लिङ्गपुराणम् - पूर्वभागः/अध्यायः २५

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ऋषय ऊचुः।।
कथं पूज्यो महादेवो लिंगमूर्तिर्महेश्वरः।।
वक्तुमर्हसि चास्माकं रोमहर्षण सांप्रतम्।। २५.१ ।।

सूत उवाच।।
देव्या पृष्टो महादेवः कैलासे तां नगात्मजाम्।।
अंकस्थामाह देवेशो लिंगार्चनविधिं क्रमात्।। २५.२ ।।

तदा पार्श्वे स्थितो नंदी शालंकायनकात्मजः।।
श्रृत्वाखिलं पुरा प्राह ब्रह्मपुत्राय सुव्रताः।। २५.३ ।।

सनत्कुमाराय शुभं लिंगार्चनविधिं परम्।।
तस्माद्व्यासो महातेजाः श्रुतवाञ्छ्रुतिसंमतिम्।। २५.४ ।।

स्नानयोगोपचारं च यथा शैलादिनो मुखात्।।
श्रुतवान् तत्प्रवक्ष्यामि स्नानाद्यं चार्चनाविधिम्।। २५.५ ।।

शैलादिरुवाच।।
अथ स्नानविधिं वक्ष्ये ब्राह्मणानां हिताय च।।
सर्वपापहरं साक्षाच्छिवेन कथितं पुरा।। २५.६ ।।

अनेन विधिना स्नात्वा सकृत्पूज्य च शंकरम्।।
ब्रह्मकूर्चं च पीत्वा तु सर्वपापैः प्रमुच्यते।। २५.७ ।।

त्रिविधं स्नानमाख्यातं देवदेवेन शंभुना।।
हिताय ब्राह्मणाद्यानां चतुर्मुखसुतोत्तम।। २५.८ ।।

वारुणं पुरतः कृत्वा ततश्चाग्नेयमुत्तमम्।।
मंत्रस्नानं ततः कृत्वा पूजयेत्परमेश्वरम्।। २५.९ ।।

भावदुष्टोऽम्भसि स्नात्वा भस्मना च न शुद्ध्यति।।
भावशुद्धश्चरेच्छौचमन्यथा न समाचरेत्।। २५.१೦ ।।

सरित्सरस्तडागेषु सर्वेष्वाप्रलयं नरः।।
स्नात्वापि भावदुष्टश्चेन्न शुध्यति न संशयः।। २५.११ ।।

नृणां हि चित्तकमलं प्रबुद्धमभवद्यदा।।
प्रसुप्तं तमसा ज्ञानभानोर्भासा तदा शुचिः।। २५.१२ ।।

मृच्छकृत्तिलपुष्पं च स्नानार्थं भसितं तथा।।
आदाय तीरे निःक्षिप्य स्नानतीर्थे कुशानि च।। २५.१३ ।।

प्रक्षाल्याचम्य पादौ च मलं देहाद्विशोध्य च।।
द्रव्यैस्तु तीरदेशस्थैस्ततः स्नानं समाचरेत्।। २५.१४ ।।

उद्धृतासीतिमंत्रेण पुनर्देहं विशोधयेत्।।
मृदादाय ततश्चान्यद्वस्त्रं स्नात्वा ह्यनुल्बणम्।। २५.१५ ।।

गंधद्वारां दुराधर्षामिति मंत्रेण मंत्रवित्।।
कपिलागोमयेनैव खस्थेनैव तु लेपयेत्।। २५.१६ ।।

पुनः स्नात्वा परित्यज्य तद्वस्त्रं मलिनं ततः।।
शुक्लवस्त्रापरीधानो भूत्वा स्नानं समाचरेत्।। २५.१७ ।।

सर्वपापविशुद्ध्यर्थमावाह्य वरुणं तथा।।
संपूज्य मनसा देवं ध्यानयज्ञेन वै भवम्।। २५.१८ ।।

आचम्य त्रिस्तदा तीर्थे ह्यवगाह्य भवं स्मरन्।।
पुनराचम्य विधिवदभिमन्त्र्य महाजलम्।। २५.१९ ।।

अवगाह्य पुनस्तस्मिन् जपेद्वै चाघमर्षणम्।।
तत्तोये भानुसोमाग्निमंडलं च स्मरेद्वशी।। २५.२೦ ।।

आचम्य च पुनस्तस्माज्जलादुत्तीर्य मंत्रवित्।।
प्रविश्य तीर्थमध्ये तु पुनः पुण्यविवृद्धये।। २५.२१ ।।

श्रृंगेण पर्णपुटकैः पालशैः क्षालितैस्तथा।।
सकुशेन सपुष्पेण जलेनैवाभिषेचयेत्।। २५.२२ ।।

रुद्रेण पवमानेन त्वरिताख्येन मंत्रवित्।।
तरत्समंदीवर्गाद्यैस्तथा शांतिद्वयेन च।। २५.२३ ।।

शांतिधर्मेण चैकेन पंचब्रह्मपवित्रकैः।।
तत्तन्मंत्राधिदेवानां स्वरूपं च ऋषीन् स्मरन्।। २५.२४ ।।

एवं हि चाभिषिच्याथ स्वमूर्ध्नि पयसा द्विजाः।।
ध्यायेच्च त्र्यंबकं देवं हृदि पंचास्यमीश्वरम्।। २५.२५ ।।

आचम्याचमनं कुर्यात्स्वसूत्रोक्तं समीक्ष्य च।।
पवित्रहस्तः स्वासीनः शुचौ देशे यथाविधि।। २५.२६ ।।

अभ्युक्ष्य सकुशं चापि दक्षिणेन करेण तु।
पिबेत्प्रक्षिप्य त्रिस्तोयं चक्री भूत्वा ह्यतंद्रितः।। २५.२७ ।।

प्रदक्षिणं ततः कुर्याद् हिंसापापप्रशांतये।।
एवं संक्षेपतः प्रोक्तं स्नानाचमनमुत्तमम्।। २५.२८ ।।

सर्वेषां ब्राह्मणानां तु हितार्थे द्विजसत्तमाः।। २५.२९ ।।
इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे स्नानविधिर्नाम पंचविंशोध्यायः।। २५ ।।