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महाभारतम्-09-शल्यपर्व-063

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महाभारतम्-09-शल्यपर्व-063
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पाञ्चालादिषु स्वस्वशिबिराण्युपगतेषु पाण्डवैर्दुर्योधनशिबिरमेत्य स्वस्वरथेभ्योऽवतरणम्।। 1 ।। कृष्णे रथात्प्रथमं पार्थमवतार्थ पश्चात्स्वयमप्यवतीर्णे अग्निना तद्ग्रथस्य भस्मीकरणम्।। 2 ।। कृष्णेनार्जुनम्प्रति रथदाहस्य कारणकथनम्।। 3 ।। कृष्णचोदनया पाण्डवैरोघवतीतीरे रात्रौ निवसनम्।। 4 ।। कृष्णेन युधिष्ठिरचोदनया गान्धार्याश्वासनाय हास्तिनपुरागमनम्।। 5 ।।

सञ्जय उवाच। 9-63-1x
ततस्ते प्रययुः सर्वे निवासाय महीक्षितः।
शङ्खान्प्रध्मापयन्तो वै हृष्टाः परिघबाहवः।।
9-63-1a
9-63-1b
पाण्डवान्गच्छतश्चापि शिबिरं नो विशाम्पते।
महेष्वासोऽन्वगात्पश्चाद्युयुत्सुः सात्यकिस्तथा।।
9-63-2a
9-63-2b
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च द्रौपदेयाश्च सर्वशः।
सर्वे चान्ये महेष्वासा ययुः स्वशिबिराण्युत।।
9-63-3a
9-63-3b
ततस्ते प्राविशन्पार्था हतत्विट्कं हतेश्वरम्।
दुर्योधनस्य शिबिरं रङ्गवन्निःसृते जने।।
9-63-4a
9-63-4b
गतोत्सवं पुरमिव हृतनागमिव हदम्।
स्त्रीवर्षवरभूयिष्ठं वृद्धामात्यैरधिष्ठितम्।।
9-63-5a
9-63-5b
तत्रैतान्पर्युपातिष्ठन्दुर्योधन पुरःसराः।
कृताञ्जलिपुटा राजन्काषायमलिनाम्बराः।।
9-63-6a
9-63-6b
शिबिरं समनुप्राप्य कुरुराजस्य पाण्डवाः।
अवतेरुर्महाराज रथेभ्यो रथसत्तमाः।।
9-63-7a
9-63-7b
ततो गाण्डीवधन्वानमभ्यभाषत केशवः।
स्थितः प्रियहिते नित्यमतीव भरतर्षभ।।
9-63-8a
9-63-8b
अवरोपय गाण्डीवमक्षयौ च महेषुधी।
अथाहमवरोक्ष्यामि पश्चाद्भरतसत्तम।
स्वयं चैवावरोह त्वमेतच्छ्रेयस्तवानघ।।
9-63-9a
9-63-9b
9-63-9c
तच्चाकरोत्तथा वीरः पाण्डुपुत्रो धनञ्जयः।। 9-63-10a
अथ पश्चात्ततः कृष्णो रश्मीनुत्सृज्य वाजिनाम्।
अवारोहत मेधावी रथाद्गाण्डीवधन्वनः।।
9-63-11a
9-63-11b
अथावतीर्णे भूतानामीश्वरे सुमहात्मनि।
कपिरप्याश्वपाक्रामत्सहदेवैर्ध्वजालयैः।।
9-63-12a
9-63-12b
स दग्धो द्रोणकर्णाभ्यां दिव्यैरस्त्रैर्महारथः।
अथ दीप्तोऽग्निना ह्याशु प्रजज्वाल महीपते।।
9-63-13a
9-63-13b
सोपासङ्गः सरश्मिश्च साश्वः सयुगबन्धनः।
भस्मीभूतोऽपतद्भूमौ रथो गाण्डीवधन्वनः।।
9-63-14a
9-63-14b
तं तथा भस्मभूतं तु दृष्ट्वा पाण्डुसुताः प्रभो।
अभवन्विस्मिता राजन्नर्जुनश्चेदमब्रवीत्।।
9-63-15a
9-63-15b
कृताञ्जलिः सप्रणयं प्रणिपत्याभिवाद्य ह।
गोवन्द कस्माद्भगवन्रथो दग्धोऽयमग्निना।।
9-63-16a
9-63-16b
किमेतन्महदाश्चर्यमभवद्यदुनन्दन।
तन्मे ब्रूहि महाबाहो श्रोतव्यं यदि मन्यसे।।
9-63-17a
9-63-17b
वासुदेव उवाच। 9-63-18x
द्रोणकर्णास्त्रनिर्दग्धः पूर्वमेवायमर्जुन।
मदास्थितत्वात्समरे न विशीर्णः परन्तप।।
9-63-18a
9-63-18b
इदानीं तु विशीर्णोऽयं दग्धो ब्रह्मास्त्रतेजसा।
मया विमुक्तः कौन्तेय त्वय्यद्य कृतकर्मणि।।
9-63-19a
9-63-19b
सञ्जय उवाच। 9-63-20x
ईषदुत्स्मयमानस्तु भगवान्केशवोऽरिहा।
परिष्वज्य च राजानं युधिष्ठिरमभाषत।।
9-63-20a
9-63-20b
दिष्ट्या जयसि कौन्तेय दिष्ट्या ते शत्रवो जिताः।
दिष्ट्या गाण्डीवधन्वा च भीमसेनश्च पाण्डवः।।
9-63-21a
9-63-21b
त्वं चापि कुशली राजन्माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
मुक्ता वीरक्षयादिस्मात्सङ्ग्रामान्निहतद्विषः।
क्षिप्रमुत्तरकालानि कुरु कार्याणि भारत।।
9-63-22a
9-63-22b
9-63-22c
उपयातमुपप्लाव्यं सह गाण्डीवधन्वना।
आनीय मधुपर्कं मां यत्पुरा त्वमवोचथाः।।
9-63-23a
9-63-23b
एष भ्राता सखा चैव तव कृष्ण धनञ्जयः।
रक्षितव्यो महाबाहो सर्वास्वापत्स्विति प्रभो।।
9-63-24a
9-63-24b
तव चैव ब्रुवाणस्य तथेत्येवाहमब्रुवम्।। 9-63-25a
स सव्यसाची गुप्तस्ते विजयी च जनेश्वर। 9-63-26a
भ्रातृभिः सह राजेन्द्र शूरः सत्यपराक्रमः।
मुक्तो वीरक्षयादस्मात्सङ्ग्रामाद्रोमहर्षणात्।।
9-63-26a
9-63-26c
एवमुक्तस्तु कृष्णेन धर्मराजो युधिष्ठिरः।
हृष्टरोमा महाराज प्रत्युवाच जनार्दनम्।।
9-63-27a
9-63-27b
युधिष्ठिर उवाच। 9-63-28x
प्रमुक्तं द्रोणकर्णाभ्यां ब्रह्मास्त्रमरिमर्दन।
कस्त्वदन्यः सहेत्साक्षादपि वज्री पुरन्दरः।।
9-63-28a
9-63-28b
भवतस्तु प्रसादेन संग्रामे बहवो हताः।
महारणगतः पार्थो यच्च नासीत्पराङ्मुखः।।
9-63-29a
9-63-29b
तथा तव महाबाहो पर्यायैर्बहुभिर्मया।
कर्मणआमनुसन्धानात्तेजस्वी जगति श्रुता।।
9-63-30a
9-63-30b
उपप्लाव्ये महर्षिर्मे कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्।
यतो धर्मस्ततः कृष्णो यतः कृष्णस्ततो जयः।।
9-63-31a
9-63-31b
`एवमुक्तस्ततः कृष्णः प्रत्युवाच युधिष्ठिरम्।
न तुल्याश्चार्जुनस्येह बलेन कुरुनन्दन।।
9-63-32a
9-63-32b
स एष सर्वाण्यस्त्राणि दिव्यानि प्राप्य शङ्करात्।
सत्समो वा विशिष्टो वा रणे त्वमिति पाण्डवः।
अनुज्ञातः पाण्डुसुतः पुनः प्रत्यागमन्महीम्।।
9-63-33a
9-63-33b
9-63-33c
भूतं भव्यं भविष्यच्च अनुज्ञातस्त्वया विभो।
निमेषार्धान्नरव्याघ्रो नयेदिति मतिर्मम।।
9-63-34a
9-63-34b
द्रोणं भीष्मं कृपं कर्णं द्रोणपुत्रं जयद्रथम्।
निहन्तुं शक्नुयात्क्रुद्धो निमेषार्धाद्धनञ्जयः।।
9-63-35a
9-63-35b
सदेवासुरगन्धर्वान्सयक्षोरगराक्षसान्।
त्रीन्वा लोकान्विजेतुं स शक्तः किमिह मानुषान्।।
9-63-36a
9-63-36b
विधिना विहितं चासौ मया सञ्चोदितोऽपि सन्।
न चकार मतिं हन्तुं ततस्ते बलवत्तराः।।
9-63-37a
9-63-37b
अत्र गीता मया सुष्ठु गिरः सत्या महीपते।
दर्सितं मयि सर्वं च तेनासौ जितवान्रिपून्।।
9-63-38a
9-63-38b
अर्जुनोऽपि महाबाहुर्मया तुल्यो महीपते।
स महेश्वरलब्धास्त्रः किं न कुर्याद्विभुः प्रभो।।'
9-63-39a
9-63-39b
इत्येवमुक्ते ते वीराः शिबिरं तव भारत।
प्रविश्य प्रत्यपद्यन्त कोशरत्नर्धिसञ्चयान्।।
9-63-40a
9-63-40b
रजतं जातरूपं च मणीनथ च मौक्तिकान्।
भूषणान्यथ मुख्यानि कम्बलान्यजिनानि च।।
9-63-41a
9-63-41b
`गजानश्वान्रथांश्चैव महान्ति शयनानि च'।
दासीदासमसंख्येयं राज्योपकरणानि च।।
9-63-42a
9-63-42b
ते प्राप्य धनमक्षय्यं त्वदीयं भरतर्षभ।
उदक्रोशन्महाभागा नरेन्द्र विजितारयः।।
9-63-43a
9-63-43b
ते तु वीराः समाश्वस्य वाहनान्यवमुच्य च।
अतिष्ठन्त मुहुः सर्वे पाण्डवा विगतज्वराः।।
9-63-44a
9-63-44b
अथाब्रवीन्महाराज वासुदेवो महायशाः।
अस्माभिर्मङ्गलार्थाय वस्तव्यं शिबिराद्बहिः।।
9-63-45a
9-63-45b
तथेत्युक्त्वा हि ते सर्वे पाण्डवाः सात्यकिस्तथा।
वासुदेवेन सहिता मङ्गलार्थं बहिर्ययुः।।
9-63-46a
9-63-46b
ते समासाद्य सरितं पुण्यामोघवतीं नृप।
न्यवसन्नथ तां रात्रिं पाण्डवा हतशत्रवः।।
9-63-47a
9-63-47b
युधिष्ठिरस्ततो राजा प्राप्तकालमचिन्तयन्।। 9-63-48a
तत्र ते गमनं माप्तं रोचते तव माधव।
गान्धार्याः क्रोधदीप्तायाः प्रशमार्थमरिन्दम।।
9-63-49a
9-63-49b
हेतुकारणयुक्तैश्च वाक्यैः कालसमीरितैः।
क्षिप्रमेव महाभाग गान्धारीं प्रशमिष्यसि।
पितामहश्च भगवान्व्यासस्तत्र भविष्यति।।
9-63-50a
9-63-50b
9-63-50c
ततः सम्प्रेषयामासुर्यादवं नागसाह्वयम्।। 9-63-51a
स च प्रायाज्जवेनाशु वासुदेवः प्रतापवान्।
दारुकं रथमारोप्य येन राजाऽम्बिकासुतः।।
9-63-52a
9-63-52b
तमूचुः सम्प्रयास्यन्तं शैब्यसुग्रीववाहनम्।
प्रत्याश्वासय गान्धारीं हतपुत्रां यशस्विनीम्।।
9-63-53a
9-63-53b
स प्रायात्पाण्डवैरुक्तस्तत्पुरं सात्वतां वरः।
आससाद ततः क्षिप्रं गान्धारीं निहतात्मजाम्।।
9-63-54a
9-63-54b
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि
गदायुद्धपर्वणि त्रिषष्टितमोऽध्यायः।। 63 ।।

9-63-5 वर्षवरः षण्ढः।। 9-63-6 दुर्योधनस्य पुरसराः दुर्योधनपुरः सराः।। 9-63-30 तेजस्वीति गतिः श्रुता इति छ.पाठः। तथैव च महाबाहो मनुसन्तानं तेजसश्च गतीः शुभाः इति झ.पाठः।। 9-63-63 त्रिषष्टितमोऽध्यायः।।

शल्यपर्व-062 पुटाग्रे अल्लिखितम्। शल्यपर्व-064