महाभारतम्-09-शल्यपर्व-013
दिखावट
← शल्यपर्व-012 | महाभारतम् नवमपर्व महाभारतम्-09-शल्यपर्व-013 वेदव्यासः |
शल्यपर्व-014 → |
सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 9-13-1x |
अर्जुनो द्रौणिना विद्धो युद्धे बहुभिरायसैः। तस्य चानुचरैः शूरैस्त्रिगर्तानां महारथैः।। | 9-13-1a 9-13-1b |
द्रौणिं विव्याध समरे त्रिभिरेव शिलीमुखैः। तथेतरान्महेष्वासान्द्वाभ्यां द्वाभ्यां धनञ्जयः। भूयश्चैव महाराज शरवर्षैरवाकिरत्।। | 9-13-2a 9-13-2b 9-13-2c |
शरकण्टकितास्ते तु तावका भरतर्षभ। न जहुः पार्थमासाद्य ताड्यमानाः शितैः शरैः।। | 9-13-3a 9-13-3b |
अर्जुनं रथवंशेन द्रोणपुत्रपुरोगमाः। परिवार्य मुदा युक्ता योधयन्तश्चकाशिरे।। | 9-13-4a 9-13-4b |
तैस्तु क्षिप्ताः शरा राजन्कार्तस्वरविभूषिताः। अर्जुनस्य रथोपस्थं पूरयामासुरञ्जसा।। | 9-13-5a 9-13-5b |
तथा कृष्णौ महेष्वासौ वृषभौ सर्वधन्विनाम्। विव्यधुश्च शरैर्घोरैः प्रहृष्टा युद्धदुर्मदाः।। | 9-13-6a 9-13-6b |
कूबरं रथचक्राणि ईषा योक्त्राणि वा विभो। युगं चैवानुकर्षं च शरभूतमभूत्तदा।। | 9-13-7a 9-13-7b |
नैतादृशं दृष्टपूर्वं राजन्नेव च नः श्रुतम्। यादृशं तत्र पार्थस्य तावकाः सम्प्रचक्रिरे।। | 9-13-8a 9-13-8b |
स रथः सर्वतो भाति चित्रपुङ्खैः शितैः शरैः। उल्काशतैः सम्प्रदीप्तं विमानमिव भूतले।। | 9-13-9a 9-13-9b |
ततोऽर्जुनो महाराज शरैः सन्नतपर्वभिः। अवाकिरत्तां पृतनां मेघो धृष्ट्येव पर्वतम्।। | 9-13-10a 9-13-10b |
ते वध्यमानाः समरे पार्थनामाङ्कितैः शरैः। पार्थभूतममन्यन्त प्रेक्षमाणास्तथाविधम्।। | 9-13-11a 9-13-11b |
कोपोद्धूतशरज्वालो धनुःशब्दानिलो महान्। सैन्येन्धनं ददाहाशु तावकं पार्थपावकः।। | 9-13-12a 9-13-12b |
चक्राणां पततां चापि युगानां च धरातले। तूणीराणां पताकानां ध्वजानां च रथैः सह।। | 9-13-13a 9-13-13b |
ईषाणामनुकर्षाणां त्रिवेणूनां च भारत। अक्षाणामथ योक्त्राणां प्रतोदानां च राशयः।। | 9-13-14a 9-13-14b |
शिरसां पततां चापि कुण्डलोष्णीषधारिणाम्। भुजानां च महाभाग स्कन्धानां च समन्ततः।। | 9-13-15a 9-13-15b |
छत्राणां व्यजनैः सार्धं मकुटानां च राशयः। समदृश्यन्त पार्थस्य रथमार्गेषु भारत।। | 9-13-16a 9-13-16b |
अगम्यरूपा पृथिवी मांसशोणितकर्दमा। भीरूणां त्रासजननी शूराणां हर्षवर्धिनी। बभूव भरतश्रेष्ठ रुद्रस्याक्रीडनं यथा।। | 9-13-17a 9-13-17b 9-13-17c |
हत्वा तु समरे पार्थः सहस्रे द्वे परन्तपः। रथानां सवरूथानं विधूमोऽग्निरिव ज्वलन्।। | 9-13-18a 9-13-18b |
यथा हि भगवानग्निर्जगद्दग्ध्वा चराचरम्। विधूमो दृश्यते राजंस्तथा पार्थो धऩञ्जयः।। | 9-13-19a 9-13-19b |
द्रौणिस्तु समरे दृष्ट्वा पाण्डवस्य पराक्रमम्। रथेनातिपताकेन पाण्डवं प्रत्यवारयत्।। | 9-13-20a 9-13-20b |
तावुभौ पुरुषव्याघ्रौ श्वेताश्वौ धन्विनां वरौ। समीयतुस्तदाऽन्योन्यं परस्परवधैषिणौ।। | 9-13-21a 9-13-21b |
तयोरासीन्महाराज बाणवर्षं सुदारुणम्। जीमूतयोर्यथा वृष्टिस्तपान्ते भरतर्षभ।। | 9-13-22a 9-13-22b |
अन्योन्यस्पर्धिनौ तौ तु शरैः सन्नतपर्वभिः। ततक्षतुस्तदाऽन्योन्यं शृङ्गाभ्यां वृषभाविव।। | 9-13-23a 9-13-23b |
तयोर्युद्धं महाराज चिरं सममिवाभवत्। शस्त्राणां सङ्गमश्चैव घोरस्तत्राभवत्पुनः।। | 9-13-24a 9-13-24b |
ततोऽर्जुनं द्वादशभी रुक्मपुङ्खैः सुतेजनैः। वासुदेवं च दशभिर्द्रौणिर्विव्याध भारत।। | 9-13-25a 9-13-25b |
ततः प्रहस्य बीभत्सुर्व्याक्षिपद्गाण्डिवं धनुः। मानयित्वा मुहूर्तं तु गुरुपुत्रं महाहवे।। | 9-13-26a 9-13-26b |
व्यश्वसूतरथं चक्रे सव्यसाची परन्तपः। मृदुपूर्वं ततश्चैनं पुनःपुनरताडयत्।। | 9-13-27a 9-13-27b |
हताश्वे तु रथे तिष्ठन्द्रोणपुत्रस्त्वयस्मयम्। मुसलं पाण्डुपुत्राय चिक्षेप परिघोपमम्।। | 9-13-28a 9-13-28b |
तमापतन्तं सहसा हेमपट्टविभूषितम्। चिच्छेद सप्तधा वीरः पार्थः शत्रुनिबर्हणः।। | 9-13-29a 9-13-29b |
स च्छिन्नं मुसलं दृष्ट्वा द्रौणिः परमकोपनः। आददे परिघं घोरं नगेन्द्रशिखरोपमम्। चिक्षेप चैव पार्थाय द्रौणिर्युद्धविशारदः।। | 9-13-30a 9-13-30b 9-13-30c |
तमन्तकमिव क्रुद्दं परिघं प्रेक्ष्य पाण्डवः। अर्जुनस्त्वरितो जघ्ने पञ्चभिः सायकोत्तमैः।। | 9-13-31a 9-13-31b |
स च्छिन्नः पतितो भूमौ पार्थबाणैर्महाहवे। दारयन्पृथिवीन्द्राणां मनः सब्देन भारत।। | 9-13-32a 9-13-32b |
ततोऽपरैस्त्रिभिर्भल्लैर्द्रौणिं विव्याध पाण्डवः।। | 9-13-33a |
सोऽतिविद्धो बलवता पार्थेन सुमहात्मना। नाकम्पत तदा द्रौणिः पौरुषेषु व्यवस्थितः।। | 9-13-34a 9-13-34b |
सुरथं च ततो राजन्भारद्वाजो महारथम्। अवाकिरच्छरव्रातैः सर्वक्षत्रस्य पश्यतः।। | 9-13-35a 9-13-35b |
ततस्तु सुरथोऽप्याजौ पाञ्चालानां महारथः। रथेन मेघघोषेण द्रौणिमेवाभ्यधावत।। | 9-13-36a 9-13-36b |
विकर्षन्वै धनुःश्रेष्ठं सर्वभारसहं दृढम्। ज्वलनाशीविषनिभैः शरैश्चैनमवाकिरत्।। | 9-13-37a 9-13-37b |
सुरथं तं ततः क्रुद्धमापतन्तं महारथम्। चुकोप समरे द्रौणिर्दण्डाहत इवोरगः।। | 9-13-38a 9-13-38b |
त्रिशिखां भ्रुकुटीं कृत्वा सृक्विणी परिसंलिहन्। उद्वीक्ष्य सुरथं रोषाद्धनुर्ज्यामवमृज्य च। मुमोच तीक्ष्णं नाराचं यमदण्डोपमद्युतिम्।। | 9-13-39a 9-13-39b 9-13-39c |
स तस्य हृदयं भित्त्वा प्रविवेशातिवेगितः। शक्ताशनिरिवोत्सृष्टो विदार्य धरणीतलम्।। | 9-13-40a 9-13-40b |
ततः स पतितो भूमौ नाराचेन समाहतः। वज्रेण च यथा शृङ्गं पर्वतस्येव दीर्यतः।। | 9-13-41a 9-13-41b |
तस्मिन्विनिहते वीरे द्रोणपुत्रः प्रतापवान्। आरुरोह रथं तूर्णं तमेव रथिनां वरः।। | 9-13-42a 9-13-42b |
ततः सज्जो महाराज द्रौणिराहवदुर्मदः। अर्जुनं योधयामास संशप्तकवृतो रणे।। | 9-13-43a 9-13-43b |
तत्र युद्धं महच्चासीदर्जुनस्य परैः सह। मध्यन्दिनगते सूर्ये यमराष्ट्रविवर्धनम्।। | 9-13-44a 9-13-44b |
तत्राश्चर्यमपश्याम दृष्ट्वा तेषां पराक्रमम्। यदेको युगपद्वीरान्समयोधयदर्जुनः।। | 9-13-45a 9-13-45b |
विमर्दः सुमहानासीदर्जुनस्य परैः सह। शतक्रतोर्यथापूर्वं महत्या दैत्यसेनया।। | 9-13-46a 9-13-46b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि शल्यवधपर्वणि अष्टादशदिवसयुद्धे त्रयोदशोऽध्यायः।। 13 ।। |
शल्यपर्व-012 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शल्यपर्व-014 |