महाभारतम्-09-शल्यपर्व-052
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दधीचिसारस्वतयोश्चरितवर्णनम्।। 1 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 9-52-1x |
यत्रेजिवानुडुपती राजसूयेन भारत। यस्मिन्वृत्ते महानासीत्सङ्ग्रामस्तारकामयः।। | 9-52-1a 9-52-1b |
तत्राप्युपस्पृश्य बलो दत्त्वा दानानि चात्मवान्। सारस्वतस्य धर्मात्मा मुनेस्तीर्थं जगाम ह।। | 9-52-2a 9-52-2b |
यत्र द्वादशवार्षिक्यामनावृष्ट्यां द्विजोत्तमान्। वेदानध्यापयामास पुरा सारस्वतो मुनिः।। | 9-52-3a 9-52-3b |
जनमेजय उवाच। | 9-52-4x |
कथं द्वादशवार्षिक्यामनावृष्ट्यां द्विजोत्तमान्। वेदानध्यापयामास पुरा सारस्वतो मुनिः।। | 9-52-4a 9-52-4b |
वैशम्पायन उवाच। | 9-52-5x |
आसीत्पूर्वं महाराज मुनिर्धीमान्महातपाः। दधीचिरिति विख्यातो ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः।। | 9-52-5a 9-52-5b |
तस्यातितपसः शक्रो बिभेति सततं विभो। न स लोभयितुं शक्यः फलैर्बहुविधैरपि।। | 9-52-6a 9-52-6b |
प्रलोभनार्थं तस्याथ प्राहिणोत्पाकशासनः। दिव्यामप्सरसं पुण्यां दर्शनीयामलम्बुसाम्।। | 9-52-7a 9-52-7b |
तस्य तर्पयतो देवान्सरस्वत्यां महात्मनः। समीपतो महाराज सोपातिष्ठत भामिनी।। | 9-52-8a 9-52-8b |
तां दिव्यवपुषं दृष्ट्वा तस्यर्षेर्भावितात्मनः। रेतः स्कन्नं सरस्वत्यां तस्मा जग्राह निम्नगा।। | 9-52-9a 9-52-9b |
कुक्षौ चाप्यदधद्वृष्टा तद्रेतः पुरुषर्षभ। सा दधार च तं गर्भं पुत्रहेतोर्महात्मनः।।थ | 9-52-10a 9-52-10b |
सुषुवे चापि समये पुत्रं सारस्वतं वरम्। जगाम पुत्रमादाय तमृषिं प्रति च प्रभो।। | 9-52-11a 9-52-11b |
ऋषिसंसदि तं दृष्ट्वा सा नदी मुनिसत्तमम्। ततः प्रोवाच राजेन्द्र ददती पुत्रमस्य तम्। ब्रह्मर्षे तव पुत्रोऽयं त्वद्भक्त्या धारितो मया।। | 9-52-12a 9-52-12b 9-52-12c |
दृष्ट्वा तेऽप्सरसं रेतो यत्स्कन्नं प्रागलम्बुसाम्। तत्कुक्षिणाऽहं ब्रह्मर्षे त्वद्भक्त्या धृतवत्यहम्।। | 9-52-13a 9-52-13b |
न विनाशमिदं गच्छेत्त्वत्तेज इति निश्चयात्। प्रतिगृह्णीष्व पुत्रं स्वं मया दत्तमनिन्दितम्।। | 9-52-14a 9-52-14b |
इत्युक्तः प्रतिजग्राह प्रीतिं चावाप पुष्कलाम्। पितृवच्चोपजिघ्रत्तं मूर्ध्नि प्रेम्णा द्विजोत्तमः।। | 9-52-15a 9-52-15b |
परिष्वज्य चिरं कालं तदा भरतसत्तम। सरस्वत्यै वरं प्रादात्प्रीयमाणो महामुनिः।। | 9-52-16a 9-52-16b |
विश्वेदेवाः सपितरो गन्धर्वाप्सरसां गणाः। तृप्तिं यास्यन्ति सुभगे तर्प्यमाणास्तवाम्भसा।। | 9-52-17a 9-52-17b |
इत्युक्त्वा स तु तुष्टाव वचोभिर्वै महानदीम्। प्रीतः परमहृष्टात्मा यथावच्छृणु पार्थिव।। | 9-52-18a 9-52-18b |
दधीचिरुवाच। | 9-52-19x |
प्रस्रुताऽसि महाभागे सरसो ब्रह्मणः पुरा। जानन्ति त्वां सरिच्छ्रेष्ठे मुनयः संशितव्रताः।। | 9-52-19a 9-52-19b |
मम प्रियकरी चापि सततं प्रियदर्शने। तस्मात्सारस्वतं पुत्रमदधा वरवर्णिनि।। | 9-52-20a 9-52-20b |
तवैव नाम्ना प्रथितः पुत्रस्ते लोकभावनः। सारस्वत इति ख्यातो भविष्यति महातपाः।। | 9-52-21a 9-52-21b |
एष द्वादशवार्षिक्यामनावृष्ट्यां द्विजर्षभान्। सारस्वतो महाभागे वेदानध्यापयिष्यति।। | 9-52-22a 9-52-22b |
पुण्याभ्यश्च सरिद्भ्यस्त्वं सदा पुण्यतमा शुभे। भविष्यसि महाभागे मत्प्रसादात्सरस्वति।। | 9-52-23a 9-52-23b |
एवं स्त संस्तुता तेन वरं लब्ध्वा महानदी। पुत्रमादाय मुदिता जगाम भरतर्षभ।। | 9-52-24a 9-52-24b |
एतस्मिन्नेव काले तु विरोधे देवदानवैः। शक्रः प्रहरणान्विषी लोकांस्त्रीन्विचचार ह।। | 9-52-25a 9-52-25b |
न चोपलेभे भगवाञ्शक्रः प्रहरणं तदा। यद्वै तेषां भवेद्योग्यं वधाय विबुधद्विषाम्।। | 9-52-26a 9-52-26b |
ततोऽब्रवीत्सुराञ्शक्रो न मे शक्याः सुरारयः। ऋतेऽस्थिभिर्दधीचस्य निहन्तुं त्रिदशद्विषः।। | 9-52-27a 9-52-27b |
तस्माद्यत्नादृषिश्रेष्ठो याच्यतां कार्यसिद्धये। दधीचास्थीनि देहीति तैर्वधिष्यामहे रिपून्।। | 9-52-28a 9-52-28b |
स च तैर्याचितोऽस्थीनि यत्नादृषिवरस्तदा। साहाय्यं नः कुरुष्वेति चकारैवाविचारयन्।। | 9-52-29a 9-52-29b |
स लोकानक्षयान्प्राप्तो देवप्रियकरस्तदा। तस्यास्थिभिरथो शक्रः सम्प्रहृष्टमनास्तदा।। | 9-52-30a 9-52-30b |
कारयामास दिव्यानि नानाप्रहरणान्युत। गदा वज्राणि चक्राणि गुरून्दण्डांश्च पुष्कलान्।। | 9-52-31a 9-52-31b |
स हि तीव्रेण तपसा सम्भृतः परमर्षिणा। प्रजापतिसुतेनाथ भृगुणा लोकभावनः।। | 9-52-32a 9-52-32b |
अतिकायः स तेजस्वी लोकसारो विनिर्मितः। जज्ञे शैलगुरुः प्रांशुर्महिम्ना प्रथितः प्रभुः।। | 9-52-33a 9-52-33b |
नित्यमुद्विजते चास्य तेजसः पाकशासनः।। | 9-52-34a |
तेन वज्रेण भगवान्मन्त्रयुक्तेन भारत। भृशं क्रोधविसृष्टेन ब्रह्मतेजोद्भवेन च। दैत्यदानववीराणां जघान नवतीर्नव।। | 9-52-35a 9-52-35b 9-52-35c |
अथ काले व्यतिक्रान्ते महत्यतिभयङ्करी। अनावृष्टिरनुप्राप्ता राजन्द्वादशवार्षिकी।। | 9-52-36a 9-52-36b |
तस्यां द्वादशवार्षिक्यामनावृष्ट्यां महर्षयः। वृत्त्यर्थं प्राद्रवन्राजन्क्षुधार्ताः सर्वतोदिशम्।। | 9-52-37a 9-52-37b |
दिग्भ्यस्तान्प्रद्रुतान्दृष्ट्वा मुनिः सारस्वतस्तदा। गमनाय मतिं चक्रे तं प्रोवाच सरस्वती।। | 9-52-38a 9-52-38b |
न गन्तव्यमितः पुत्र तवाहारमहं सदा। दास्यामि मत्स्यप्रवरानुष्यतामिह भारत।। | 9-52-39a 9-52-39b |
इत्युक्तस्तर्पयामास स पितॄन्देवतास्तथा। आहारमकरोन्नित्यं प्राणान्वेदांश्च धारयन्।। | 9-52-40a 9-52-40b |
अथ तस्यामनावृष्ट्यामतीतायां महर्षयः। अन्योन्यं परिपप्रच्छुः पुनः स्वाध्यायकारणात्।। | 9-52-41a 9-52-41b |
तेषां क्षुधापरीतानां नष्टा देवा विधावताम्। सर्वेषामेव राजेन्द्र न किचित्प्रतिभाति ह।। | 9-52-42a 9-52-42b |
अथ कश्चिदृषिस्तेषां सारस्वतमुपेयिवान्। कुर्वाणं संशितात्मानं स्वाध्यायमृषिसत्तमम्।। | 9-52-43a 9-52-43b |
स गत्वाऽचष्ट तेभ्यश्च सारस्वतमृषिं प्रभुम्। स्वाध्यायममरप्रख्यं कुर्वाणं विजने वने।। | 9-52-44a 9-52-44b |
ततः सर्वे समाजग्मुस्तत्र राजन्महर्षयः। सारस्वतं मुनिश्रेष्ठमिदमूचुः समागताः।। | 9-52-45a 9-52-45b |
अस्मानध्यापयस्वेति तानुवाच ततो मुनिः। शिष्यत्वमुपागच्छध्वं विधिना च ममेत्युत।। | 9-52-46a 9-52-46b |
तत्राब्रुवन्मुनिगणा बालस्त्वमसि पुत्रक। स तानाह न मे धर्मो नश्येदिति पुनर्मुनीन्।। | 9-52-47a 9-52-47b |
यो ह्यधर्मेण वै ब्रूयाद्गृह्णीयाद्योऽप्यधर्मतः। म्रियेतां तावुभौ क्षिप्रं स्यातां वा वैरिणावुभौ।। | 9-52-48a 9-52-48b |
न हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न बन्धुभिः। ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः स नो महान्।। | 9-52-49a 9-52-49b |
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य मनुयस्ते विधानतः। तस्माद्वेदाननुप्राप्य पुनर्धर्मं प्रचक्रिरे।। | 9-52-50a 9-52-50b |
षष्टिर्मुनिसहस्राणि शिष्यत्वं प्रतिपेदिरे। सारस्वतस्य विप्रर्षेर्वेदस्वाध्यायकारणात्।। | 9-52-51a 9-52-51b |
मुष्टिं मुष्टिं ततः सर्वे दर्भाणां ते ह्युपाहरन्। तस्यासनार्थं विप्रर्षेर्बालस्यापि वशे स्थिताः।। | 9-52-52a 9-52-52b |
तत्रापि दत्त्वा वसु रौहिणेयो महाबलः केशवपूर्वजोऽथ जगाम तीर्थं मुदितः क्रमेण तं वृद्धकन्याश्रममे व वीरः।। | 9-52-53a 9-52-53b 9-52-53c 9-52-53d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि ह्रदप्रवेशपर्वणि द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 52 ।। |
9-52-5 दधीच इति इति छ.झ.पाठः।। 9-52-12 ऋषिसंसादितं दृष्ट्वेति क.छ.पाठः। तत्र संसादितं परिवारितमित्यर्थः।। 9-52-28 दधीचोऽस्थीनीति छ.पाठः।। 9-52-29 प्राणत्यागं कुरुश्रेष्ठ चकारैवाविचारयषिति झ.पाठः।। 9-52-34 अस्य मुनेः।। 9-52-35 तेन तदस्थिजेन वज्रेण नवतीर्नव दशाधिकां अष्टशतीम।। 9-52-52 द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।
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