लिङ्गपुराणम् - पूर्वभागः/अध्यायः १०४

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ऋषय ऊचुः।।
कथं विनायको जातो गजवक्त्रो गणेश्वरः।।
कथंप्रभावस्तस्यैवं सूत वक्तुमिहार्हसि।। १०४.१ ।।

सूत उवाच।।
एतस्मिन्नंतरे देवाः सेंद्रोपेंद्राः समेत्य ते।।
धर्मविघ्नं तदा कर्त्तुं दैत्यानामभवन्द्विजाः।। १०४.२ ।।

असुरा यातुधानाश्च राक्षसाः क्रूरकर्मिणः।।
तामसाश्च तथा चान्ये राजसाश्च तथा भुवि।। १०४.३ ।।

अविघ्नं यज्ञदानाद्यौः समभ्यर्च्य महेश्वरम्।।
ब्रह्माणं च हरिं विप्रा लब्धेप्सितवरा यतः।। १०४.४ ।।

ततोऽस्माकं सुरश्रेष्ठाः गणपं विजयसंभवः।।
तेषां ततस्तु विघ्नार्थमविघ्नाय दिवौकसाम्।। १०४.५ ।।

पुत्रार्थं चैव नारीणां नराणां कर्मसिद्धये।।
विघ्नेशं शंकरं स्रष्टुं गणपं स्तोतुमर्हथ।। १०४.६ ।।

इत्युक्त्वान्योन्यमनघं तुष्टुवुः शिवमीश्वरम्।।
नमः सर्वात्मने तुभ्यं सर्वज्ञाय पिनाकिने।। १०४.७ ।।

अनघायविरिंचाय देव्याः कार्यार्थदायिने।।
अकायायार्थकायाय हरेः कायापहारिणे।। १०४.८ ।।

कायांतस्थामृताधारमंडलावस्थिताय ते।।
कृतादिभेदकालाय कालवेगाय ते नमः।। १०४.९ ।।

कालाग्निरुद्ररुपाय धर्माद्यष्टपदाय च।।
कालीविशुद्धदेहाय कालिकाकारणाय ते।। १०४.१० ।।

कालकंठाय मुख्याय वाहनाय वराय ते।।
अंबिकापतये तुभ्यं हिरण्यपतये नमः।। १०४.११ ।।

हिरण्यरेतसे चैव नमः शर्वाय शूलिने।।
कपालदंडपाशासिचर्मांकुशधरायच।। १०४.१२ ।।

पतये हैमवत्याश्च हेमशुक्लाय ते नमः।।
पीतशुक्लाय रक्षार्थं सुराणां कृष्णवर्त्मने।। १०४.१३ ।।

पंचमाय महापंचयज्ञिनां फलदाय च।।
पंचास्यफणिहाराय पंचाक्षरमयाय ते।। १०४.१४ ।।

पंचधा पंचकैवल्यदेवैरर्चितमूर्तये।।
पंचाक्षरदृशे तुभ्यं परात्परतराय ते।। १०४.१५ ।।

षोडशस्वरवज्रांगवक्त्रायाक्षयरूपिणे।।
कादिपंचकहस्ताय चादिहस्ताय ते नमः।। १०४.१६ ।।

टादिपादाय रुद्राय तादिपादाय ते नमः।।
पादिमेंढ्राय यद्यंगधातुसप्तकधारिणे।। १०४.१७ ।।

शांतात्मरूपिणे साक्षात्क्षदंतक्रोधिने नमः।।
लवरेफहळांगाय निरंगाय च ते नमः।। १०४.१८ ।।

सर्वेषामेव भूतानां हृदि निःस्वनकारिणे।।
भ्रुवेरंते सदा सद्भिर्दृष्टायात्यंतभानवे।। १०४.१९ ।।

भानुसोमाग्निनेत्राय परमात्मस्वरूपिणे।।
गुणत्रयोपरिस्थाय तीर्थपादाय ते नमः।। १०४.२० ।।

तीर्थतत्त्वाय साराय तस्मादपि पराय ते।।
ऋग्जयुः सामवेदाय ओंकाराय नमोनमः।। १०४.२१ ।।

ओंकारे त्रिविधं रूपमास्थायोपरिवासिने।।
पीताय कृष्णवर्णाय रक्तायात्यंततेजसे।। १०४.२२ ।।

स्थानपंचकसंस्थाय पंचधांडबहिः क्रमात्।।
ब्रह्मणे विष्णवे तुभ्यं कुमाराय नमोनमः।। १०४.२३ ।।

अंबायाः परमेशाय सर्वोपरिचारय ते।।
मूलसूक्ष्मस्वरूपाय स्थूलसूक्ष्माय ते नमः।। १०४.२४ ।।

सर्वसंकल्पशून्याय सर्वस्माद्रक्षिताय ते।।
आदिमध्यांतशून्याय चित्संस्थाय नमोनमः।। १०४.२५ ।।

यमाग्निवायुरुद्रांबुसोमशक्रनिशाचरैः।।
दिङ्मुखोदिङ्मुखे नित्यं सगणैः पूजिताय ते।। १०४.२६ ।।

सर्वेषु सर्वदा सर्वमार्गे संपूजिताय ते।।
रुद्राय रुद्रनीलाय कद्रुद्राय प्रचेतसे।।
महेश्वराय धीराय नमः साक्षाच्छिवाय ते।। १०४.२७ ।।

अथ श्रृणु भगवन् स्तवच्छलेन कथितमजेंद्रमुखैः सुरासुरेशैः।।
मखमदनयमाग्निदक्षयज्ञक्षपणविचित्रविचेष्टितं क्षमस्व।। १०४.२८ ।।

सूत उवाच।।
यः पठेत्तु स्तवं भक्या शक्राग्निप्रमुखैः सुरैः।।
कीर्तितं श्रावयेद्विद्वान् स याति परमां गतिम्।। १०४.२९ ।।

इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे देवस्तुतिर्नाम चतुरधिकशततमोऽध्यायः।। १०४ ।।