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महाभारतम्-09-शल्यपर्व-055

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महाभारतम्-09-शल्यपर्व-055
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मित्रावरुणाश्रमे नारदाद्भीमदुर्योधनयोर्गदायुद्धोपक्रमश्राविणा बलरामेण तद्दिदृक्षया कुरुक्षेत्रं प्रत्यागमनम्।। 1 ।।

वैशम्पायन उवाच। 9-55-1x
कुरुक्षेत्रं ततो दृष्ट्वा दत्त्वा देयांश्च सात्वतः।
आश्रमं सुमहत्पुण्यमगमज्जनमेजय।।
9-55-1a
9-55-1b
मधूकाम्रवणोपेतं प्लुक्षन्यग्रोधसङ्कुलम्।
चिरबिल्वयुतं पुण्यं पनसार्जुनसङ्कुलम्।।
9-55-2a
9-55-2b
तं दृष्ट्वा यादवश्रेष्ठः प्रवरं पुण्यलक्षणम्।
पप्रच्छ तानृषीन्सर्वान्कस्याश्रमवरस्त्वयम्।।
9-55-3a
9-55-3b
ते तु सर्वे महात्मानमूचू राजन्हलायुधम्।
शृणु विस्तरशो राम यस्यायं पूर्वमाश्रमः।।
9-55-4a
9-55-4b
अत्र विष्णुः पुरा देवस्तप्तवांस्तप उत्तमम्।
अत्रास्य विधिवद्यज्ञाः सर्वे वृत्ताः सनातनाः।।
9-55-5a
9-55-5b
अत्रैव ब्राह्मणी वृद्वा कौमारब्रह्मचारिणी।
योगयुक्ता दिवं याता तपोयुक्ता विशाम्पते।।
9-55-6a
9-55-6b
बभूव श्रीमती राजञ्शाण्डिल्यस्य महात्मनः।
सुता धृतव्रता साध्वी नियता ब्रह्मचारिणी।।
9-55-7a
9-55-7b
साऽपि प्राप्य परं योगं गता स्वर्गमनुत्तमम्।
भुक्त्वाऽश्रमेऽश्वमेधस्य फलं फलवतः शुभम्।।
9-55-8a
9-55-8b
गता स्वर्गं महाराज पूजिता च महात्मभिः।
अभिगम्याश्रमं पुण्यं स दृष्ट्वा यदुनन्दनः।।
9-55-9a
9-55-9b
ऋषींस्तानभिवाद्याथ पार्श्वे हिमवतोऽच्युतः।
सन्ध्याकार्याणि सर्वाणि निर्वर्त्यारुरुहेऽचलम्।।
9-55-10a
9-55-10b
नातिदूरं ततो गत्वा नगं तालध्वजो बली।
पुण्ये तीर्थवरे स्नात्वा विस्मयं परमं गतः।।
9-55-11a
9-55-11b
प्रभवं च सरस्वत्याः प्लक्षप्रस्रवणं बलः।
सम्प्राप्तः कारपचनं तीर्थप्रवरमुत्तमम्।।
9-55-12a
9-55-12b
हलायुधस्तु तत्रापि दत्त्वा दानं महाबलः।
आप्लुतः सलिले पुण्ये सुशीते विमले शुचौ।
सन्तर्पयामास पितॄन्देवांश्च रणदुर्मदः।।
9-55-13a
9-55-13b
9-55-13c
तत्रोष्यैकां तु रजनीं यतिभिर्ब्राह्मणैः सह।
मित्रावरुणयोः पुण्यं जगामाश्रममच्युतः।।
9-55-14a
9-55-14b
इन्द्रोऽग्निरर्यमा चैव यत्र प्राक् प्रीतिमाप्नुवम्।
तं देशं कारपचनात्स तस्मादाजगामह।।
9-55-15a
9-55-15b
स्नात्वा तत्र च धर्मात्मा परां प्रीतिमवाप्य च।
ऋषिभिश्चैव सिद्धैश्च सहितो वै महाबलः।
उपविष्टः कथाः शुभ्राः शुश्राव यदुपुङ्गवः।।
9-55-16a
9-55-16b
9-55-16c
तथा तु तिष्ठतां तेषां नारदो भगवानृषिः।
आजगामाथ तं देशं यत्र रामो व्यवस्थितः।।
9-55-17a
9-55-17b
जटामण्डलसंवीतः कुशचीरी महातपाः।
हेमदण्डधरो राजन्कमण्डलुधरस्तथा।।
9-55-18a
9-55-18b
महतीं सुखशब्दां तां गृह्य वीणां मनोरमाम्।
नृत्ये गीते च कुशलो देवब्राह्मणपूजितः।।
9-55-19a
9-55-19b
प्रभवः कलहानं च नित्यं च कलहप्रियः।
तं देशमगमद्यत्र श्रीमान्रामो व्यवस्थितः।।
9-55-20a
9-55-20b
प्रत्युत्थाय च तं रामः पूजयित्वा यतव्रतम्।
देवर्षिं पर्यपृच्छत्स यथावृत्तं कुरून्प्रति।।
9-55-21a
9-55-21b
तदाऽस्याकथयद्राजन्नारदः सर्ववेदवित्।
सर्वमेतद्यथावृत्तमतीतं कुरुसंक्षयम्।।
9-55-22a
9-55-22b
ततोऽब्रवीद्रौहिणेयो नारदं दीनया गिरा।
किमवस्थं तु तत्क्षत्रं ये तु तत्राभवन्नृपाः।।
9-55-23a
9-55-23b
श्रुतमेतन्मया पूर्वं सर्वमेव तपोधन।
विस्तरश्रवणे जातं कौतूहलमतीव मे।।
9-55-24a
9-55-24b
नारद उवाच। 9-55-25x
पूर्वमेव हतो भीष्मो द्रोणः सिन्धुपतिस्तथा।
हतो वैकर्तनः कर्णः पुत्राश्चास्य महारथाः।।
9-55-25a
9-55-25b
भूरिश्रवा रौहिणेय मद्रराजश्च वीर्यवान्।
एते चान्ये च बहवो हतास्तत्र महाबलाः।।
9-55-26a
9-55-26b
प्रियान्प्राणान्परित्यज्य प्रियार्थं कौरवस्य वै।
राजानो राजपुत्राश्च समरेष्वनिवर्तिनः।।
9-55-27a
9-55-27b
अहतांस्तु महाबाहो शृणु मे तत्र माधव।। 9-55-28a
धार्तराष्ट्रबले शेषास्त्रयः समितिमर्दनाः।
कृपश्च कृतवर्मा च द्रोणपुत्रश्च वीर्यवान्।
तेऽपि वै विद्रुता राम दिशो दश भयात्तदा।।
9-55-29a
9-55-29b
9-55-29c
दुर्योधनो हते सैन्ये विद्रुतेषु पदातिषु।
हदं द्वैपायनं नाम विवेश भृशदुःखितः।।
9-55-30a
9-55-30b
शयानं धार्तराष्ट्रं तु सलिले स्तम्भिते तदा।
पाण्डवाः सह कृष्णेन वाग्भिरुग्राभिरार्दयन्।।
9-55-31a
9-55-31b
स तुद्यमानो बलवान्वाग्भी राम समन्ततः।
उत्थितः स हदाद्वीरः प्रगृह्य महतीं गदाम्।।
9-55-32a
9-55-32b
स चाप्युपागतो योद्धुं भीमेन सह साम्प्रतम्।
भविष्यति तयोरद्य युद्धं राम सुदारुणम्।।
9-55-33a
9-55-33b
यदि कौतूहलं तेऽस्ति व्रज माधव मा चिरम्।
पश्य युद्धं महाघोरं शिष्ययोर्यदि मन्यसे।।
9-55-34a
9-55-34b
वैशम्पायन उवाच। 9-55-35x
नारदस्य वचः श्रुत्वा तानभ्यर्च्य द्विजर्षभान्।
सर्वान्विसर्जयामास ये तेनाभ्यागताः सह।
गम्यतां द्वारकां चेति सोऽन्वशादनुयायिनः।।
9-55-35a
9-55-35b
9-55-35c
सोऽवतीर्याचलश्रेष्ठात्प्लक्षप्रस्रवणाच्छुभात्।
ततः प्रीतमनाः रामः श्रुता तीर्थफलं महत्।
विप्राणां सन्निधौ श्लोकमगायदिममच्युतः।।
9-55-36a
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9-55-36c
सरस्वतीवाससमा कुतो रतिः
सरस्वतीवाससमाः कुतो गुणाः।
सरस्वतीं प्राप्य दिवं गता जनाः
सदा स्मरिष्यन्ति नदीं सरस्वतीम्।।
9-55-37a
9-55-37b
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9-55-37d
सरस्वती सर्वनदीषु पुण्या
सरस्वती लोकशुभावहा सदा।
सरस्वतीं प्राप्य जनाः सुदुष्कृतं
सदा न शोचन्ति परत्र चेह च।।
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9-55-38c
9-55-38d
ततो मुहुर्मुहुः प्रीत्या प्रेक्षमाणः सरस्वतीम्।
हयैर्युक्तं रथं शुभ्रमारुरोह परन्तपः।।
9-55-39a
9-55-39b
स शीघ्रगामिना तेन रथेन यदुपुङ्गवः।
दिदृक्षुरभिसम्प्राप्तः शिष्ययुद्वमुपस्थितम्।।
9-55-40a
9-55-40b
एवं तदभवद्युद्वं तुमुलं जनमेजयं।
यत्र दुःखान्वितो राजा धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम्।।
9-55-41a
9-55-41b
धृतराष्ट्र उवाच। 9-55-42x
राम सन्निहितं श्रुत्वा गदायुद्ध उपस्थिते।
मम पुत्रः कथं भीमं प्रत्ययुध्यत सञ्जय।।
9-55-42a
9-55-42b
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि
ह्रदप्रवेशपर्वणि पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 55 ।।
समाप्तं हदप्रवेशपर्व।। 2 ।।

9-55-10 स्कन्धावाराणि सर्वाणीति क.ङ.छ.पाठः।। 9-55-12 प्लक्षप्रस्रवणं विलमिति क.पाठः।। 9-55-19 कच्छपीं सुखशब्दां तामिति क.छ.झ.पाठः।। 9-55-30 दुर्योधनो हते शल्ये विद्रुतेषु कृपादिषु इति झ.पाठः।। 9-55-38 सरस्वतीं हीनविदेशवासिनः सदा रमरिष्यन्ति इति ङ.पाठः। सरस्वतीहीनविदेशवासिनः इति क.पाठः।। 9-55-55 पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।

शल्यपर्व-054 पुटाग्रे अल्लिखितम्। शल्यपर्व-056