महाभारतम्-09-शल्यपर्व-061
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भीमे अपनयबुद्ध्या क्रुद्धेन बलरामेण लाङ्गलमुद्यम्य तम्प्रत्यभिगमनम्।। 1 ।। कृष्णेन तत्सान्त्वनं ततो बलस्य द्वारकागमनम्।। 2 ।। युधिष्ठिरस्य कृष्णेन भीमेन च संलापः।। 3 ।।
धृतराष्ट्रा उवाच। | 9-61-1x |
अधर्मेण हतं दृष्ट्वा राजानं माधवोत्तमः। किमब्रवीत्तदा सूत बलदेवो महाबलः।। | 9-61-1a 9-61-1b |
गदायुद्धविशेषज्ञो गदायुद्धविशारदः। कृतवान्रौहिणेयो यत्तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 9-61-2a 9-61-2b |
सञ्जय उवाच। | 9-61-3x |
शिरस्यभिहतं दृष्ट्वा भीमसेनेन ते सुतम्। रामः प्रहरतां श्रेष्ठश्चुक्रोध बलवद्बली।। | 9-61-3a 9-61-3b |
ततो मध्ये नरेन्द्राणामूर्ध्वबाहुर्हलायुधः। कुर्वन्नार्तस्वरं घोरं धिग्धिग्भीमेत्युवाच ह।। | 9-61-4a 9-61-4b |
अहो धिग्यदधो नाभेः प्रहृतं धर्मविग्रहे। नैतद्दृष्टं गदायुद्धे कृतवान्यद्वृकोदरः।। | 9-61-5a 9-61-5b |
अधो नाभ्या न हन्तव्यमिति शास्त्रस्य निश्चयः। अयं तु शास्त्रमुत्सृज्य स्वच्छन्दात्सम्प्रवर्तते।। | 9-61-6a 9-61-6b |
तस्य तत्तद्ब्रुवाणस्य रोषः समभवन्महान्। [ततो राजानमालोक्य रोषसंरक्तलोचनः। बलदेवो महाराज ततो वचनमब्रवीत्।। | 9-61-7a 9-61-7b 9-61-7c |
न चैष पतितः कृष्ण केवलं मत्समोऽसमः। आश्रितस्य तु दौर्बल्यादाश्रयः परिभर्त्स्यते।।] | 9-61-8a 9-61-8b |
ततो लाङ्गलमुद्यम्य भीममभ्यद्रवद्बली।। | 9-61-9a |
तस्योर्ध्वबाहोः सदृशं रूपमासीन्महात्मनः। बहुधातुविचित्रस्य श्वेतस्येव महागिरेः।। | 9-61-10a 9-61-10b |
`भ्रातृभिः सहितो वीरैः सार्जुनैरस्त्रकोविदैः। न विव्यथे महाराज दृष्ट्वा हलधरं बली'।। | 9-61-11a 9-61-11b |
अथ रामं निजग्राह केशवो विनयान्वितः। बाहुभ्यां पीनवृत्ताभ्यां प्रयत्नाद्बलवद्बली।। | 9-61-12a 9-61-12b |
सितासितौ यदुवरौ शुशुभातेऽधिकं तदा। `सङ्गताविव राजेन्द्र कैलासाञ्जनपर्वतौ। नभोगतौ यथा राजंश्चन्द्रसूर्यौ दिनक्षये।। | 9-61-13a 9-61-13b 9-61-13c |
उवाच चैनं संरब्धं शमयन्निव केशवः।। | 9-61-14a |
आत्मवृद्धिर्मित्रवृद्धिर्मित्रमित्रोदयस्तथा। विपरीतं द्विषत्स्वेतत्षड्विधा वृद्धिरात्मनः।। | 9-61-15a 9-61-15b |
आत्मन्यपि च मित्रे च विपरीतं यदा भवेत्। तदा विद्यान्मनोग्लानिमाशु शान्तिकरो भवेत्।। | 9-61-16a 9-61-16b |
अस्माकं सहजं मित्रं पाण्डवाः शुद्धपौरुषाः। स्वकाः पितृष्वसुः पुत्रास्ते परैर्निकृता भृशम्।। | 9-61-17a 9-61-17b |
प्रतिज्ञापालनं धर्मः क्षत्रियस्येति वेत्थ तत्।। | 9-61-18a |
सुयोधनस्य गदया भक्ताऽस्म्यूरू महाहवे। इति पूर्वं प्रतिज्ञातं भीमेन हि सभातले।। | 9-61-19a 9-61-19b |
मैत्रेयेणाभिशप्तश्च पूर्वमेव महार्षिणा। ऊरू ते भेत्स्यते भीमो गदयेति परन्तप। अतो दोषं न पश्यामि मा क्रुध्यस्व प्रलम्बहन्।। | 9-61-20a 9-61-20b 9-61-20c |
यौनः स्वैः सुखहार्दैश्च सम्बन्धः सह पाण्डवैः। तेषां वृद्ध्या हि वृद्धिर्नो मा क्रुधः पुरुषर्षभ।। | 9-61-21a 9-61-21b |
वासुदेववचः श्रुत्वा सीरभृत्प्राह धर्मवित्।। | 9-61-22a |
धर्मश्च धारितः सद्भिः स च द्वाभ्यां नियच्छति। अर्थश्चाप्यतिलुब्धस्य कामश्चातिप्रसङ्गिणः।। | 9-61-23a 9-61-23b |
धर्मार्थौ धर्मकामौ च कामार्थौ चाप्यपीडयन्। धर्मार्थकामान्योऽभ्येति सोत्यन्तं सुखमश्नुते।। | 9-61-24a 9-61-24b |
तदिदं व्याकुलं सर्वं कृतं धर्मस्य पीडनात्। भीमसेनेन गोविन्द कामं त्वं तु यथाऽऽत्थ माम्।। | 9-61-25a 9-61-25b |
कृष्ण उवाच। | 9-61-26x |
अरोषणो हि धर्मात्मा सततं धर्मवत्सलः। भवान्प्रख्यायते लोके तस्मात्संशाम्य मा क्रुधः।। | 9-61-26a 9-61-26b |
प्राप्तं कलियुगं विद्वि प्रतिज्ञां पाण्डवस्य च। आनृण्यं यातु वैरस्य प्रतिज्ञायाश्च पाण्डवः। `ततः पुरुषशार्दूलो हत्वा नैकृतिकं रणे।। | 9-61-27a 9-61-27b 9-61-27c |
निकृत्या निकृतिप्रज्ञं यो हन्याद्वैरिणं रणे। अधर्मो विद्यते नात्र यद्भीमो हतवान्रिपुम्।। | 9-61-28a 9-61-28b |
युध्यमानं रणे वीरं कुरुवृष्णियशस्करम्। अनेन कर्णः सन्दिष्टः पृष्ठतो धनुरच्छिनत्।। | 9-61-29a 9-61-29b |
ततः सञ्छिन्नधन्वानं विरथं पौरुषे स्थितम्। व्यायुधीकृत्य बहवः सौभद्रमपलायिनम्।। | 9-61-30a 9-61-30b |
जन्मप्रभृति लुब्धश्च पापात्मा चैष दुर्मतिः। निहतो भीमसेनेन दुर्बुद्धिः कुलपांसनः।। | 9-61-31a 9-61-31b |
प्रतिज्ञां भीमसेनेन त्रयोदशसमार्जिताम्। किमर्थं नाभिजानाति युध्यमानो हि शत्रुभिः।। | 9-61-32a 9-61-32b |
ऊर्ध्वमाक्रम्य वेगेन जिघांसन्तं वृकोदरः। बिभेद गदया चोरू न स्थाने न च मण्डले'।। | 9-61-33a 9-61-33b |
सञ्जय उवाच। | 9-61-34x |
धर्मच्छलमिमं श्रुत्वा केशवात्स विशाम्पते। नैव प्रीतमाना रामो वचनं प्राह संसदि।। | 9-61-34a 9-61-34b |
हत्वाऽधर्मेण राजानं धर्मात्मानं सुयोधनम्। जिह्मयोधीति लोकेऽस्मिन्ख्यातिं यास्यति पाण्डवः।। | 9-61-35a 9-61-35b |
दुर्योधनोऽपि धर्मात्मा गतिं यास्यति शाश्वतीम्। ऋजुयोधी हतो राजा धर्मराष्ट्रो नराधिपः।। | 9-61-36a 9-61-36b |
युद्धदीक्षां प्रविश्याजौ रणयज्ञं वितत्य च। हुत्वाऽऽत्मानममित्राग्नौ प्राप चावभृथं यशः। `स्वर्गं गन्ता महाराजः ससुहृज्ज्ञातिबान्धवः'।। | 9-61-37a 9-61-37b 9-61-37c |
इत्युक्त्वा रथमास्थाय रौहिणेयः प्रतापवान्। श्वेताभ्रशिखराकारः प्रययौ द्वारकां प्रति।। | 9-61-38a 9-61-38b |
पाञ्चालाश्च सवार्ष्णेयाः पाण्डवाश्च विशाम्पते। रामे द्वारवतीं याते नातिप्रमनसोऽभवन्।। | 9-61-39a 9-61-39b |
ततो युधिष्ठिरं दीनं चिन्तापरमधोमुखम्। शोकोपहतसङ्कल्पं वासुदेवोऽब्रवीदिदम्।। | 9-61-40a 9-61-40b |
वासुदेव उवाच। | 9-61-41x |
धर्मराज किमर्थं त्वमधर्ममनुमन्यसे। हतबन्धोर्यदेतस्य पतितस्य विचेतसः।। | 9-61-41a 9-61-41b |
दुर्योधनस्य भीमेन मृद्यमानं शिरः पदा। उपप्रेक्षसि कस्मात्त्वं धर्मज्ञः सन्नराधिप।। | 9-61-42a 9-61-42b |
युधिष्ठिर उवाच। | 9-61-43x |
न ममैतत्प्रियं कृष्ण यद्राजानं वृकोदरः। पदा मूर्ध्न्यस्पृशत्क्रोधान्न च हृष्ये कुलक्षये।। | 9-61-43a 9-61-43b |
निकृत्या निकृता नित्यं धृतराष्ट्रसुतैर्वयम्। बहूनि परुषाण्युक्त्वा वनं प्रस्थापिता वयम्।। | 9-61-44a 9-61-44b |
भीमसेनस्य तद्दुःखमतीव हृदि वर्तते। इति सञ्चिन्त्य वार्ष्णेय मयैतत्समुपेक्षितम्।। | 9-61-45a 9-61-45b |
तस्माद्धत्वाऽकृतप्रज्ञं लुब्धं कामवशानुगम्। लभतां पाण्डवः कामं धर्मोऽधर्मोऽथवा कृतः।। | 9-61-46a 9-61-46b |
सञ्जय उवाच। | 9-61-47x |
इत्युक्तवति कौन्तेये धर्मराजे युधिष्ठिरे। वासुदेवो महाबाहुर्युधिष्ठिरमभाषत। काममस्त्वेतदिति वै कृच्छ्राद्यदुकुलोद्वहः।। | 9-61-47a 9-61-47b 9-61-47c |
इत्युक्त्वा वासुदेवोऽपि वायुपुत्रप्रियेप्सया। अन्वमोदत तत्सर्वं यद्भीमेन कृतं युधि।। | 9-61-48a 9-61-48b |
`अर्जुनोऽपि महाबाहुरप्रीतेनान्तरात्मना। नोवाच किञ्चिद्वचनं भ्रातरं साध्वसाधु वा'।। | 9-61-49a 9-61-49b |
भीमसेनोऽपि हत्वाऽऽजौ तव पुत्रममर्षणः। अभिवाद्याग्रतः स्थित्वा सम्प्रहृष्टः कृताञ्जलिः।। | 9-61-50a 9-61-50b |
प्रोवाच सुमहातेजा धर्मराजं युधिष्ठिरम्। हर्षादुत्फुल्लनयनो जितकाशी विशाम्पते।। | 9-61-51a 9-61-51b |
तवाद्य पृथिवी सर्वा क्षेमा निहतकण्टका। तां प्रशाधि महाराज स्वधर्ममनुपालय।। | 9-61-52a 9-61-52b |
यस्तु कर्ताऽस्य वैरस्य निकृत्या निकृतिप्रियः। सोऽयं विनिहतः शेते पृथिव्यं पृथिवीपते।। | 9-61-53a 9-61-53b |
दुःशासनप्रभृतयः सर्वे ते चोग्रवादिनः। राधेयः शकुनिश्चैव हताश्च तव शत्रवः।। | 9-61-54a 9-61-54b |
सेयं रत्नसमाकीर्णा मही सवनपर्वता। उपावृत्ता महाराज त्वामद्य निहतद्विषम्।। | 9-61-55a 9-61-55b |
युधिष्ठिर उवाच। | 9-61-56x |
गतो वैरस्य निधनं हतो राजा सुयोधनः। कृष्णस्य मतमास्थाय विजितेयं वसुन्धरा।। | 9-61-56a 9-61-56b |
दिष्ट्या गतस्त्वमानृण्यं मातुः कोपस्य चोभयोः। दिष्ट्या जयसि दुर्धर्ष दिष्ट्या शत्रुर्निपातितः।। | 9-61-57a 9-61-57b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि गदायुद्धपर्वणि एकषष्टितमोऽध्यायः।। 61 ।। |
9-61-15 आत्मवृद्धिः शत्रुक्षयः स्वमित्रस्य वृद्धिः शत्रुमित्रस्य क्षयः स्वमित्रमित्रस्य वृद्धिः शत्रुमित्रमित्रस्य क्षयः एवं षड्विधा आत्मनो वृद्धिः।। 9-61-16 यदि चोदात्मनो ग्लानिस्तदा शान्तिकर इति क.पाठः।। 9-61-19 भक्ता भङ्क्ष्ये।। 9-61-21 यौनः योनिनिमित्तः सम्बन्धः। अस्माकं पितामहः पाण्डवानां मातामहश्चैक इति यौनसम्बन्धः।। 9-61-22 सीरभृत् रामः।। 9-61-23 धर्मइति। नियच्छति नियममेति अर्थकामाभ्यां धर्मः सङ्कोचमेतीत्सर्थः।। 9-61-24 धर्मार्थौ कामे नापीडयन् धर्मकावर्थेनापीडयन् कामार्थौ धर्मेण चापीडयन्नित्यर्थः।। 9-61-25 कामं यथेष्टं त्वं मां प्रति उक्तवानसि नतु धर्म्ये।। 9-61-27 कलियुगारम्भे एतावत्पापं नातीव खेदावहमिति भावः।। 9-61-41 अधर्ममनुपश्यसीति क.छ.पाठः।। 9-61-46 धर्मोऽधर्मे च वा कृते इति झ.पाठः।। 9-61-62 एकषष्टितमोऽध्यायः।।
शल्यपर्व-060 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शल्यपर्व-062 |