महाभारतम्-09-शल्यपर्व-033
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युधिष्ठिरेण दुर्योधनम्प्रति स्वेष्वन्यतमपराजयेनापि तस्य राज्यप्राप्तिवचने कृष्णेन तम्प्रति सकोपं भीमेनापि दुर्योधनप राजये स्वस्य संशयोक्तिः।। 1 ।।
भीमेन कृष्णम्प्रति स्वसामर्थ्यप्रकथनपूर्वकं स्वेन दुर्योधनवधस्य सुकरत्वे कथिते कृष्णादिभिस्तत्प्रशंसनम्।। 2 ।।
भीमदुर्योधनयोर्वीरवादपुर्वकं युद्धोद्यमः।। 3 ।।
सञ्जय उवाच। | 9-33-1x |
एवं दुर्योधने राजन्गर्जमाने मुहुर्मुहुः। युधिष्ठिरस्य सङ्क्रुद्धो वासुदेवोऽब्रवीदिदम्।। | 9-33-1a 9-33-1b |
यदी नाम ह्ययं यूद्धे वरयेत्त्वां युधिष्ठिर। अर्जुनं नकुलं चैव सहदेवमथापि वा।। | 9-33-2a 9-33-2b |
किमिदं साहसं राजंस्त्वया व्याहृतमीदृशम्। एकमेव निहत्याजौ भव राजा कुरुष्विति।। | 9-33-3a 9-33-3b |
एतेन हि कृता योग्या वर्षाणीह त्रयोदश। आयसे पुरुषे राजन्भीमसेनजिघांसया।। | 9-33-4a 9-33-4b |
कथं नाम भवेत्कार्यमस्माद्वि भरतर्षभ। साहसं कृतवांस्त्वं तु ह्यनुक्रोशान्नृपोत्तम।। | 9-33-5a 9-33-5b |
नान्यमस्यानुपश्यामि प्रतियोद्धारमाहवे। ऋते वृकोदरात्पार्थात्स च नातिकृतश्रमः।। | 9-33-6a 9-33-6b |
तदिदं द्यूतमारब्धं पुनरेव यथा पुरा। विषमं शकुनेश्चैव तव चैव विशेषतः।। | 9-33-7a 9-33-7b |
बली भीमः समर्थश्च कृती राजा सुयोधनः। बलवान्वा कृती वेति कृती राजन्विशिष्यते।। | 9-33-8a 9-33-8b |
सोऽयं राजंस्त्वया शत्रुः समे पथि निवेशितः। न्यस्तश्चात्मा सुविषमे कृच्छ्रमापादिता वयम्।। | 9-33-9a 9-33-9b |
कोऽनु सर्वान्विनिर्जित्य शत्रूनेकेन वैरिणा। [कृच्छ्रप्राप्तेन च तथा हारयेद्राज्यमागतम्।] पातितश्चैकबाणेन शोचयेदेवमाहवे।। | 9-33-10a 9-33-10b 9-33-10c |
न हि पश्यामि तं लोके योऽद्य दुर्योधनं रणे। गदाहस्तं विजेतुं वै शक्तः स्यादमरोपि हि।। | 9-33-11a 9-33-11b |
फल्गुनो वा भवान्वाथ माद्रीपुत्रावथापि वा। न समर्थानहं मन्ये गदाहस्तस्य संयुगे।। | 9-33-12a 9-33-12b |
न त्वं भीमो न नकुलः सहदेवोऽथ फल्गुनः। जेतुं न्यायेन शक्तो वै कृती राजा सुयोधनः।। | 9-33-13a 9-33-13b |
स कथं वदसे शत्रुं युध्यस्व गदयेति हि। एकं च नो निहत्याजौ भव राजेति भारत।। | 9-33-14a 9-33-14b |
वृकोदरं समासाद्य संशयो वै जये हि नः। न्यायतो युध्यमानानां कृती ह्येष महाबलः।। | 9-33-15a 9-33-15b |
[नूनं न राज्यभागेषा पाण्डोः कुन्त्याश्च सन्ततिः। अत्यन्तवनवासाय सृष्टा भैक्ष्याय वा पुनः।।] | 9-33-16a 9-33-16b |
भीमसेन उवाच। | 9-33-17x |
मधुसूदन माकार्षीविषादं यदुनन्दन। अद्य पारं गमिष्यामि वैरस्य भृशदुर्गमम्।। | 9-33-17a 9-33-17b |
अहं सुयोधनं सङ्ख्ये हनिष्यामि न संशयः। विजयो वै ध्रुवः कृष्ण धर्मराजस्य दृश्यते।। | 9-33-18a 9-33-18b |
अध्यर्धेन गुणेनेयं गदा गुरुतरी मम। न तथा धार्तराष्ट्रस्य माकार्षीर्माधव व्यथाम्।। | 9-33-19a 9-33-19b |
अनया गदयानाहं संयुगे योद्धुमुत्सहे। भवन्तः प्रेक्षकाः सर्वे मम सन्तु जनार्दन।। | 9-33-20a 9-33-20b |
सामरानपि लोकांस्त्रीन्नानाशस्त्रधरान्युधि। योधयेयं रणे कृष्ण किमुताद्य सुयोधनम्।। | 9-33-21a 9-33-21b |
सञ्जय उवाच। | 9-33-22x |
तथा सम्भाषमाणं तु वासुदेवो वृकोदरम्। हृष्टः सम्पूजयामास वचनं चेदमब्रवीत्।। | 9-33-22a 9-33-22b |
त्वामाश्रित्य महाबाहो धर्मराजो युधिष्ठिरः। निहतारिः स्वकां दीप्तां श्रियं प्राप्नोत्यसंशयम्।। | 9-33-23a 9-33-23b |
त्वया विनिहताः सर्वे धृतराष्ट्रसुता रणे। राजानो राजपुत्राश्च नागाश्च विनिपातिताः।। | 9-33-24a 9-33-24b |
कलिङ्गा मागधाः प्राच्या गान्धाराः कुरवस्तथा। त्वामासाद्य महायुद्धे निहताः पाण्डुनन्दन।। | 9-33-25a 9-33-25b |
हत्वा दुर्योधनं चापि प्रयच्छोर्वीं ससागराम्। धर्मराजाय कौन्तेय यथा विष्णुः शचीपतेः।। | 9-33-26a 9-33-26b |
त्वां च प्राप्य रणे पापो धार्तराष्ट्रो विनङ्क्ष्यति। त्वमस्य सक्थिनी भंक्त्वा प्रतिज्ञां पालयिष्यसि।। | 9-33-27a 9-33-27b |
यत्नेन ह त्वया पापो योद्धव्यो धृतराष्ट्रजः। कृती च बलवांश्चैव युद्धशौण्डश्च नित्यदा।। | 9-33-28a 9-33-28b |
ततस्तु सात्यकी राजन्पूजयामास पाण्डवम्। विविधाभिश्च तं वाग्भिर्भिमसेनं जनेश्वर।। | 9-33-29a 9-33-29b |
पाञ्चालाः पाण्डवेयाश्च धर्मराजपुरोगमाः। तद्वचो भीमसेनस्य सर्व एवाभ्यपूजयन्।। | 9-33-30a 9-33-30b |
ततो भीमबलो भीमो युधिष्ठिरमथाब्रवीत्। सृञ्जयैः सह तिष्ठन्तं तपन्तमिव भास्करम्।। | 9-33-31a 9-33-31b |
अहमेतेन सङ्गम्य संयुगे योद्धुमुत्सहे। न हि शक्तो रणे जेतुं मामेष पुरुषाधमः।। | 9-33-32a 9-33-32b |
अद्य क्रोधं विमोक्ष्यामि निहितं हृदये भृशम्। सुयोधने धार्तराष्ट्रे खाण्डवेऽग्निमिवार्जुनः।। | 9-33-33a 9-33-33b |
शल्यमद्योद्धरिष्यामि तव पाण्डव हृच्छयम्। निहते गदया पापे अद्य राजन्सुखी भव।। | 9-33-34a 9-33-34b |
अद्य कीर्तिमयीं मालां प्रितमोक्ष्ये तवानघ। प्राणाञ्श्रियं च राज्यं च मोक्ष्यतेऽद्य सुयोधनः।। | 9-33-35a 9-33-35b |
राजा च धृतराष्ट्रोऽद्य श्रुत्वा पुत्रं मया हतम्। स्मरिष्यत्यशुभं कर्म यत्तच्छकुनिबुद्धिजम्।। | 9-33-36a 9-33-36b |
इत्युक्त्वा भरतश्रेष्ठो गदामुद्यम्य वीर्यवान्। उदतिष्ठत युद्धाय शक्रो वृत्रमिवाह्वयन्।। | 9-33-37a 9-33-37b |
[तदाह्वानममृष्यन्वै तव पुत्रोऽतिवीर्यवान्। प्रत्युपस्थित एवाशु मत्तो मत्तमिव द्विपम्।। | 9-33-38a 9-33-38b |
गदाहस्तं तव सुतं युद्धाय समुपस्थितम्। ददृशुः पाण्डवाः सर्वे कैलासमिव शृङ्गिणम्]।। | 9-33-39a 9-33-39b |
तमेकाकिनमासाद्य धार्तराष्ट्रं महाबलम्। वियूथमिव मातङ्गं समहृष्यन्त पाण्डवाः।। | 9-33-40a 9-33-40b |
[न सम्भ्रमो न च भयं न च ग्लानिर्न च व्यथा। आसीद्दुर्योधनस्यापि स्थितः सिंह इवाहवे]।। | 9-33-41a 9-33-41b |
समुद्यतगदं दृष्ट्वा कैलासमिव शृङ्गियाम्। भीमसेनस्तदा राजन्दुर्योधनमथाब्रवीत्।। | 9-33-42a 9-33-42b |
राज्ञापि धृतराष्ट्रेण त्वया चास्मासु यत्कृतम्। स्मर तद्दुष्कृतं कर्मं यद्भूतं वारणावते। | 9-33-43a 9-33-43b |
द्रौपदी च परामृष्टा समामध्ये रजस्वला। द्यूते च वञ्चितो राजा शकूनेर्बुद्धिलाघवात्।। | 9-33-44a 9-33-44b |
यानि चान्यानि दुष्टात्मन्पापानि कृतवानसि। अनागासु च पार्थेषु तस्य पश्य महत्फलम्।। | 9-33-45a 9-33-45b |
त्वत्कृते निहतः शेते शरतल्पे महायशाः। याङ्गेयो भरतश्रेष्ठः सर्वेषां नः पितामहः।। | 9-33-46a 9-33-46b |
हतो द्रोणश्च कर्णश्च इतः शल्यः प्रतापवान्। वैराग्नेरादिकर्ता च शकुनिर्निहतो रणे।। | 9-33-47a 9-33-47b |
भ्रातरस्ते हताः शूराः पुत्राश्च सहसैनिकाः। राजानश्च हताः शूराः समरेष्वनिवर्तिनः।। | 9-33-48a 9-33-48b |
एते चान्ये च निहता बहवः क्षत्रियर्षभाः। प्रातिकामी तथा पापो द्रौपद्याः क्लेशकृद्धतः।। | 9-33-49a 9-33-49b |
अवशिष्टस्त्वमेवैकः कुलघ्नोऽधमपूरुषः। त्वामप्यद्य हनिष्यामि गदया नात्र संशयः।। | 9-33-50a 9-33-50b |
अद्य तेऽहं रणे दर्पं सर्वं नाशयिता नृप। राज्याशां विपुलां चापि पाण्डवेषु च दुष्कृतम्।। | 9-33-51a 9-33-51b |
दुर्योधन उवाच। | 9-33-52x |
किं कत्थितेन बहुना युध्यस्वाद्य मया सह। अद्य तेऽहं विनेष्यामि युद्धश्रद्धां वृकोदर।। | 9-33-52a 9-33-52b |
किं न पश्यसि मां पाप गदायुद्धे व्यवस्थितम्। हिमवच्छिखराकारां प्रगृह्य महतीं गदाम्।। | 9-33-53a 9-33-53b |
गदिनं कोऽद्य मां पाप हन्तुमुत्सहते रिपुः। न्यायतो युध्यमानश्च देवेष्वपि पुरन्दरः।। | 9-33-54a 9-33-54b |
मा वृथा गर्ज कौन्तेय शारदाभ्रमिवाजलम्। दर्शयस्व बलं युद्धे यावन्नासून्निहन्मि ते।। | 9-33-55a 9-33-55b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा पाण्डवाः सहसृञ्जयाः। सर्वे सम्पूजयामासुस्तद्वचो विजिगीषवः।। | 9-33-56a 9-33-56b |
उन्मत्तमिव मातङ्गं तलशब्देन मानवाः। भूयः संहर्षयामासू राजन्दुर्योधनं द्विषः।। | 9-33-57a 9-33-57b |
बृंहन्ति कुञ्जरास्तत्र हया हेषन्ति चासकृत्। शस्त्राणि सम्प्रदीप्यन्ते पाण्डवानां जयैषिणाम्।। | 9-33-58a 9-33-58b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि ह्रदप्रवेशपर्वणि त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः।। 33 ।। |
9-33-4 योग्या अभ्यासः। योग्यः प्रवीणेत्याद्युपक्रम्य स्त्र्यभ्यासार्कयोषितोरिति मेदिनी।। 9-33-7 शकुनेश्च तव च यथापुरा तथैवेदमिति सम्बन्धः।। 9-33-10 पणित्वा चैकपाणेन रोचयेदेव माहवम् इति झ.पाठः।। 9-33-33 त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः।।
शल्यपर्व-032 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शल्यपर्व-034 |