सामग्री पर जाएँ

महाभारतम्-09-शल्यपर्व-053

विकिस्रोतः तः
← शल्यपर्व-052 महाभारतम्
नवमपर्व
महाभारतम्-09-शल्यपर्व-053
वेदव्यासः
शल्यपर्व-054 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 005ब
  7. 006
  8. 007
  9. 008
  10. 009
  11. 010
  12. 011
  13. 012
  14. 013
  15. 014
  16. 015
  17. 016
  18. 017
  19. 018
  20. 019
  21. 020
  22. 021
  23. 022
  24. 023
  25. 024
  26. 025
  27. 026
  28. 027
  29. 028
  30. 029
  31. 030
  32. 031
  33. 032
  34. 033
  35. 034
  36. 035
  37. 036
  38. 037
  39. 038
  40. 039
  41. 040
  42. 041
  43. 042
  44. 043
  45. 044
  46. 045
  47. 046
  48. 047
  49. 048
  50. 049
  51. 050
  52. 051
  53. 052
  54. 053
  55. 054
  56. 055
  57. 056
  58. 057
  59. 058
  60. 059
  61. 060
  62. 061
  63. 062
  64. 063
  65. 064
  66. 065
  67. 066

वृद्धकन्याचरित्रकथनम्।। 1 ।।

जनमेजय उवाच। 9-53-1x
कथं कुमारी भगवंस्तपोयुक्ता ह्यभूत्पुरा।
किमर्थं च तपस्तेपे को वाऽस्या नियमोऽभवत्।।
9-53-1a
9-53-1b
सुदुष्करमिदं ब्रह्मंस्त्वत्तः श्रुतमनुत्तमम्।
आख्याहि तत्त्वमखिलं यथा तपसि सा स्थिता।।
9-53-2a
9-53-2b
वैशम्पायन उवाच। 9-53-3x
ऋषिरासीन्महावीर्यः कुणिर्गार्ग्यो महायशाः।
स तप्त्वा विपुलं राजंस्तपो वै तपतां वरः।
तपसाऽथ सुतां सुभ्रूं समुत्पादितवान्विभुः।।
9-53-3a
9-53-3b
9-53-3c
तां च दृष्ट्वा मुनिः प्रीतः कुणिर्गार्ग्यो महायशाः।
जगाम त्रिदिवं राजन्संत्यज्येह कलेवरम्।।
9-53-4a
9-53-4b
सुभ्रूः सा ह्यथ कल्याणी पुण्डरीकनिभेक्षणा।
महता तपसोग्रेण कृत्वाश्रममनिन्दिता।।
9-53-5a
9-53-5b
उपवासैः पूजयन्ती पितॄन्देवांश्च सा पुरा।
तस्यास्तु तपसोग्रेण महान्कालोऽत्यगान्नृप।।
9-53-6a
9-53-6b
सा पित्रा दीयमानापि पतिं नैच्छदनिन्दिता।
आत्मनः सदृशं सा तु भर्तारं नान्वपश्यत।।
9-53-7a
9-53-7b
ततः सा तपसोग्रेण पीडयित्वाऽऽत्मनस्तनुम्।
पितृदेवार्चनरता बभूव विजने वने।।
9-53-8a
9-53-8b
साऽऽत्मानं मन्यमाना तु कृतकृत्यं श्रमान्विता।
`जगाम वृद्धभावं तु कौमारब्रह्मचारिणी'।।
9-53-9a
9-53-9b
वार्धकेन च राजेन्द्र तपसा चैव कर्शिता।
सा नाशकद्यदा गन्तुं पदात्पदमपि स्वयम्।।
9-53-10a
9-53-10b
चकार गमने बुद्धिं परलोकाय वै तदा।
मोक्तुकामां तु तां दृष्ट्वा शरीरं नारदोऽब्रवीत्।।
9-53-11a
9-53-11b
असंस्कृतायाः कन्यायाः कुतो लोकास्तवानघे।
एवं तु श्रुतमस्माभिर्देवलोके महाव्रते।।
9-53-12a
9-53-12b
तपः परमकं प्राप्तं न तु लोकास्त्वया जिताः।
तन्नारदवचः श्रुत्वा साऽब्रवीदृषिसंसदि।।
9-53-13a
9-53-13b
तपसोऽर्धं प्रयच्छामि पाणिग्राहस्य सत्तमाः।
इत्युक्तेऽस्यास्तु जग्राह पाणिं गालवसम्भवः।।
9-53-14a
9-53-14b
ऋषिः प्राक् शृङ्गवान्नाम समयं चेममब्रवीत्।
समयेन तवाद्याहं पाणिं स्प्रक्ष्यामि शोभने।।
9-53-15a
9-53-15b
यद्येकरात्रं वस्तव्यं त्वया सह मयेति ह।
तथेति सा प्रतिश्रुत्य तस्मै पाणिं ददौ तदा।।
9-53-16a
9-53-16b
यथादृष्टेन विधिना हुत्वा चाग्निं विधानतः।
चक्रे च पाणिग्रहणं तस्योद्वाहं च गालविः।।
9-53-17a
9-53-17b
सा रात्रावभवद्राजंस्तरुणी वरवर्णिनी।
दिव्याभरणवस्त्रा च दिव्यगन्धानुलेपना।।
9-53-18a
9-53-18b
तां दृष्ट्वा गालविः प्रीतो दीपयन्तीमिव श्रिया।
उवास च क्षपामेकां प्रभाते साऽब्रवीच्च तम्।।
9-53-19a
9-53-19b
यस्त्वया समयो विप्र कृतो मे तपतां वर।
तेनोषिताऽस्मि भद्रं ते स्वस्ति तेऽस्तु व्रजाम्यहम्।।
9-53-20a
9-53-20b
सा तु ध्यात्वाऽब्रवीद्भूयो योऽस्मिंस्तीर्थे समाहितः।
वसते रजनीमेकां तर्पयित्वा दिवौकसः।।
9-53-21a
9-53-21b
चत्वारिंशतमष्टौ च द्वौ चाष्टौ सम्यगाचरेत्।
यो ब्रह्मचर्यं वर्षाणि फलं तस्य लभेत सः।।
9-53-22a
9-53-22b
एवमुक्त्वा ततः साध्वी देहं त्यक्त्वा दिवं गता।
ऋषिरप्यभवद्दीनस्तस्या रूपं विचिन्तयन्।।
9-53-23a
9-53-23b
समयेन तपोऽर्धं च कृच्छ्रात्प्रतिगृहीतवान्।
साधयित्वा तदाऽऽत्मानं तस्याः स गतिमाप्तवान्।
दुःखितो भरतश्रेष्ठ तस्या रूपबलात्कृतः।।
9-53-24a
9-53-24b
9-53-24c
एतत्ते वृद्वकन्याया व्याख्यातं चरितं महत्।
तथैव ब्रह्मचर्यं च स्वर्गस्य च गतिः शुभा।।
9-53-25a
9-53-25b
तत्रस्थश्चापि शुश्राव हतं शल्यं हलायुधः।। 9-53-26a
तत्रापि दत्त्वा दानानि द्विजातिभ्यः परन्तपः।
शुशोच शल्यं सङ्ग्रामे निहतं पाण्डवैस्तदा।।
9-53-27a
9-53-27b
समन्तपञ्चकद्वारात्ततो निष्क्रम्य माधवः।
पप्रच्छर्षिगणारामः कुरुक्षेत्रस्य यत्फलम्।।
9-53-28a
9-53-28b
ते पृष्टा यदुसिंहेन कुरुक्षेत्रफलं विभो
समाचख्युर्महात्मानस्तस्मै सर्वं यथातथम्।।
9-53-29a
9-53-29b
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि
ह्रदप्रवेशपर्वणि त्रिपञ्चाशतमोऽध्यायः।। 53 ।।

9-53-3 तपसा संयुता सुभ्रूः समुत्पनः इति छ. पाठः।। 9-53-22 चत्वारिंशतमष्टौ चेति। प्रतिवेदं द्वादशवर्षाणीति वेदचतुष्टयाध्ययनायाष्टाचत्वारिंशद्वर्षाणि। ततो द्वै वत्सरौ स्नातकेन गुरोरानृण्यार्थं सेवा कार्या। ततोऽष्टवार्षिकीं कन्यां परिणीय तस्या यौवनावध्यष्टवर्षाणीत्यष्टपञ्चाशद्वर्षाणि ब्रह्मचर्यं सर्वस्येष्टम्।। 9-53-24 सङ्गतिमन्वियात् इति छ. पाठः।। 9-53-53 त्रिपञ्चाशोऽध्यायः।।

शल्यपर्व-052 पुटाग्रे अल्लिखितम्। शल्यपर्व-054