महाभारतम्-09-शल्यपर्व-032
पठन सेटिंग्स
← शल्यपर्व-031 | महाभारतम् नवमपर्व महाभारतम्-09-शल्यपर्व-032 वेदव्यासः |
शल्यपर्व-033 → |
युधिष्ठिरकटुभाषणरुष्टेन सुयोधनेन गदयासह हदादुत्थानम्।। 1 ।।
युधिष्ठिरदुर्योधनयोः संवादः।। 2 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 9-32-1x |
एवं सन्तर्ज्यमानस्तु मम पुत्रो महीपतिः। प्रकृत्या मन्युमान्वीरः कथमासीत्परन्तपः।। | 9-32-1a 9-32-1b |
न हि सन्तर्जना तेन श्रुतपूर्वा कथञ्चन। राजभावेन मान्यश्च सर्वलोकस्य सोऽभवत्।। | 9-32-2a 9-32-2b |
[यस्यातपत्रच्छायापि स्वका भानोस्तथा प्रभा। खेदायैवाभिमानित्वात्सहेत्सैवं कथं गरिः।।] | 9-32-3a 9-32-3b |
इयं च पृथिवी सर्वा सम्लेच्छाटविका भृशम्। प्रसादाद्भ्रियते यस्य प्रत्यक्षं तव सञ्जय।। | 9-32-4a 9-32-4b |
स तथा तर्ज्यमानस्तु पाण्डुपुत्रैर्विशेषतः। विहीनश्च स्वकैर्भृत्यैर्निर्जिते चावृतो भृशम्।। | 9-32-5a 9-32-5b |
स श्रुत्वा कटुका वाचो जययुक्ताः पुनःपुनः। किमब्रवीत्पाण्डवेयांस्तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 9-32-6a 9-32-6b |
सञ्जय उवाच। | 9-32-7x |
तर्ज्यमानस्तदा राजन्नुदकस्थस्तवात्मजः। युधिष्ठिरेण राजेन्द्र भ्रातृभिः सहितेन ह।। | 9-32-7a 9-32-7b |
श्रुत्वा स कटुका वाचो विषमस्थो नराधिपः। दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य सलिलस्थः पुनःपुनः।। | 9-32-8a 9-32-8b |
सलिलान्तर्गतो राजा धुन्वन्हस्तौ पुनःपुनः। मनश्चकार युद्धाय राजानं चाभ्यभाषत।। | 9-32-9a 9-32-9b |
यूयं ससुहृदः पार्थाः सर्वे सरथवाहनाः। अहमेकः परिद्यूनो विरथो हतवाहनः।। | 9-32-10a 9-32-10b |
आत्तशस्त्रै रथोपेतैर्बहुभिः परिवास्तिः। कथमेकः पदातिः सन्नशस्त्रो योद्धुमुत्सह।। | 9-32-11a 9-32-11b |
एकैकशश्च मां यूयं योधयध्वं युधिष्ठिर। न ह्येको बहुभिर्वीरैर्न्याय्यो योधयितुं युधि।। | 9-32-12a 9-32-12b |
विशेषतो विकवचः श्रान्तश्चापत्समाश्रितः। भृशं विक्षतगात्रश्च श्रान्तवाहनसैनिकः।। | 9-32-13a 9-32-13b |
न मे त्वत्तो भयं राजन्न च पार्थाद्वृकोदरात्। फल्गुनाद्वासुदेवाद्वा पाञ्चालेभ्योऽथवा पुनः।। | 9-32-14a 9-32-14b |
यमाभ्यां युयुधानाद्वा ये चान्ये तव सैनिकाः। एकः सर्वानहं क्रुद्धो वारयिष्ये युधि स्थितः।। | 9-32-15a 9-32-15b |
धर्ममूला सतां कीर्तिर्मनुष्याणां जनाधिप। धर्मं चैवेह कीर्तिं च पालयन्प्रब्रवीम्यहम्।। | 9-32-16a 9-32-16b |
अहमुत्थाय सर्वान्वै प्रतियोत्स्यामि संयुगे। अन्वभ्याशं गतान्सर्वान्निहनिष्यामि भारत।। | 9-32-17a 9-32-17b |
अद्य वः सरथान्साश्वानशस्त्रो विरथोऽपि सन्। नक्षत्राणीव सर्वाणि सविता रात्रिसंक्षये।। | 9-32-18a 9-32-18b |
तेजसा नाशयिष्यामि स्थिरीभवत पाण्डवाः। अद्यानृण्यं गमिष्यामि क्षत्रियाणां यशस्विनां।। | 9-32-19a 9-32-19b |
बाह्लीकद्रोणभीष्माणां कर्णस्य च महात्मनः। जयद्रथस्य शूरस्य भगदत्तस्य चोभयोः।। | 9-32-20a 9-32-20b |
मद्रराजस्य शल्यस्य भूरिश्रवस एव च। पुत्राणां भरतश्रेष्ठ शकुनेः सौबलस्य च।। | 9-32-21a 9-32-21b |
मेत्राणां सुहृदां चैव बान्धवानां तथैव च। प्रानृण्यमद्य गच्छामि हत्वा त्वां भ्रातृभिः सह।। | 9-32-22a 9-32-22b |
सञ्जय उवाच। | 9-32-23x |
एतावदुक्त्वा वचनं विरराम जनाधिपः। `सलिलान्तर्गतः श्रीमान्पुत्रो दुर्योधनस्तव।।' | 9-32-23a 9-32-23b |
युधिष्ठिर उवाच। | 9-32-24x |
दिष्ट्या त्वमपि जानीषे क्षत्रधर्मं सुयोधन। दिष्ट्या ते वर्तते बुद्धिर्युद्धायैव महाभुज।। | 9-32-24a 9-32-24b |
दिष्ट्या शूरोऽसि गान्धारे दिष्ट्या जानासि सङ्गरम्। यस्त्वमेको हि नः सर्वान्सङ्गरे योद्भुमिच्छसि।। | 9-32-25a 9-32-25b |
एक एकेन सङ्गम्य यत्ते सम्मतमायुधम्। तत्त्वमादाय युध्यस्व प्रेक्षकास्ते वयं स्थिताः।। | 9-32-26a 9-32-26b |
अयमिष्टं च ते कामं वीर भूयो ददाम्यहम्। हत्वैकं भव नो राजा हतो वा स्वर्गमाप्नुहि।। | 9-32-27a 9-32-27b |
दुर्योधन उवाच। | 9-32-28x |
एकश्चेद्योद्भुमाक्रन्दे वरोऽद्य मम दीयताम्। आयुधानामियं चापि मता मे सतं गदा।। | 9-32-28a 9-32-28b |
भ्रातणां भवतामेकः शक्यं मां योऽभिमन्यते। पदातिर्गदया सङ्ख्ये स युध्यतु मया सह।। | 9-32-29a 9-32-29b |
वृत्तानि रथयुद्धानि विचित्रामि पदेपदे। इदमेकं गदायुद्धं भवत्वद्याद्भुतं महत्।। | 9-32-30a 9-32-30b |
अन्नानामपि पर्यायं कर्तुमिच्छन्ति मानवाः। युद्धानामपि पर्यायो भवत्वनुमते तव।। | 9-32-31a 9-32-31b |
गदया त्वां महाबाहो विजेष्यामि सहानुजम्। पाञ्चालान्सृञ्जयांश्चैव ये चान्ये तव सैनिकाः। न हि मे सम्भ्रामो जातु शक्रादपि युधिष्ठिर।। | 9-32-32a 9-32-32b 9-32-32c |
युधिष्ठिर उवाच। | 9-32-33x |
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गान्धारे मां योधय सुयोधन। एक एकेन सङ्गम्य संयुगे गदया बली।। | 9-32-33a 9-32-33b |
पुरुषो भव गान्धारे युध्यस्व सुसमाहितः। अद्य ते जीवितं नास्ति यदीन्द्रोपि तवाश्रयः।। | 9-32-34a 9-32-34b |
सञ्जय उवाच। | 9-32-35x |
एतत्स नरशार्दूलो नामृष्यत तवात्मजः। सलिलान्तर्गतः श्वभ्रे महानाग इव श्वसन्।। | 9-32-35a 9-32-35b |
तथाऽसौ वाक्प्रतोदेन तुद्यमानः पुनःपुनः। वचो न ममृषे राजन्नुत्तमाश्वः कशामिव।। | 9-32-36a 9-32-36b |
सङ्क्षोभ्य सलिलं वेगाद्गदामादाय वीर्यवान्। अद्रिसारमयीं गुर्वीं काञ्चनाङ्गदभूषणाम्। अन्तर्जलात्समुत्तस्थौ नागेन्द्र इव निःश्वसन्।। | 9-32-37a 9-32-37b 9-32-37c |
स भित्त्वा स्तम्भितं तोयं स्कन्धे कृत्वायसीं गदाम्। उदतिष्ठत पुत्रस्ते प्रतपन्रश्मिवानिव।। | 9-32-38a 9-32-38b |
ततः शैक्यायसीं गुर्वी जातरूपपरिष्कृताम्। गदां परामृशद्धीमान्धार्तराष्ट्रो महाबलः।। | 9-32-39a 9-32-39b |
गदाहस्तं तु तं दृष्ट्वा सशृङ्गमिव पर्वतम्। प्रजानामिव सङ्क्रुद्धं शूलपाणिमिव स्थितम्।। | 9-32-40a 9-32-40b |
*सगदो भारतो भाति प्रतपन्भास्करो यथा*।। | 9-32-41a |
तमुत्तीर्णं महाबाहुं गदाहस्तमरिन्दमम्। मेनिरे सर्वभूतानि दण्डपाणिमिवान्तकम्।। | 9-32-42a 9-32-42b |
वज्रहस्तं यथा शक्रं शूलहस्तं यथा हरम्। ददृशुः शर्वपाञ्चालाः पुत्रं तव जनाधिप।। | 9-32-43a 9-32-43b |
तमुत्तीर्णं तु सम्प्रेक्ष्य समहृष्यन्त सर्वशः। पाञ्चालाः पाण्डवेयाश्च तेऽन्योन्यस्य तलान्ददुः।। | 9-32-44a 9-32-44b |
अवहासं तु तं मत्वा पुत्रो दुर्योधनस्तव। उद्वृत्य नयने क्रुद्धो दिधक्षुरिव पाण्डवान्।। | 9-32-45a 9-32-45b |
त्रिशिखां भ्रुकुटीं कृत्वा सन्दष्टदशनच्छदः। प्रत्युवाच ततस्तान्वै पाण्डवान्सह केशवान्।। | 9-32-46a 9-32-46b |
दुर्योधन उवाच। | 9-32-47x |
अस्यावहासस्य फलं प्रतिमोक्ष्यथ पाण्डवाः। गमिष्यथ हताः सद्यः सपाञ्चाला यमक्षयम्।। | 9-32-47a 9-32-47b |
उत्थिन्तश्च जलात्तस्मात्पुत्रो दुर्योधनस्तव। अतिष्ठत गदापाणी रुधिरेण समुक्षितः।। | 9-32-48a 9-32-48b |
तस्य शोणितदिग्धस्य सलिलेन समुक्षितम्। शरीरं स्म तदा भाति स्रवन्निव महीधारः।। | 9-32-49a 9-32-49b |
तमुद्यतगदं वीरं मेनिरे तत्र पाण्डवाः। वैवस्वतमिव क्रुद्धं शूलपाणिमिव स्थितम्।। | 9-32-50a 9-32-50b |
स मेघनिनदो हर्षान्नर्दन्निव च गोवृषः। आजुहाव ततः पार्थान्गदया युधि वीर्यवान्।। | 9-32-51a 9-32-51b |
दुर्योधन उवाच। | 9-32-52x |
एकैकेन च मां यूयमासीदत युधिष्ठिर। न ह्येको बहुभिर्न्याय्यो वीरो योधयितुं युधि।। | 9-32-52a 9-32-52b |
न्यस्तवर्मा विशेषेण श्रान्तश्चाप्सु परिप्लुतः। भृशं विक्षतगात्रश्च हतवाहनसैनिकः।। | 9-32-53a 9-32-53b |
[अवश्यमेव योद्वव्यं सर्वैरेव मया सह। युक्तं त्वयुक्तमित्येतद्वेत्सि त्वं चैव सर्वदा]।। | 9-32-54a 9-32-54b |
युधिष्ठिर उवाच। | 9-32-55x |
मा भूदियं तव प्रज्ञा कथमेकं सुयोधन। यदाऽभिमन्युं बहवो जघ्नुर्युधि महारथाः।। | 9-32-55a 9-32-55b |
[क्षत्रधर्मं भृशं क्रूरं निरपेक्षं सुनिर्घृणम्। अन्यथा तु कथं हन्युरभिमन्युं तथागतम्।। | 9-32-56a 9-32-56b |
सर्वे भवन्तो धर्मज्ञाः सर्वे शूरास्तनुत्यजः। न्यायेन युध्यतां प्रोक्ता शक्रलोकगतिः परा।। | 9-32-57a 9-32-57b |
यद्येकस्तु न हन्तव्यो बहुभिर्धर्म एव तु। तदाऽभिमन्युं बहवो निजघ्नुस्त्वन्मते कथम्।। | 9-32-58a 9-32-58b |
सर्वो विमृशते जन्तुः कृच्छ्रस्थो धर्मदर्शनम्। पदस्थः पिहितं द्वारं परलोकस्य पश्यति।।] | 9-32-59a 9-32-59b |
आमुञ्च कवचं वीर मूर्धजान्यमयस्व च। यच्चान्यदपि ते नास्ति तदप्यादत्स्व भारत।। | 9-32-60a 9-32-60b |
इममेकं च ते कामं वीर भूयो ददाम्यहम्। पञ्चानां पाण्डवेयानां येन त्वं योद्धुमिच्छसि।। | 9-32-61a 9-32-61b |
तं हत्वा वै भवाराजा हतो वा स्वर्गमाप्नुहि। ऋते च जीविताद्वीर युद्धे किं कुर्म ते प्रियम्।। | 9-32-62a 9-32-62b |
सञ्जय उवाच। | 9-32-63x |
ततस्तव सुतो राजन्वर्म जग्राह काञ्चनम्। विचित्रं च शिरस्त्राणं जाम्बूनदपरिष्कृतम्।। | 9-32-63a 9-32-63b |
सोऽवबद्वशिरस्त्राणः शुभकाञ्चनवर्मभृत्। रराज राजन्पुत्रस्ते काञ्चनः शैलराडिव।। | 9-32-64a 9-32-64b |
सन्नद्धः सगतो राजन्सज्जः सङ्ग्राममूर्धनि। अब्रवीत्पाण्डवान्सर्वान्पुत्रो दुर्योधनस्तव।। | 9-32-65a 9-32-65b |
भ्रातॄणां भवतामेको युध्यतां गदया मया। सहदेवेन वा योत्स्ये भीमेन नकुलेन वा।। | 9-32-66a 9-32-66b |
अथवा फल्गुनेनाद्य त्वया वा भरतर्षभ। योत्स्येऽहं सङ्गरं प्राप्य विजेष्ये च रणाजिरे।। | 9-32-67a 9-32-67b |
अहमद्य गमिष्यामि वैरस्यान्तं सुदुर्गमम्। गदया पुरुषव्याघ्र हेमपट्टनिबद्धया।। | 9-32-68a 9-32-68b |
गदायुद्धे न मे कश्चित्सदृशोऽस्तीति चिन्तये। गदया वो हनिष्यामि सर्वानेव समागतान्।। | 9-32-69a 9-32-69b |
न मे समर्थाः सर्वे वै योद्धुं न्यायेन केचन। न युक्तमात्मना वक्तुमेवं गर्वोद्धतं वचः। अथवा सफलं ह्येतत्करिष्ये भवतां पुरः।। | 9-32-70a 9-32-70b 9-32-70c |
अस्मिन्महूर्ते सत्यं वा मिथ्या वै तद्भविष्यति।] गृह्णातु च गदां यो वै योत्स्यतेऽद्य मया सह।। | 9-32-71a 9-32-71b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः।। 32 ।। |
9-32-3 आतपत्रेण दुर्योधनः सूर्याद्रक्षित इत्येष प्रवादोऽपि यस्य न स इति भावः।। 9-32-10 परिद्यूनः परिश्रान्तः।। 9-32-27 नः अस्माकं पञ्चानां मध्ये एकमपि हत्वा त्वं राजा भवेत्यन्वयः।। 9-32-34 अद्य ते जीवितं नास्ति यद्यपि त्वं मनोजवः इति क.ङ.पाठः।। 9-32-56 क्षत्रधर्मं अस्तीति शेषः। धर्मोऽस्त्री पुण्यआचारे इति मेदिनी।। 9-32-32 द्वात्रिंशोऽध्यायः।।
शल्यपर्व-031 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शल्यपर्व-033 |