लिङ्गपुराणम् - पूर्वभागः/अध्यायः ९५

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ऋषय ऊचुः।।
नृसिंहेन हतः पूर्वं हिरण्याक्षाग्रजः श्रुतम्।।
कथं निषूदितस्तेने हिरण्यकशिपुर्वद।। ९५.१ ।।

सूत उवाच।।
हिरण्यकशिपोः पुत्रः प्रह्राद इति विश्रुतः।।
धर्मज्ञः सत्यसंपन्नस्तपस्वी चाभवत्सुधीः।। ९५.२ ।।

जन्मप्रभृति देवेशं पूजयामास चाव्ययम्।।
सर्वज्ञं सर्वगं विष्णुं सर्वदेवभवोद्भवम्।। ९५.३ ।।

तमादिपुरुषं भक्त्या परब्रह्मस्वरूपिणम्।।
ब्रह्मणोधिपतिं सृष्टिस्थितिसंहारकारणम्।। ९५.४ ।।

सोपि विष्णोस्तथाभूतं दृष्ट्वा पुत्रं समाहितम्।।
नमो नारायणायेति गोविंदेति मुहुर्मुहुः।। ९५.५ ।।

स्तुवंतं प्राह देवारीः प्रदहन्निव पापधीः।।
न मां जानासि दुर्बुद्धे सर्वदैत्यामरेश्वरम्।। ९५.६ ।।

प्रह्राद वरिदुष्पुत्र द्विजदेवार्तिकारणम्।।
को विष्णुः पद्मजो वापि शक्रश्च वरुणोथवा।। ९५.७ ।।

वायुः सोमस्तथेशानः पावको मम यः समः।।
मामेवार्चय भक्त्या च स्वल्पं नारायणं सदा।। ९५.८ ।।

प्रह्राद जीविते वांछा तवैषा श्रृणु चास्ति चेत्।।
श्रुत्वापि तस्य वचनं हिरण्यकशिपोः सुधीः।। ९५.९ ।।

प्रह्रादः पूजयामास नमो नारायणेति च।।
नमो नारायणायेति सर्वदैत्यकुमारकान्।। ९५.१० ।।

अध्यापयामास च तां ब्रह्मविद्यां सुशोभनाम्।।
दुर्लंघ्यां चात्मनो दृष्ट्वा शक्रादिभिरपि स्वयम्।। ९५.११ ।।

पुत्रेण लंघितामाज्ञां हिरण्यः प्राहदानवान्।।
एतं नानाविधैर्वध्यं दुष्पुत्रं हंतुमर्हथ।। ९५.१२ ।।

एवमुक्तास्तदा तेन दैत्येन सुदुरात्मना।।
निजघ्नुर्देवदेवस्य भृत्यं प्रह्रादमव्ययम्।। ९५.१३ ।।

तत्र तत्प्रतिकृतं तदा सुरैर्दैत्यराजतनयं द्विजोत्तमाः।।
क्षीरवारिनिधिशायिनः प्रभोर्निष्फलं त्वथ बभूव तेजसा।। ९५.१४ ।।

तदार्थ गर्वभिन्नस्य हिरण्यकशिपोः प्रभुः।।
तत्रैवाविरभूद्धंतुं नृसिंहाकृतिमास्थितः।। ९५.१५ ।।

जघान च सुतं प्रेक्ष्य पितरं दानवाधमम्।।
बिभेद तत्क्षणादेव करजौर्निशितैः शतैः।। ९५.१६ ।।

ततो निहत्य तं दैत्यं सबांधवमघापहः।।
पीडयामास दैत्येन्द्रं युगांताग्निरिवापरः।। ९५.१७ ।।

नादैस्तस्य नृसिंहस्य घोरैर्वित्रासितं जगत्।।
आब्रह्मभुवनाद्विप्रा प्रचचाल च सुव्रताः।। ९५.१८ ।।

दृष्ट्वा सुरासुरमहोरगसिद्धसाध्यास्तस्मिन् क्षणे हरिविरिंचिमुखा नृसिंहम्।।
धैर्यं बलं च समवाप्य ययुर्विसृज्य आदिङ्मुखांतमसुराक्षणतत्पराश्च।। ९५.१९ ।।

ततस्तैर्गतैः सैष देवोनृसिंहः सहस्राकृतिः सर्वपात्सर्वबाहुः।।
सहस्रेक्षणः सोमसूर्याग्निनेत्रस्तदा संस्थितः सर्वमावृत्य मायी।। ९५.२० ।।

तं तुष्टुवुः सुरश्रेष्ठा लोका लोकाचले स्तिताः।।
सब्रह्मकाः ससाध्याश्च सयमाः समरूद्गणाः।। ९५.२१ ।।

परात्परतरं ब्रह्म तत्त्वात्तत्त्वतमं भवान्।।
ज्योतिषां तु परंज्योतिः परमात्मा जगन्मयः।। ९५.२२ ।।

स्थूलं सूक्ष्मं सुसूक्ष्मं च शब्दब्रह्मयः शुभः।।
वागतीतो निरालंबो निर्द्धंद्वो निरुपप्लवः।। ९५.२३ ।।

यज्ञभुग्यज्ञमूर्तिस्त्वं यज्ञिनां फलदः प्रभुः।।
भवान्मत्स्याकृतिः कौर्ममास्थाय जगति स्थितः।। ९५.२४ ।।

वाराहिं चैव तां सैंहीमास्थायेहव्यवस्थितः।।
देवानां देवरक्षार्थं निहत्य दितिजेश्वरम्।। ९५.२५ ।।

द्विजशापच्छलेनैवमवतीर्णोसि लीलया।।
न दृष्टं यत्त्वदन्यं हि भवान्सर्वंचराचरम्।।। ९५.२६ ।।

भवान्विष्णुर्भवान् रुद्रो भवानेव पितामहः।।
भवानादिर्भवानंतो भवानेव वयं विभो।। ९५.२७ ।।

भवानेव जगत्सर्वं प्रलापेन किमीश्वर।।
मायया बहुधा संस्थमद्वितीयमयं प्रभो।। ९५.२८ ।।

स्तोष्यामस्त्वां कथं भासि देवदेव मृगाधिप।।
स्तुतोपि विविधैः स्तुत्यैर्भावैर्नानाविधैः प्रभुः।। ९५.२९ ।।

न जगाम द्विजाः शांतिं मानयन्योनिमात्मनः।।
यो नृसिंहस्तवं भक्त्या पठेद्वार्थं विचारयेत्।। ९५.३० ।।

श्रावयेद्वा द्विजान्सर्वान् विष्णुलोके महीयते।।
तदंतरे शिवं देवाः सेंद्राः सब्रह्मकाः प्रभुम्।। ९५.३१ ।।

संप्राप्य तुष्टवुः सर्वं विज्ञाप्य मृगरूपिणः।।
ततो ब्रह्मादयस्तूर्णं संस्तूय परमेश्वरम्।। ९५.३२ ।।

आत्मत्राणाय शरणं जग्मुः परमकारणम्।।
मंदरस्थं महादेवं क्रीडमानं सहोमया।। ९५.३३ ।।

सेवितं गणगंधर्वैः सिद्धैरप्सरसां गणैः।।
देवताभिः सह ब्रह्मा भीतभीतः सगद्गदम्।।
प्रणम्य दंडवद्भूमौ तुष्टाव परमेश्वरम्।। ९५.३४ ।।

ब्रह्मोवाच।।
नमस्ते कालकालाय नमस्ते रुद्र मन्यवे।।
नमः शिवाय रुद्राय शंकराय शिवाय ते।। ९५.३५ ।।

उग्रोसि सर्वभूतानां नियंतासि शिवोसि नः।।
नमः शिवाय शर्वाय शंकरायार्त्तिहारिणे।। ९५.३६ ।।

मयस्कराय विश्वाय विष्णवे ब्रह्मणे नमः।।
अंतकाय नमस्तुभ्यमुमायाः पतये नमः।। ९५.३७ ।।

हिरण्यबाहवे साक्षाद्धिरण्यपतये नमः।।
शर्वाय सर्वरूपाय पुरुषाय नमोनमः।। ९५.३८ ।।

सदसद्व्यक्तिहीनाय महतः कारणाय ते।।
नित्याय विश्वरूपाय जायमानाय ते नमः।। ९५.३९ ।।

जाताय बहुधा लोके प्रभूताय नमोनमः।।
रुद्राय नीलरुद्राय कद्रुद्राय प्रचेतसे।। ९५.४० ।।

कालाय कालपूपाय नमः कालांगहारिणे।।
मीढुष्टमाय देवाय शितिकंठाय ते नमः।। ९५.४१ ।।

महीयसे नमस्तुभ्यं हंत्रे देवारिणां सदा।।
ताराय च सुताराय तारणाय नमोनमः।। ९५.४२ ।।

हरिकेशाय देवाय शंभवे परमात्मने।।
देवानां शंभवे तुभ्यं भूतानां शंभवे नमः।। ९५.४३ ।।

शंभवे हैमवत्याश्च मन्यवे रुद्ररूपिणे।।
कपर्दिने नमस्तुभ्यं कालकंठाय ते नमः।। ९५.४४ ।।

हिरण्याय महेशाय श्रीकंठाय नमोनमः।।
भस्मदिग्धशरीराय दंडमुंडीश्वराय च।। ९५.४५ ।।

नमो ह्रस्वाय दीर्घाय वामनाय नमोनमः।।
नमउग्रत्रिशूलाय उग्राय च नमोनमः।। ९५.४६ ।।

भीमाय भीमरूपाय भीमकर्मरताय ते।।
अग्रेवधाय वै भूत्वा नमो दूरेवधाय च।। ९५.४७ ।।

धन्विने शूलिने तुभ्यं गदिने हलिने नमः।।
चक्रिणे वर्मिणे नित्यं दैत्यानां कर्मभेदिने।। ९५.४८ ।।

सद्याय सद्यरूपाय सद्योजाताय ते नमः।।
वामाय वामरूपाय वामनेत्राय ते नमः।। ९५.४९ ।।

अघोररूपाय विकटाय विकटशरीराय ते नामः।।
पुरुषरूपाय पुरुषैकतत्पुरुषाय वै नमः।। ९५.५० ।।

पुरुषार्थप्रदानाय पतये परमेष्ठिने।।
ईशानाय नमस्तुभ्यमीश्वराय नमोनमः।। ९५.५१ ।।

ब्रह्मणे ब्रह्मरूपाय नमः साक्षाच्छिवाय ते।।
सर्वविष्णुर्नृसिंहस्य रूपमास्थाय विश्वकृत्।। ९५.५२ ।।

हिरण्यकशिपुं हत्वा करजैर्निशितैः स्वयम्।।
दैत्येंद्रैर्बहुभिः सार्धं हितार्थं जगतां प्रभुः।। ९५.५३ ।।

सैंहीं समानयन्योनिं बाधते निखिलं जगत्।।
यत्कृत्यमत्र देवेश तत्कुरुष्व भवानिह।। ९५.५४ ।।

उग्रोसि सर्वदुष्टानां नियंतासि शिवोसि नः।।
कालकूटादिवपुषा त्राहि नः शरणागतान्।। ९५.५५ ।।

शुक्रं तु वृत्तं विश्वेशक्रीडा वै केवलं वयम्।।
तवोन्मेषनिमेषाभ्यामस्माकं प्रलयोदयौ।। ९५.५६ ।।

उन्मीलयेत्त्वयि ब्रह्मन्विनाशोस्ति न ते शिव।।
संतप्तास्मोवयं देव हरिणामिततेजसा।। ९५.५७ ।।

सर्वलोकहितायैनं तत्त्वं संहर्त्तुमिच्छसि।।
सूत उवाच।।
विज्ञापितस्तथा देवः प्रहसन्प्राह तान् सुरान्।। ९५.५८ ।।

अभयं च ददौ तेषां हनिष्यामिति तं प्रभुः।।
सोपि शक्रः सुरैः सार्धं प्रणिपत्य यथागतम्।। ९५.५९ ।।

जगाम भगवान् ब्रह्मा तथान्ये च सुरोत्तमाः।।
अथोत्थाय महादेवः शारभं रूपमास्थितः।। ९५.६० ।।

ययौ प्रांते नृसिंहस्य गर्वितस्य मृगाशिनः।।
अपहृत्य तदा प्राणान्शरभः सुरपूजितः।। ९५.६१ ।।

सिंहात्ततो नरो भूत्वा जगाम च यथाक्रमम्।।
एवं स्तुतस्तदा देवैर्जगाम स यथाक्रमम्।। ९५.६२ ।।

यः पठेच्छृणुयद्वापि संस्तवं शार्वमुत्तमम्।।
रुद्रलोकमनुप्राप्य रुद्रेण सह मोदते।। ९५.६३ ।।

इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे नारसिंहे पंचनवतितमोऽध्यायः।। ९५ ।।