ये रुद्रास्ते खलु प्राणा ये प्राणास्ते तदात्मकाः।। २२.२४ ।।

प्राणाः प्राणवतां ज्ञेयाः सर्वभूतेष्ववस्थिताः।।
अत्युग्रस्य महत्त्वस्य साधुराचरितस्य च।। २२.२५ ।।

प्राणांस्तस्य ददौ भूयस्त्रिशूली नीललोहितः।।
लब्ध्वासून् भगवान्ब्रह्म देवदेवमुमापतिम्।। २२.२६ ।।

प्रणम्य संस्थितोऽपश्यद्गायत्र्या विश्वमीश्वरम्।।
सर्वलोकमयं देवं दृष्ट्वा स्तुत्वा पितामहः।। २२.२७ ।।

ततो विस्मयमापन्नः प्रणिपत्य मुहुर्मुहुः।।
उवाच वचनं शर्वं सद्यादित्वं कथं विभो।। २२.२८ ।।

इति श्रीलंगमहापुराणे पूर्वभागे रुद्रोत्पत्तिवर्णनं नाम द्वाविंशतितमोऽध्यायः।। २२।।