सामग्री पर जाएँ

महाभारतम्-09-शल्यपर्व-062

विकिस्रोतः तः
← शल्यपर्व-061 महाभारतम्
नवमपर्व
महाभारतम्-09-शल्यपर्व-062
वेदव्यासः
शल्यपर्व-063 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 005ब
  7. 006
  8. 007
  9. 008
  10. 009
  11. 010
  12. 011
  13. 012
  14. 013
  15. 014
  16. 015
  17. 016
  18. 017
  19. 018
  20. 019
  21. 020
  22. 021
  23. 022
  24. 023
  25. 024
  26. 025
  27. 026
  28. 027
  29. 028
  30. 029
  31. 030
  32. 031
  33. 032
  34. 033
  35. 034
  36. 035
  37. 036
  38. 037
  39. 038
  40. 039
  41. 040
  42. 041
  43. 042
  44. 043
  45. 044
  46. 045
  47. 046
  48. 047
  49. 048
  50. 049
  51. 050
  52. 051
  53. 052
  54. 053
  55. 054
  56. 055
  57. 056
  58. 057
  59. 058
  60. 059
  61. 060
  62. 061
  63. 062
  64. 063
  65. 064
  66. 065
  67. 066

पाञ्चालादिभिर्भीमस्तुतिः।। 1 ।। कृष्णादुर्योधनयोः परस्परगर्हणम्।। 2 ।। दुर्योधनेनात्मस्तुतौ तन्मूर्धि गन्धर्वैः पुष्पवर्षणम्।। 3 ।। भीष्मादिमरणेन दुःखितानां पाण्डवानां कृष्णेन समाश्वासनम्।। 4 ।।

धृतराष्ट्र उवाच। 9-62-1x
हतं दुर्योधनं दृष्ट्वा भीमसेनेन संयुगे।
पाण्डवाः सृञ्जयाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।
9-62-1a
9-62-1b
स़ञ्जय उवाच। 9-62-2x
हतं दुर्योधनं दृष्ट्वा भीमसेनेन संयुगे।
सिंहेनेव महाराज मत्तं वनगजं यथा।।
9-62-2a
9-62-2b
प्रहृष्टमनसस्तत्र कृष्णेन सह पाण्डवाः।
पाञ्चालाः सृञ्जयाश्चैव निहते कुरुनन्दने।
आविध्यन्नुत्तरीयाणि सिंहनादांश्च नेदिरे।।
9-62-3a
9-62-3b
9-62-3c
नैतान्हर्षसमाविष्टानियं सेहे वसुन्धरा।। 9-62-4a
धनूंष्येके व्याक्षिपन्त ज्याश्चाप्यन्ये तथाऽक्षिपन्।
दध्मुरन्ये महाशङ्खानन्ये जघ्नुश्च दुन्दुभीन्।।
9-62-5a
9-62-5b
चिकीडुश्च तथैवान्ये जहसुश्च तवाहिताः।
अब्रुवंश्चासकृद्वीरा भीमसेनमिदं वचः।।
9-62-6a
9-62-6b
दुष्करं भवता कर्म रणेऽद्य सुमहत्कृतम्।
कौरवेयं रणे हत्वा गदयाऽतिकृतश्रमम्।।
9-62-7a
9-62-7b
इन्द्रेणेव हि वृत्रस्य वधं परमसंयुगे।
त्वया कृतममन्यन्त शत्रोर्वधमिमं जनाः।।
9-62-8a
9-62-8b
चरन्तं विविधान्मार्गान्मण्डलानि च सर्वशः।
दुर्योधनमिमं शूरं कोऽन्यो हन्याद्वृकोदरात्।।
9-62-9a
9-62-9b
वैरस्य च गतः पारं त्वमिहान्यैः सुदुर्गमम्।
अशक्यमेतदन्येन सम्पादयितुमीदृशम्।।
9-62-10a
9-62-10b
कुञ्जरेणेव मत्तेन वीरसङ्ग्राममूर्धनि।
दुर्योधपशिरो दिष्ट्या पादेन मृदितं त्वया।।
9-62-11a
9-62-11b
सिंहेन महिषस्येव कृत्वा सङ्गरमुत्तमम्।
दुःशासनस्य रुधिरं दिष्ट्या पीतं त्वयाऽनघ।।
9-62-12a
9-62-12b
ये विप्रकुर्वन्राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
मूर्ध्नि तेषां कृतः पादो दिष्ट्या ते स्वेन कर्मणा।।
9-62-13a
9-62-13b
अमित्राणामधिष्ठानाद्वधाद्दुर्योधनस्य च।
भीम दिष्ट्या पृथिव्यां ते प्रथितं सुमहद्यशः।।
9-62-14a
9-62-14b
एवं नूनं हते वृत्रे शक्रं नन्दन्ति बन्दिनः।
तथा त्वां निहतामित्रं वयं नन्दाम भारत।।
9-62-15a
9-62-15b
दुर्योधनवधे यानि रोमाणि हृषितानि नः।
अद्यापि न विकृष्यन्ते तानि तद्विद्धि भारत।
इत्यब्रुन्भीमसेनं वातिकास्तत्र सङ्गताः।।
9-62-16a
9-62-16b
9-62-16c
तान्हृष्टान्पुरुषव्याघ्रान्पाञ्चालान्पाण्डवैः सह।
ब्रुवतोऽसदृशं तत्र प्रोवाच मधुसूदनः।।
9-62-17a
9-62-17b
न न्याय्यं निहतं शत्रुं भूयो हन्तुं नराधिपाः।
असकृद्वाग्भिरुग्राभिर्निहतो ह्येष मन्दधीः।।
9-62-18a
9-62-18b
तदैवैष हतः पापो यदैव निरपत्रपः।
लुब्धः पापसहायश्च सुहृदां शासनातिगः।।
9-62-19a
9-62-19b
बहुशो विदुरद्रोणकृपगाङ्गेयसृञ्जयैः।
पाण्डुभ्यः प्रार्थ्यमानोऽपि पित्र्यमंशं न दत्तवान्।।
9-62-20a
9-62-20b
नैव तेभ्योऽद्य मित्रं वा शत्रुर्वा पुरुषाधमः।
किमनेन वितुन्नेन वाग्भिः काष्ठसधर्मणा।।
9-62-21a
9-62-21b
रथेष्वारोहत क्षिप्रं गच्छामो वसुधाधिपाः।
दिष्ट्या हतोऽयं पापात्मा सामात्यज्ञातिबान्धवः।।
9-62-22a
9-62-22b
इति श्रुत्वा त्वधिक्षेपं कृष्णाद्दुर्योधनो नृपः।
अमर्षवशमापन्न उदतिष्ठद्विशाम्पते।।
9-62-23a
9-62-23b
स्फिग्देशेनोपविष्टः स दोर्भ्यां विष्टभ्य मेदिनीम्।
दृष्टिं भ्रूसङ्कटां कृत्वा वासुदेवे न्यपातयत्।।
9-62-24a
9-62-24b
अर्धोन्नतशरीरस्य रूपमासीन्नृपस्य तु।
क्रुद्धस्याशीविषस्येव च्छिन्नपुच्छस्य भोगिनः।।
9-62-25a
9-62-25b
प्राणान्तकरिणीं घोरां वेदनामप्यचिन्तयन्।
दुर्योधनो वासुदेवं वाग्भिरुग्राभिरार्दयत्।।
9-62-26a
9-62-26b
कंसदासस्य दायाद न ते लज्जाऽस्त्यनेन वै।
अधर्मेण गदायुद्धे यदर्हं विनिपातितः।
ऊरूभिन्धीति भीमस्य स्मृतिं मिथ्याप्रयच्छता।।
9-62-27a
9-62-27b
9-62-27c
किं न विज्ञातमेतन्मे यदर्जुनमवोचथाः।
घातयित्वा महीपालानृजुयुद्धान्सहस्रशः।
जिह्मैरुपायैर्बहुभिर्न ते लज्जा न ते घृणा।।
9-62-28a
9-62-28b
9-62-28c
अहन्यहनि शूराणां कुर्वाणः कदनं महत्।
शिखण्डिनं पुरस्कृत्य घातितस्ते पितामहः।।
9-62-29a
9-62-29b
अश्वत्थाम्नः सनामानं हत्वा नागं सुदुर्मते।
आचार्यो न्यासितः शस्त्रं किं तन्न विदितं मया।।
9-62-30a
9-62-30b
स चानेन नृशंसेन धृष्टद्युम्नेन वीर्यवान्।
पात्यमानस्त्वया दृष्टो न चैनं त्वमवारयः।।
9-62-31a
9-62-31b
वधार्थं पाण्डुपुत्रस्य याचितां शक्तिमेव च।
घटोत्कचे व्यंसयतः कस्त्वत्तः पापकृत्तमः।।
9-62-32a
9-62-32b
छिन्नहस्तः प्रायगतस्तथा भूरिश्रवा बली।
त्वयाऽभिसृष्टेन हतः शैनेयेन दुरात्मना।।
9-62-33a
9-62-33b
कुर्वाणश्चोत्तमं कर्म कर्णः पार्थजिगीषया।
व्यंसनेनाश्वसेनस्य पन्नगेन्द्रस्य वै पुनः।।
9-62-34a
9-62-34b
पुनश्च पतिते चक्रे व्यसनार्तः पराजितः।
पापितः समरे कर्णश्चक्रव्याग्रोऽग्रणीर्नृणाम्।।
9-62-35a
9-62-35b
यदि मां चापि कर्णं च भीष्मद्रोणौ च संयुगे।
ऋजुना प्रतियुध्येथा न ते स्याद्विजयो ध्रुवम्।।
9-62-36a
9-62-36b
त्वया पुनरनार्येण जिह्ममार्गेण पार्थिवाः।
स्वधर्ममनुतिष्ठन्तो वयं चान्ये च घातिताः।।
9-62-37a
9-62-37b
`त्वया मायाविना कृष्ण मायां कर्मप्रमोषिणीम्।
कृत्वा हतः सिन्धुपतिः किं तन्न विदितं मम'।।
9-62-38a
9-62-38b
वासुदेव उवाच। 9-62-39x
हतस्त्वमसि गान्धारे सभ्रातृसुतबान्धवः।
सगणः ससुहृच्चैव पापं मार्गमनुष्ठितः।।
9-62-39a
9-62-39b
तवैव दुष्कृतैर्वीरौ भीष्मद्रोणौ निपातितौ।
कर्णश्च निहतः सङ्ख्ये तव शीलानुवर्तकः।।
9-62-40a
9-62-40b
याच्यमानं मया मूढ पित्र्यमंशं न दित्ससि।
पाण्डवेभ्यः स्वराज्यं च लोभाच्छकुनिनिश्चयात्।।
9-62-41a
9-62-41b
विषं ते भीमसेनाय दत्तं सर्वे च पाण्डवाः।
प्रदीपिता जतुगृहे मात्रा सह सुदुर्मते।।
9-62-42a
9-62-42b
सभायां याज्ञसेनी च कृष्टा द्यूते रजस्वला।
तदैव तावद्दुष्टात्मन्वध्यस्त्वं निरपत्रप।।
9-62-43a
9-62-43b
अनक्षज्ञं च धर्मज्ञं सौबलेनाक्षवेदिना।
निकृत्या यत्पराजैषीस्तस्मादसि हतो रणे।।
9-62-44a
9-62-44b
जयद्रथेन पापेन यत्कृष्णा क्लेशिता वने।
यातेषु मृगयां चैव तृणबिन्दोरथाश्रमम्।।
9-62-45a
9-62-45b
अभिमन्युश्च यद्बाल एको बहुभिराहवे।
त्वद्दोषैर्निहतः पाप तस्मादसि हतो रणे।।
9-62-46a
9-62-46b
`कुर्वाणं कर्म समरे पाण्डवानर्थकाङ्क्षिणम्।
यच्छिखण्ड्यवधीद्भीष्मं मित्रार्थे न व्यतिक्रमः।।
9-62-47a
9-62-47b
स्वधर्मं पृष्ठतः कृत्वा आचार्यस्त्वत्प्रियेप्सया।
पार्षतेन हतः सङ्ख्ये वर्तमानोऽसतां पथि।।
9-62-48a
9-62-48b
प्रतिज्ञामात्मनः सत्यां चिकीर्षन्समरे निपुम्।
हतवान्सात्वतो विद्वान्सौमदत्तिं महारथम्।।
9-62-49a
9-62-49b
अर्जुनः समरे राजन्युध्यमानः कदाचन।
निन्दितं पुरुषव्याघ्रः करोति न कथञ्चन।।
9-62-50a
9-62-50b
लब्ध्वाऽपि बहुधा छिद्रं वीरवृत्तमनुस्मरन्।
निजघान रणे कर्णं मैवं वोचः सुदुर्मते।।
9-62-51a
9-62-51b
देवानां मतमाज्ञाय तेषां प्रियहितेप्सया।
अर्जुनस्य महानागं मया व्यंसितमस्त्रजम्।।
9-62-52a
9-62-52b
त्वं च भीष्मश्च कर्णश्च द्रोणो द्रौणायनिस्तथा।
विराटनगरे तस्य ह्यानृशंस्येन जीविताः।।
9-62-53a
9-62-53b
स्मर पार्थस्य विक्रान्तं गन्धर्वेषु कृतं तथा।
अधर्मं नात्र गान्धारे पाण्डवैर्यत्कृतं त्वयि।।
9-62-54a
9-62-54b
स्वबाहुबलमास्थाय स्वधर्मेण परन्तपाः।
जितवन्तो रणे वीराः पापोसि निधनं गतः'।।
9-62-55a
9-62-55b
[यान्यकार्याणि चास्माकं कृतानिति प्रभाषसे।
वैगुण्येन तवात्यर्थं सर्वं हि तदनुष्ठितम्।।
9-62-56a
9-62-56b
बृहस्पतेरुशनसो नोपदेशः श्रुतस्त्वया।
वृद्धा नोपासिताश्चैव हितं वाक्यं न ते श्रुतभ्।।
9-62-57a
9-62-57b
लोभेनातिबलेन त्वं तृष्णया च वशीकृतः।
कृतवानस्यकार्याणि विपाकस्तस्य भुज्यताम्।।]
9-62-58a
9-62-58b
दुर्योधन उवाच। 9-62-59x
अधीतं विधिवद्दत्तं भूः प्रभुक्ता ससागरा।
मूर्ध्नि स्थिममित्राणां को नु स्वन्ततरो मया।।
9-62-59a
9-62-59b
यदिष्टं क्षत्रबन्धूनां स्वधर्ममनुपश्यताम्।
तदिदं निधनं प्राप्तं को नु स्वन्ततरो मया।।
9-62-60a
9-62-60b
देवार्हा मानुषा भोगाः प्राप्ता असुलभा नृपैः।
ऐश्वर्यं चोत्तमं प्राप्तं को नु स्वन्ततरो मया।।
9-62-61a
9-62-61b
ससुहृत्सानुबन्धस्च स्वर्गं गन्ताऽहमच्युत।
यूयं गर्हितसङ्कल्पाः शोचन्तो वर्तयिष्यथ।।
9-62-62a
9-62-62b
`न मे विषादो भीमेन पादेन शिर आहतम्।
काका वा कङ्कगृध्रा वा निधास्यन्ति पदं क्षणात्'।।
9-62-63a
9-62-63b
सञ्जय उवाच। 9-62-64x
अस्य वाक्यस्य निधने कुरुराजस्य धीमतः।
अपतत्सुमहद्वर्षं पुष्पाणां पुण्यगन्धिनाम्।।
9-62-64a
9-62-64b
अवादयन्त गन्धर्वा वादित्रं सुमनोहरम्।। 9-62-65a
जगुश्चाप्सरसो राज्ञो यशः सम्बद्धमेव च।
सिद्धाश्च मुमुचुर्वाचः साधुसाध्विति पार्थिव।।
9-62-66a
9-62-66b
ववौ च सुरभिर्वायुः पुण्यगन्धो मृदुःसुखः।
व्यराजंश्च दिशः सर्वा नभो वैदूर्यसन्निभम्।।
9-62-67a
9-62-67b
अत्यद्भुतानि ते दृष्ट्वा वासुदेवपुरोगमाः।
दुर्योधनस्य पूजां तु दृष्ट्वा व्रीडामुपागमन्।।
9-62-68a
9-62-68b
हतांश्चाधर्मतः श्रुत्वा शोकार्ताः शुशुचुर्हि ते।
भीष्मं द्रोणं तथा कर्णं भूरिश्रवसमेव च।।
9-62-69a
9-62-69b
तांस्तु चिन्तापरान्दृष्ट्वा पाण्डवान्दीनचेतसः।
प्रोवाचेदं वचः कृष्णो मेघदुन्दुभिनिस्वनः।।
9-62-70a
9-62-70b
नैष शक्योऽतिशीघ्रास्त्रस्ते च सर्वे महारथाः।
ऋजुयुद्धेन विक्रान्ता हन्तुं युष्माभिराहवे।।
9-62-71a
9-62-71b
उपायान्निहता ह्येते मया तस्मान्नराधिपाः।
अन्यथा पाण्डवेयानां नाभविष्यज्जयः क्वचित्।।
9-62-72a
9-62-72b
ते हि सर्वे महेष्वासाश्चत्वारोऽतिरथा मुवि।
अशक्या धर्मतो हन्तुं लोकपालैरपि स्वयम्।।
9-62-73a
9-62-73b
तथैवायं गदापाणिर्धार्तराष्ट्रो गतश्रमः।
अशक्यो धर्मतो हन्तुं कालेनापि दि दण्डिना।।
9-62-74a
9-62-74b
नैतन्मनसि कर्तव्यं यदयं निहतो नृपः।
मिथ्याचर्याच्छलोपायैर्बहवः शत्रवो हताः।।
9-62-75a
9-62-75b
पूर्वैरनुगतो मार्गो देवैरसुरघातिभिः।
सद्भिश्चानुगतः पन्थाः सर्वैरनुगमिष्यते।।
9-62-76a
9-62-76b
`एवं विधात्रा विहितं स्वयमेषां महात्मनाम्।
दैवं पुरुषकारेण न शक्यमतिवर्तितुम्।।
9-62-77a
9-62-77b
भूतं भव्यं भविष्यच्च निमेषाद्यो हनिष्यति।
कृतान्तमन्यथा कर्तुं नेच्छेत्सोऽयं धनञ्जय।।'
9-62-78a
9-62-78b
कृतकृत्याः स्म सायाह्ने निवासं रोचयामहे।
साश्वनागरथाः सर्वे विश्राम्यन्तु नराधिपाः।।
9-62-79a
9-62-79b
वासुदेववचः श्रुत्वा तदानीं पाण्डवैः सह।
पाञ्चाला भृशसंहृष्टा विनेदुः सिंहसङ्घवत्।।
9-62-80a
9-62-80b
ततः प्राध्मापयच्छङ्खं पाञ्चजन्यं जनार्दनः।
`देवदत्तं प्रहृष्टात्मा शङ्खप्रवरमर्जुनः।।
9-62-81a
9-62-81b
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
पोण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः।।
9-62-82a
9-62-82b
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।
धृष्टद्युम्नस्तथा जैत्रं सात्यकिर्नन्दिवर्धनम्।।
9-62-83a
9-62-83b
तेषां नादेन महता शङ्खानां भरतर्षभ।
आपुपूरे नभः सर्वं पृथिवी च चचाल ह।।
9-62-84a
9-62-84b
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
पाण्डुसैन्येष्ववाद्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।
9-62-85a
9-62-85b
अस्तुवन्पाण्डवानन्ये निर्भीश्च स्तुतिमङ्गलैः'।
हृष्टा दुर्योधनं दृष्ट्वा निहतं पुरुषर्षभाः।।
9-62-86a
9-62-86b
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि
गदायुद्धपर्वणि द्विषष्टितमोऽध्यायः।। 62 ।।

9-62-21 नैष योग्योऽद्य मित्रं वेति झ.पाठः।। 9-62-62 द्विषष्टितमोऽध्यायः।।

शल्यपर्व-061 पुटाग्रे अल्लिखितम्। शल्यपर्व-063