लिङ्गपुराणम् - उत्तरभागः/अध्यायः ५३

विकिस्रोतः तः
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
लिङ्गपुराणम् - उत्तरभागः
  1. अध्यायः १
  2. अध्यायः २
  3. अध्यायः ३
  4. अध्यायः ४
  5. अध्यायः ५
  6. अध्यायः ६
  7. अध्यायः ७
  8. अध्यायः ८
  9. अध्यायः ९
  10. अध्यायः १०
  11. अध्यायः ११
  12. अध्यायः १२
  13. अध्यायः १३
  14. अध्यायः १४
  15. अध्यायः १५
  16. अध्यायः १६
  17. अध्यायः १७
  18. अध्यायः १८
  19. अध्यायः १९
  20. अध्यायः २०
  21. अध्यायः २१
  22. अध्यायः २२
  23. अध्यायः २३
  24. अध्यायः २४
  25. अध्यायः २५
  26. अध्यायः २६
  27. अध्यायः २७
  28. अध्यायः २८
  29. अध्यायः २९
  30. अध्यायः ३०
  31. अध्यायः ३१
  32. अध्यायः ३२
  33. अध्यायः ३३
  34. अध्यायः ३४
  35. अध्यायः ३५
  36. अध्यायः ३६
  37. अध्यायः ३७
  38. अध्यायः ३८
  39. अध्यायः ३९
  40. अध्यायः ४०
  41. अध्यायः ४१
  42. अध्यायः ४२
  43. अध्यायः ४३
  44. अध्यायः ४४
  45. अध्यायः ४५
  46. अध्यायः ४६
  47. अध्यायः ४७
  48. अध्यायः ४८
  49. अध्यायः ४९
  50. अध्यायः ५०
  51. अध्यायः ५१
  52. अध्यायः ५२
  53. अध्यायः ५३
  54. अध्यायः ५४
  55. अध्यायः ५५

ऋषय ऊचुः।।
मृत्युंजयविधिं सूत ब्रह्मक्षत्रविशामपि।।
वक्तुमर्हसि चास्माकं सर्वज्ञोऽसि महामते।। ५३.१ ।।

सुत उवाच।।
मृत्युंजयविधिं वक्ष्ये बहुना किं द्विजोत्तमाः।।
रुद्राध्यायेन विधिना घृतेन नियुतं क्रमात्।। ५३.२ ।।

सघृतेन तिलेनैव कमलेन प्रयत्नतः।।
दूर्वया घृतगोक्षीरमिश्रया मधुना तथा।। ५३.३ ।।

चरुणा सघृतेनैव केवलं पयसापि वा।।
जुहुयात्काल मृत्योर्वा प्रतीकारः प्रकीर्तितः।। ५३.४ ।।

इति श्रीलिंगमहापुराणे उत्तरभागे त्रिपंचाशत्तमोऽध्यायः।। ५३ ।।