लिङ्गपुराणम् - पूर्वभागः/अध्यायः ९४

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ऋषय ऊचुः।।
कथमस्य पिता दैत्यो हिरण्याक्षः सुदारुणः।।
विष्णुना सूदितो विष्णुर्वाराहत्वं कथं गतः।। ९४.१ ।।

तस्य श्रृंगं महेशस्य भूषणत्वं कथं गतम्।।
एतत्सर्वं विशेषेण सूत वक्तुमिहार्हसि।। ९४.२ ।।

सूत उवाच।।
हिरण्यकशिपोर्भ्राता हिरण्याक्ष इति स्मृतः।।
पुरांधकासुरेशस्य पिता कालांतकोपमः।। ९४.३ ।।

देवाञ्जित्वाथ दैत्येंद्रो बद्ध्वा च धरणीमिमाम्।।
नीत्वा रसातलं चक्रे बंदीमिन्दीवरप्रभाम्।। ९४.४ ।।

ततः सब्रह्मका देवाः परिम्लानमुखश्रियः।।
बाधितास्ताडिता बद्ध्वा हिरण्याक्षेण तेन वै।। ९४.५ ।।

बलिना दैत्यमुख्येन क्रूरेम सुदुरात्मना।।
प्रणम्य शिरसा विष्णुं दैत्यकोटिविमर्दनम्।। ९४.६ ।।

सर्वे विज्ञापयामासुर्धरणीबंधनं हरेः।।
श्रुत्वैतद्भगवान् विष्णुर्धरणीबंधनं हरिः।। ९४.७ ।।

भूत्वा यज्ञवराहोसौ यथा लिंगोद्भवे तथा।।
दैत्यैश्च सार्धं दैत्येंद्रं हिरण्याक्षं महाबलम्।। ९४.८ ।।

दंष्ट्राग्रकोट्या हत्वैनं रेजे दैत्यान्तकृत्प्रभुः।।
कल्पादिषु यथापूर्वं प्रविश्य च रसातलम्।। ९४.९ ।।

आनीय वसुधां देवीमंकस्थामकरोद्बहिः।।
ततस्तुष्टावदेवेशं देवदेवः पितामहः।। ९४.१० ।।

शक्राद्यैः सहितो भूत्वा हर्षगद्गदया गिरा।।
शाश्वताय वराहाय दंष्ट्रिणे दंडिने नमः।। ९४.११ ।।

नारायणाय सर्वाय ब्रह्मणे परमात्मने।।
कर्त्रे धर्त्रे धरायास्तु हर्त्रे देवारिणां स्वयम्।।
कर्त्रे नेत्रे सुरेंद्राणां शास्त्रे च सकलस्य च।। ९४.१२ ।।

त्वमष्टमूर्तिस्त्वमनंतमूर्तिस्त्वमादिदेवस्त्वमनंतवेदितः।।
तव्या कृतं सर्वमिदं प्रसीद सुरेश लोकेश वराह विष्णो।। ९४.१३ ।।

तथैकदंष्ट्राग्रमुखाग्रकोटिभागैकभागार्धतमेन विष्णो।।
हताः क्षणात्कामददैत्यमुख्याः स्वदंष्ट्रकोट्या सह पुत्रभृत्यैः।। ९४.१४ ।।

त्वयोद्धृता देव धरा धरेशधराधराकार धृताग्रदंष्ट्रे।।
धराधरैः सर्वजनैः समुद्रैः सुरासुरैः सेवितचंद्रवक्त्र।। ९४.१५ ।।

त्वयैव देवेश विभो कृतश्च जयः सुराणामसुरेश्वणाम्।।
अहो वसुंधरा तव पृष्ठतः सकलतारकादयः।। ९४.१६ ।।

तव रोम्णि सकलामरेश्वरा नयनद्वये शशिरवी पदद्वये।।
निहिता रसातलगता वसुंधरा तव पृष्ठतः सकलतारकादयः।। ९४.१७ ।।

जगतां हिताय भवता वसुंधरा भगवान् रसातलसपुटंगता तदा।।
अबलोद्धृता च भगवंस्तवैव सकलं त्वयैव हि धृतं जगद्गुरो।। ९४.१८ ।।

इति वाक्पतिर्बहुविधैस्तवार्चनैः प्रणिपत्य विष्णुममरैः प्रजापतिः।।
विविधान्वरान् हरिमुखात्तु लब्धवान् हरिनाभिवारिजदेहभृत्स्वयम्।। ९४.१९ ।।

अथ तामुद्धृतां तेन धरां देवा मुनीश्वराः।।
मूर्ध्न्यारोप्य नमश्चक्रुश्चक्रिणः सन्निधौ तदा।। ९४.२० ।।

अनेनैव वराहेण चोद्धृतासि वरप्रदे।।
कृष्णेनाक्लिष्टकार्येण शतहस्तेन विष्णुना।। ९४.२१ ।।

धरणि त्वं महाभोगे भूमिस्त्वं धेनुरव्यये।।
लोकानां धारिणी त्वं हि मृत्तिके हर पातकम्।। ९४.२२ ।।

मनसा कर्मणा वाचावरदे वारिजेक्षणे।।
त्वया हतेन पापेन जीवामस्त्वत्प्रसादतः।। ९४.२३ ।।

इत्युक्ता सा तदा देवी धरा देवैरधाब्रवीत्।।
वराहदंष्ट्राभिन्नायां धरायां मृत्तिकां द्विजाः।। ९४.२४ ।।

मंत्रेणानेन योऽबिभ्रत् मूर्ध्नि पापात्प्रमुच्यते।।
आयुष्मान्बलवान्धन्यः पुत्रपौत्रसमन्वितः।। ९४.२५ ।।

क्रमाद्भुवि दिवं प्राप्य कर्मांते मोदते सुरैः।।
अथ देव गते त्वक्त्वा वराहे क्षीरसागरम्।। ९४.२६ ।।

वाराहरूपमनघं चचाल च धरा पुनः।।
तस्य दंष्ट्राभराक्रांता देवदेवस्य धीमतः।। ९४.२७ ।।

यदृच्छया भवः पश्यन् जगामजगदीश्वरः।।
दंष्ट्रां जग्राह दृष्ट्वा तां भूषणार्थमथात्मनः।। ९४.२८ ।।

दधार च महादेवः कूर्चांते वै महोरसि।।
देवाश्च तुष्टुवुः सेंद्रा देवदेवस्य वैभवम्।। ९४.२९ ।।

धरा प्रतिष्ठिता ह्येवं देवदेवेन लीलया।।
भूतानां संप्लवे चापि विष्णोश्चैव कलेवरम्।। ९४.३० ।।

ब्रह्मणश्च तथान्येषां देवानामपि लीलया।।
विभुरंगविभागेन भूषितो न यदि प्रभुः।। ९४.३१ ।।

कथं विमुक्तिर्विप्राणां तस्माद्दंष्ट्री महेश्वरः।। ९४.३२ ।।

इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे वराहप्रादुर्भावो नाम चतुर्नवतितमोध्यायः।। ९४ ।।