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महाभारतम्-09-शल्यपर्व-023

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महाभारतम्-09-शल्यपर्व-023
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अर्जुनेन दुर्योधनागर्हणपूर्वकं तत्सेनानिबर्हणम्।। 1 ।।

सञ्जय उवाच। 9-23-1x
अल्पावशिष्टे सैन्ये तु पाण्डवैर्निहते बले।
अश्वैः सप्तसहस्रैस्तु उपावर्तत सौबलः।।
9-23-1a
9-23-1b
स यात्वा वाहिनीं तूर्णं चोदयानः स्वकान्युधि।
युध्यध्वमिति संहृष्टाः पुनःपुनररिन्दमाः।।
9-23-2a
9-23-2b
अपृच्छत्क्षत्रियांस्तत्र क्व नु राजा महाबलः।
शकुनेस्तद्वचः श्रुत्वा तमूचुर्भरतर्षभ।।
9-23-3a
9-23-3b
असौ तिष्ठति कौरव्यो रणमध्ये महाबलः।
यत्रैतत्सुमहच्छत्रं पूर्णचन्द्रसमप्रभम्।।
9-23-4a
9-23-4b
यत्र ते सतनुत्राणा रथास्तिष्ठन्ति दंशिताः।
यत्रैष तुमुलः शब्दः पर्जन्यनिनदोपमः।।
9-23-5a
9-23-5b
तत्र गच्छ द्रुतं राजंस्ततो द्रक्ष्यसि कौरवम्।
एवमुक्तस्तु तैर्योधैः शकुनिः सौबलस्तदा।।
9-23-6a
9-23-6b
प्रययौ तत्र यत्रास्ते पुत्रस्तव नराधिप।
सर्वतः संवृतो वीरैः समरे चित्रयोधिभिः।।
9-23-7a
9-23-7b
ततो दुर्योधनं दृष्ट्वा रथानीके व्यवस्थितम्।
स रथांस्तावकान्सर्वान्हर्षयञ्शकुनिस्ततः।।
9-23-8a
9-23-8b
दुर्योधनमिदं वाक्यं हृष्टरूपो विशाम्पते।
कृतकार्यमिवात्मानं मन्यमानोऽब्रवीन्नृपम्।।
9-23-9a
9-23-9b
जहि राजन्रथानीकमश्वाः सर्वे जिता मया।
नात्यक्त्वा जीवितं सङ्ख्ये शक्यो जेतुं युधिष्ठिरः।।
9-23-10a
9-23-10b
हते तस्मिन्रथानीके पाण्डवेनाभिपालिते।
गजानेतान्हनिष्यामः पदातींश्चेतरांस्तथा।।
9-23-11a
9-23-11b
श्रुत्वा तु वचनं तस्य तावका जयगृद्विनः।
जवेनाभ्यपतन्हृष्टाः पाण्डवानामनीकिनीम्।।
9-23-12a
9-23-12b
बद्वनिस्त्रिंशहस्ताश्च प्रगृहीतशरासनाः।
शरासनानि धून्वानाः सिंहनादान्प्रचक्रिरे।।
9-23-13a
9-23-13b
ततो ज्यातलनिर्धोषः पुनरासीद्विशाम्पते।
प्रादुरासीच्छराणां च सुमुक्तानां सुदारुणः।।
9-23-14a
9-23-14b
तान्समीपगतान्दृष्ट्वा जनानुद्यतकार्मुकान्।
उवाच देवकीपुत्रं कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः।।
9-23-15a
9-23-15b
चोदयाश्वानसम्भ्रान्तः प्रविशैतद्बलार्णवम्।
अन्तमद्य गमिष्यामि शत्रूणां निशितैः शरैः।।
9-23-16a
9-23-16b
अष्टादश दिनान्यद्य युद्धस्यास्य जनार्दन।
वर्तमानस्य महतः समासाद्य परस्परम्।।
9-23-17a
9-23-17b
अनन्तकल्पा ध्वजिनी भूत्वा ह्येषां महात्मनाम्।
क्षयमद्य गता युद्धे पश्य दैवं यथाविधम्।।
9-23-18a
9-23-18b
समुद्रकल्पं च बलं धार्तराष्ट्रस्य माधव।
अस्मनासाद्य सञ्जातं गोष्पदोपममच्युत।।
9-23-19a
9-23-19b
हते भीष्मे धीर्ममासीच्छमः स्यादिति माधव।
न च तत्कृतवान्मूढो धार्तराष्ट्रः सुबालिशः।।
9-23-20a
9-23-20b
उक्तं भीष्मेण यद्वाक्यं हितं तथ्यं च माधव।
तच्चापि नासौ कृतवान्वीतबुद्धिः सुयोधनः।।
9-23-21a
9-23-21b
तस्मिंस्तु निहते भीष्मे प्रच्युते पृथिवीपतौ।
न जाने कारणं किन्तु येन युद्धमवर्तत।।
9-23-22a
9-23-22b
मूढांस्तु सर्वथा मन्ये धार्तराष्ट्रान्सुबालिशान्।
पतिते शन्तनोः पुत्रे येऽकार्युः संयुगं पुनः।।
9-23-23a
9-23-23b
अनन्तरं च निहते द्रोणे ब्रह्मविदां वरे।
राधेये च विकर्णे च नैव शाम्यति वैशसम्।।
9-23-24a
9-23-24b
अल्पावशिष्टे सैन्येऽस्मिन्सूतपुत्रे च पातिते।
सपुत्रे वै नरव्याघ्रे नैव शाम्यति वैशसम्।।
9-23-25a
9-23-25b
श्रुतायुषि हते वीरे जलसन्धे च मागधे।
श्रुतायुधे च नृपतौ नैव शाम्यति वैशसम्।।
9-23-26a
9-23-26b
भूरिश्रवसि शल्ये च साल्ये चैव जनार्दन।
आवन्त्येषु च वीरेषु नैव शाम्यति वैशसम्।।
9-23-27a
9-23-27b
जयद्रथे च निहते राक्षसे चाप्यलायुधे।
बाह्लिके सोमदत्ते च नैव शाम्यति वैशसम्।।
9-23-28a
9-23-28b
भगदत्ते हते शूरे काम्भोजे च सुदारुणे।
दुःशासने च निहते नैव शाम्यति वैशसम्।।
9-23-29a
9-23-29b
दृष्ट्वा विनिहताञ्शूरान्पृथङ्माण्‍डलिकान्नृपान्।
बलिनश्च रणे कृष्ण नैव शाम्यति वैशसम्।।
9-23-30a
9-23-30b
अक्षौहिणीपतीन्दृष्ट्वा भीमसेननिपातितान्।
मोहाद्वा यदि वा लोभान्नैव शाम्यति वैशसम्।।
9-23-31a
9-23-31b
`हतप्रवीरां विध्वस्तां दृष्ट्वा चेमां चमूं रणे।
अलम्बले च निहते नैव शाम्यति वैशसम्।।
9-23-32a
9-23-32b
भ्रातॄन्विनिहतान्दृष्ट्वा वयस्यान्मातुलानपि।
पुत्रान्विनिहतान्दृष्ट्वा नैव शाम्यति वैशसम्'।।
9-23-33a
9-23-33b
को नु राजकुले जातः कौरवेषु विशेषतः।
निरर्थकं महद्वैरं कुर्यादन्यः सुयोधनात्।।
9-23-34a
9-23-34b
गुणतोऽभ्यधिकाञ्ज्ञात्वा बलतः शौर्यतोपि वा।
अमूढः को नु युध्येत जानन्प्राज्ञो हिताहितम्।।
9-23-35a
9-23-35b
किन्नु तस्य मनो ह्यासीत्त्वयोक्तस्य हितं वचः।
प्रशमे पाण्डवैः सार्धं सोन्यस्य शृणुयात्कथम्।।
9-23-36a
9-23-36b
येन शान्तनवो भीष्मो द्रोणो विदुर एव च।
प्रत्याख्याताः शंमस्यार्थे किन्नु तस्याद्य भेषजम्।।
9-23-37a
9-23-37b
मौर्ख्याद्येन पिता वृद्वः प्रत्याख्यातो जनार्दन।
तथा माता हितं वाक्यं भाषमाणा हितैषिणी।।
9-23-38a
9-23-38b
प्रत्याख्याता ह्यसत्कृत्य स कस्मै रोचयेद्वचः।
कुलान्तकरणो व्यक्तं जात एष जनार्दन।।
9-23-39a
9-23-39b
तथास्य दृश्यते चेष्टा नीतिश्चैव विशाम्पते।
नैष दास्यति नो राज्यमिति मे मतिरच्युत।।
9-23-40a
9-23-40b
उक्तोऽहं बहुशस्तात विदुरेण महात्मना।
न जीवन्दास्यते भागं धार्तराष्ट्रः सुयोधनः।।
9-23-41a
9-23-41b
यावत्प्राणा धरिष्यन्ति धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः।
तावद्युष्मास्वपापेषु प्रचरिष्यति पापकम्।।
9-23-42a
9-23-42b
न च युक्तोऽन्यथा जेतुमृते युद्धेन माधव।
इत्यब्रवीत्सदा मां हि विदुरः सत्यदर्शनः।।
9-23-43a
9-23-43b
तत्सर्वमद्य जानामि व्यवसायं दुरात्मनः।
यदुक्तं वचनं तेन विदुरेण महात्मना।।
9-23-44a
9-23-44b
यो हि श्रुत्वा वचः पथ्यं जामदग्न्याद्यथातथम्।
अवामन्यत दुर्बुद्धिर्ध्रुवं नाशमुखे स्थितः।।
9-23-45a
9-23-45b
उक्तं हि बहुभिः सिद्धैर्जातमात्रे सुयोधने।
एनं प्राप्य दुरात्मानं क्षयं क्षत्रं गमिष्यति।।
9-23-46a
9-23-46b
तदिदं वचनं तेषां निरुक्तं वै जनार्दन।
क्षयं याता हि राजानो दुर्योधनकृते भृशम्।।
9-23-47a
9-23-47b
सोऽद्य सर्वान्रणे योधान्निहनिष्यामि माधव।। 9-23-48a
क्षत्रियेषु हतेष्वाशु शून्ये च शिबिरे कृते।
वधाय चात्मनोऽस्माभिः संयुगं रोचयिष्यति।।
9-23-49a
9-23-49b
तदन्तं हि भवेद्वैरमनुमानेन माधव।
एवं पश्यामि वार्ष्णेय चिन्तयन्प्रज्ञया स्वया।
विदुरस्य च वाक्येन चेष्टया च दुरात्मनः।।
9-23-50a
9-23-50b
9-23-50c
तस्माद्याहि चमूं वीर यावद्वन्मि शितैः शरैः।
दुर्योधनं महाबाहो वाहिनीं चास्य संयुगे।।
9-23-51a
9-23-51b
क्षेममद्य करिष्यामि धर्मराजस्य माधव।
हत्वैतद्दुर्बलं सैन्यं धार्तराष्ट्रस्य पश्यतः।।
9-23-52a
9-23-52b
सञ्जय उवाच। 9-23-53x
अभीशुहस्तो दाशार्हस्तथोक्तः सव्यसाचिना।
तद्बलौघममित्राणामभीतः प्राविशद्बलात्।।
9-23-53a
9-23-53b
शरासनवनं घोरं शक्तिकण्टकसङ्कुलम्।
गदापरिघपाषाणं रथनागमहाद्रुमम्।।
9-23-54a
9-23-54b
हयपत्तिलताकीर्णं गाहमानो महायशाः।
व्यचरत्तत्र गोविन्दो रथेनातिपताकिना।।
9-23-55a
9-23-55b
ते हयाः पाण्डुरा राजन्वहन्तोऽर्जुनमाहवे।
दिक्षु सर्वास्वदृश्यन्त दाशार्हेण प्रचोदिताः।।
9-23-56a
9-23-56b
ततः प्रायाद्रथेनाजौ सव्यसाची परन्तपः।
किरञ्शरशतांस्तीक्ष्णान्वारिधारा घनो यथा।।
9-23-57a
9-23-57b
प्रादुरासीन्महाञ्शब्दः शराणां नतपर्वणाम्।
इषुभिश्छाद्यमानानां समरे सव्यसाचिना।।
9-23-58a
9-23-58b
असज्जन्तस्तनुत्रेषु शरौघाः प्रापतन्भुवि।
इन्द्राशनिसमस्पर्शा गाण्डीवप्रेषिताः शराः।।
9-23-59a
9-23-59b
नरान्नागान्समाहत्य हयांश्चापि विशाम्पते।
अपतन्त रणे बाणाः पतङ्गा इव घोषिणः।।
9-23-60a
9-23-60b
आसीत्सर्वमवच्छन्नं गाण्डीवप्रेषितैः शरैः।
न प्राज्ञायन्त समरे दिशो वा प्रदिशोपि वा।।
9-23-61a
9-23-61b
सर्वमासीज्जगत्पूर्णं पार्थनामाङ्कितैः शरैः।
रुक्मपुङ्खैस्तैलधौतैः कर्मारपरिमार्जितैः।।
9-23-62a
9-23-62b
ते दह्यमानाः पार्थेन पावकेनेव कुञ्जराः।
पार्थं न प्राजहुर्घारा वध्यमानाः शितैः शरैः।।
9-23-63a
9-23-63b
शरचापधरः पार्थः प्रज्वलन्निव भास्करः।
ददाह समरे योधान्कक्षमग्निरिव ज्वलन्।।
9-23-64a
9-23-64b
यथा वनान्ते वनपैर्विसृष्टः
कक्षं दहेत्कृष्णगतिः सुघोषः।
भूरिद्रुमं शुष्कलतावितानं
भृशं समृद्धो ज्वलनः प्रतापी।।
9-23-65a
9-23-65b
9-23-65c
9-23-65b
एवं स नाराचगणम्प्रतापी
शरार्चिरुच्चावचतिग्मतेजाः।
ददाह सर्वां तव पुत्रसेना--
ममृष्यमाणस्तरसा तरस्वी।।
9-23-66a
9-23-66b
9-23-66c
9-23-66d
तस्येषवः प्राणहराः सुमुक्ता
नासज्जन्वै वर्मसु रुक्मपुङ्खाः।
न च द्वितीयं प्रमुमोच बाणं
नरे हये वा परमद्विपे वा।।
9-23-67a
9-23-67b
9-23-67c
9-23-67d
अनेकरूपाकृतिभिर्हि बाणै--
र्महारथानीकमनुप्रविश्य।
स एव एकस्तव पुत्रस्य सेनां
जघान दैत्यानिव वज्रपाणिः।।
9-23-68a
9-23-68b
9-23-68c
9-23-68d
।। इति श्रीमन्महाभारते
शल्यपर्वणि शल्यवधपर्वणि
अष्टादशदिवसयुद्धे त्रयोविंशोऽध्यायः।। 23 ।।

9-23-42 पापकं प्रचरिष्यति आचरिष्यति धार्तराष्ट्र इति शेषः।। 9-23-23 त्रयोविंशोऽध्यायः।।

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