महाभारतम्-09-शल्यपर्व-050
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बलभद्रस्येरद्रतीर्थादिगमनम्।। 1 ।। तत्तत्तीर्थमाहात्म्यकथनम्।। 2 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 9-50-1x |
इन्द्रतीर्थं ततो गत्वा यदूनां प्रवरो बली। विप्रेभ्यो धनरत्नानि ददौ स्नात्वा यथाविधि।। | 9-50-1a 9-50-1b |
तत्र ह्यमरराजो वै ईजे क्रतुशतेन ह। बृहस्पतेश्च देवेशः प्रददौ विपुलं धनम्।। | 9-50-2a 9-50-2b |
अनर्गलान्सजारूथ्यान्सर्वान्विविधदक्षिणान्। आजहर क्रतूंस्तत्र यथोक्तं वेदपारगैः।। | 9-50-3a 9-50-3b |
तान्क्रतून्भरतश्रेष्ठ शतकृत्वो महाद्युतिः। पूरयामास विधिवत्ततः ख्यातः शतक्रतुः।। | 9-50-4a 9-50-4b |
तस्य नाम्ना तु तत्तीर्थं शिवं पुण्यं सनातनम्। इन्द्रतीर्थमिति ख्यातं सर्वपापप्रमोचनम्।। | 9-50-5a 9-50-5b |
उपस्पृश्य च तत्रापि विधिवन्मुसलायुधः। ब्राह्मणान्पूजयित्वा च पानाच्छादुनभोजनैः।। | 9-50-6a 9-50-6b |
शुभं तीर्थवरं तस्माद्रामतीर्थं जगाम ह। यत्र रामो महाभागो भार्गवः सुमहातपाः।। | 9-50-7a 9-50-7b |
असकृत्पृथिवीं कृत्वा हतक्षत्रियपुङ्गवाम्। उपाध्यायं पुरस्कृत्य काश्यपं मुनिसत्तमम्।। | 9-50-8a 9-50-8b |
अयजद्वाजपेयेन सोऽश्वमेधशतेन च। प्रददौ दक्षिणार्थं च पृथिवीं सागराम्बराम्।। | 9-50-9a 9-50-9b |
रामो दत्त्वा धनं तत्र द्विजेभ्यो जनमेजय। उपस्पृश्य यथान्यायं पूजयित्वा तथा द्विजान्।। | 9-50-10a 9-50-10b |
पुण्यतीर्थे शुभे देशे वसु दत्त्वा हलायुधः। मुनींश्चैवाभिवाद्याथ यमुनातीर्थमागमत्। यत्रानयामास तदा राजसूयमपाम्पतिः।। | 9-50-11a 9-50-11b 9-50-11c |
दितेः सुतान्महाभागो वरुणो वै सितप्रभः। यत्र निर्जित्य सङ्ग्रामे मानुषान्दानवांस्तथा। गन्धर्वान्राक्षसांश्चैव वरुणः परवीरहा।। | 9-50-12a 9-50-12b 9-50-12c |
तस्मिन्क्रतुवरे वृत्ते सङ्ग्रामः समजायत। देवानां दानवानां च त्रैलोक्यस्य भयावहः।। | 9-50-13a 9-50-13b |
राजसूये क्रतुश्रेष्ठे निवृत्ते जनमेजय। जायते सुमहाघोरः संक्षयः क्षत्रियान्प्रति।। | 9-50-14a 9-50-14b |
हलायुधस्तदा रामस्तस्मिंस्तीर्थवरे शुभे। तत्रस्नात्वा च दत्त्वा च द्विजेभ्यो वसु माधवः।। | 9-50-15a 9-50-15b |
वनमाली ततो हृष्टः स्तूयमानो द्विजातिभिः। तस्मादादित्यतीर्थं च जगाम कमलेक्षणः।। | 9-50-16a 9-50-16b |
यत्रेष्ट्वा भगवाञ्ज्योतिर्भास्करो राजसत्तम। ज्योतिषामाधिपत्यं च प्रभावं चाभ्यपद्यत।। | 9-50-17a 9-50-17b |
तस्या नद्यास्तु तीरे वै सर्वे देवाः सवासवाः। विश्वेदेवाः समरुतो गन्धर्वाप्सरसश्च ह।। | 9-50-18a 9-50-18b |
द्वैपायनः शुकश्चैव कृष्णश्च मधुसूदनः। यक्षाश्च राक्षसाश्चैव पिशाचाश्च विशाम्पते।। | 9-50-19a 9-50-19b |
एते चान्ये च बहवो योगसिद्धाः सहस्रशः। तस्मिंस्तीर्थे सरस्वत्याः शिवे पुण्ये परन्तप।। | 9-50-20a 9-50-20b |
तत्र हत्वा पुरा विष्णुरसुरौ मधुकैटभौ। आप्लुत्य भरतश्रेष्ठ तीर्थप्रवर उत्तमे।। | 9-50-21a 9-50-21b |
द्वैपायनश्च धर्मात्मा तत्रैवाप्लुत्य भारत। सम्प्राप्तः परमं योगं सिद्धिं च परमां गतः।। | 9-50-22a 9-50-22b |
असितो देवलश्चैव तस्मिन्नेव महातपाः। परमं योगमास्थाय ऋषिर्योगमवाप्तवान्।। | 9-50-23a 9-50-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि ह्रदप्रवेशपर्वणि पञ्चाशोऽध्यायः।। 50 ।। |
9-50-1 आनयामास मुनीनित्यनुषज्ज्यते। राजसूयं कर्तुमिति शेषः।। 9-50-50 पञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।
शल्यपर्व-049 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शल्यपर्व-051 |