महाभारतम्-09-शल्यपर्व-053
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वृद्धकन्याचरित्रकथनम्।। 1 ।।
जनमेजय उवाच। | 9-53-1x |
कथं कुमारी भगवंस्तपोयुक्ता ह्यभूत्पुरा। किमर्थं च तपस्तेपे को वाऽस्या नियमोऽभवत्।। | 9-53-1a 9-53-1b |
सुदुष्करमिदं ब्रह्मंस्त्वत्तः श्रुतमनुत्तमम्। आख्याहि तत्त्वमखिलं यथा तपसि सा स्थिता।। | 9-53-2a 9-53-2b |
वैशम्पायन उवाच। | 9-53-3x |
ऋषिरासीन्महावीर्यः कुणिर्गार्ग्यो महायशाः। स तप्त्वा विपुलं राजंस्तपो वै तपतां वरः। तपसाऽथ सुतां सुभ्रूं समुत्पादितवान्विभुः।। | 9-53-3a 9-53-3b 9-53-3c |
तां च दृष्ट्वा मुनिः प्रीतः कुणिर्गार्ग्यो महायशाः। जगाम त्रिदिवं राजन्संत्यज्येह कलेवरम्।। | 9-53-4a 9-53-4b |
सुभ्रूः सा ह्यथ कल्याणी पुण्डरीकनिभेक्षणा। महता तपसोग्रेण कृत्वाश्रममनिन्दिता।। | 9-53-5a 9-53-5b |
उपवासैः पूजयन्ती पितॄन्देवांश्च सा पुरा। तस्यास्तु तपसोग्रेण महान्कालोऽत्यगान्नृप।। | 9-53-6a 9-53-6b |
सा पित्रा दीयमानापि पतिं नैच्छदनिन्दिता। आत्मनः सदृशं सा तु भर्तारं नान्वपश्यत।। | 9-53-7a 9-53-7b |
ततः सा तपसोग्रेण पीडयित्वाऽऽत्मनस्तनुम्। पितृदेवार्चनरता बभूव विजने वने।। | 9-53-8a 9-53-8b |
साऽऽत्मानं मन्यमाना तु कृतकृत्यं श्रमान्विता। `जगाम वृद्धभावं तु कौमारब्रह्मचारिणी'।। | 9-53-9a 9-53-9b |
वार्धकेन च राजेन्द्र तपसा चैव कर्शिता। सा नाशकद्यदा गन्तुं पदात्पदमपि स्वयम्।। | 9-53-10a 9-53-10b |
चकार गमने बुद्धिं परलोकाय वै तदा। मोक्तुकामां तु तां दृष्ट्वा शरीरं नारदोऽब्रवीत्।। | 9-53-11a 9-53-11b |
असंस्कृतायाः कन्यायाः कुतो लोकास्तवानघे। एवं तु श्रुतमस्माभिर्देवलोके महाव्रते।। | 9-53-12a 9-53-12b |
तपः परमकं प्राप्तं न तु लोकास्त्वया जिताः। तन्नारदवचः श्रुत्वा साऽब्रवीदृषिसंसदि।। | 9-53-13a 9-53-13b |
तपसोऽर्धं प्रयच्छामि पाणिग्राहस्य सत्तमाः। इत्युक्तेऽस्यास्तु जग्राह पाणिं गालवसम्भवः।। | 9-53-14a 9-53-14b |
ऋषिः प्राक् शृङ्गवान्नाम समयं चेममब्रवीत्। समयेन तवाद्याहं पाणिं स्प्रक्ष्यामि शोभने।। | 9-53-15a 9-53-15b |
यद्येकरात्रं वस्तव्यं त्वया सह मयेति ह। तथेति सा प्रतिश्रुत्य तस्मै पाणिं ददौ तदा।। | 9-53-16a 9-53-16b |
यथादृष्टेन विधिना हुत्वा चाग्निं विधानतः। चक्रे च पाणिग्रहणं तस्योद्वाहं च गालविः।। | 9-53-17a 9-53-17b |
सा रात्रावभवद्राजंस्तरुणी वरवर्णिनी। दिव्याभरणवस्त्रा च दिव्यगन्धानुलेपना।। | 9-53-18a 9-53-18b |
तां दृष्ट्वा गालविः प्रीतो दीपयन्तीमिव श्रिया। उवास च क्षपामेकां प्रभाते साऽब्रवीच्च तम्।। | 9-53-19a 9-53-19b |
यस्त्वया समयो विप्र कृतो मे तपतां वर। तेनोषिताऽस्मि भद्रं ते स्वस्ति तेऽस्तु व्रजाम्यहम्।। | 9-53-20a 9-53-20b |
सा तु ध्यात्वाऽब्रवीद्भूयो योऽस्मिंस्तीर्थे समाहितः। वसते रजनीमेकां तर्पयित्वा दिवौकसः।। | 9-53-21a 9-53-21b |
चत्वारिंशतमष्टौ च द्वौ चाष्टौ सम्यगाचरेत्। यो ब्रह्मचर्यं वर्षाणि फलं तस्य लभेत सः।। | 9-53-22a 9-53-22b |
एवमुक्त्वा ततः साध्वी देहं त्यक्त्वा दिवं गता। ऋषिरप्यभवद्दीनस्तस्या रूपं विचिन्तयन्।। | 9-53-23a 9-53-23b |
समयेन तपोऽर्धं च कृच्छ्रात्प्रतिगृहीतवान्। साधयित्वा तदाऽऽत्मानं तस्याः स गतिमाप्तवान्। दुःखितो भरतश्रेष्ठ तस्या रूपबलात्कृतः।। | 9-53-24a 9-53-24b 9-53-24c |
एतत्ते वृद्वकन्याया व्याख्यातं चरितं महत्। तथैव ब्रह्मचर्यं च स्वर्गस्य च गतिः शुभा।। | 9-53-25a 9-53-25b |
तत्रस्थश्चापि शुश्राव हतं शल्यं हलायुधः।। | 9-53-26a |
तत्रापि दत्त्वा दानानि द्विजातिभ्यः परन्तपः। शुशोच शल्यं सङ्ग्रामे निहतं पाण्डवैस्तदा।। | 9-53-27a 9-53-27b |
समन्तपञ्चकद्वारात्ततो निष्क्रम्य माधवः। पप्रच्छर्षिगणारामः कुरुक्षेत्रस्य यत्फलम्।। | 9-53-28a 9-53-28b |
ते पृष्टा यदुसिंहेन कुरुक्षेत्रफलं विभो समाचख्युर्महात्मानस्तस्मै सर्वं यथातथम्।। | 9-53-29a 9-53-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि ह्रदप्रवेशपर्वणि त्रिपञ्चाशतमोऽध्यायः।। 53 ।। |
9-53-3 तपसा संयुता सुभ्रूः समुत्पनः इति छ. पाठः।। 9-53-22 चत्वारिंशतमष्टौ चेति। प्रतिवेदं द्वादशवर्षाणीति वेदचतुष्टयाध्ययनायाष्टाचत्वारिंशद्वर्षाणि। ततो द्वै वत्सरौ स्नातकेन गुरोरानृण्यार्थं सेवा कार्या। ततोऽष्टवार्षिकीं कन्यां परिणीय तस्या यौवनावध्यष्टवर्षाणीत्यष्टपञ्चाशद्वर्षाणि ब्रह्मचर्यं सर्वस्येष्टम्।। 9-53-24 सङ्गतिमन्वियात् इति छ. पाठः।। 9-53-53 त्रिपञ्चाशोऽध्यायः।।
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