लिङ्गपुराणम् - उत्तरभागः/अध्यायः ५

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लिङ्गपुराणम् - उत्तरभागः
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ऋषय ऊचुः।।
ऐक्ष्वाकुरंबरीषो वै वासुदेवपरायणः।।
पालयामास पृथिवीं विष्णोराज्ञापुरः सरः।। ५.१ ।।

श्रुतमेतन्महाबुद्धे तत्सर्वं वक्तुमर्हसि।।
नित्यं तस्य हरेश्चक्रं शत्रुरोगभयादिकम्।। ५.२ ।।

हंतीति श्रूयते लोके धार्मिकस्य महात्मनः।।
अंबरीषस्य चरितं तत्सर्वं ब्रूहि सत्तम।। ५.३ ।।

माहात्म्यमनुभावं च भक्तियोगमनुत्तमम्।।
यथावच्छ्रोतुमिच्छामः सूत वक्तुं त्वमर्हसि।। ५.४ ।।

सूत उवाच।।
श्रूयतां मुनिशार्दूलाश्चरितं तस्य धीमतः।।
अंबरीषस्य माहात्म्यं सर्वपापहरं परम्।। ५.५ ।।

त्रिशंकोर्दयिता भार्या सर्वलक्षणशोभिता।।
अंबरीषस्य जननी नित्यं शौचसमन्विता।। ५.६ ।।

योगनिद्रासमारूढं शेषपर्यंकशायिनम्।।
नारायणं महात्मानं ब्रह्मांडकमलोद्भवम्।। ५.७ ।।

तमसा कालरुद्राख्यं रजसा कनकांडजम्।।
सत्त्वेन सर्वगं विष्णुं सर्वदेवनमस्कृतम्।। ५.८ ।।

अर्चयामाम सततं वाङ्मनः कायकर्मभिः।।
माल्यदानादिकं सर्वं स्वयमेवमचीकरत्।। ५.९ ।।

गंधादिषेषणं चैव धूपद्रव्यादिकं तथा।।
भूमेरालेपनादीनि हविषां पचनं तथा।। ५.१० ।।

तत्कौतुकसमाविष्टा स्वयमेव चकार सा।।
शुभा पद्मावती नित्यं वाचा नारायणेति वै।। ५.११ ।।

अनंतेत्येव सा नित्यं भाषमाणा पतिव्रता।।
दशवर्षसहस्राणि तत्परेणांतरात्मना।। ५.१२ ।।

अर्चयामास गोविंदं गंधपुष्पादिभिः शुचिः।।
विष्णुभक्तान्महाभागान् सर्वपापविवर्जितान्।। ५.१३ ।।

दानमानार्चनैर्नित्यं धनरत्नैरतोषयत्।।
ततः कदाचित्सा देवी द्वादशीं समुपोष्य वै।। ५.१४ ।।

हरेरग्रे महाभागा सुष्वाप पतिना सह।।
तत्र नारायणो देवस्तामाह पुरुषोत्तमः।। ५.१५ ।।

किमिच्छसि वरं भद्रे मत्तस्त्वम ब्रूहि भामिनि।।
सा दृष्ट्वा तु वरं वव्रे पुत्रो मे वैष्णवो भवेत्।। ५.१६ ।।

सार्वभौमो महातेजाः स्वकर्मनिरतः शुचिः।।
तथेत्युक्तवा ददौ तस्यै फलमेकं जनार्दनः।। ५.१७ ।।

सा प्रबुद्धा फलं दृष्ट्वा भर्त्रे सर्वं न्यवेदयत्।।
भक्षयामास संहृष्टा फलं तद्गतमानसा।। ५.१८ ।।

ततः कालेन सा देवी पुत्रं कुलविवर्धनम्।।
असूत सा सदाचारं वासुदेवपरायणम्।। ५.१९ ।।

शुभलक्षणसंपन्नं चक्रांकिततनूरुहम्।।
जातं दृष्ट्वा पिता पुत्रं क्रियाः सर्वाश्चकार वै।। ५.२० ।।

अंबरीष इति ख्यातो लोके समभवत्प्रभुः।।
पितर्युपरते श्रीमानभिषिक्तो महामुनिः।। ५.२१ ।।

मंत्रिष्वाधाय राज्यं च तप उग्रंचकार सः।।
संवत्सरसहस्रं वै जपन्नारायणं प्रभुम्।। ५.२२ ।।

हृत्पुंडरीकमध्यस्थं सूर्यमंडलमध्यतः।।
शंखचक्रगदापद्मधारयंतं चतुर्भुजम्।। ५.२३ ।।

शुद्धजांबूनदनिभं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम्।।
सर्वाभरणसंयुक्तं पीतांबरधरं प्रभुम्।। ५.२४ ।।

श्रीवत्सवक्षसं देवं पुरुषं पुरुषोत्तमम्।।
ततो गरुडमारुह्य सर्वदेवैरभिष्टुतः।। ५.२५ ।।

आजगाम स विश्वात्मा सर्वलोकनमस्कृतः।।
ऐरावतमिवाचिंत्यं कृत्वा वै गरुडंहरिः।। ५.२६ ।।

स्वयं शक्र इवासीनस्तमाह नृपसत्तमम्।।
इंद्रोऽहमस्मि भद्रं ते किं ददामि वरं च ते।। ५.२७ ।।

सर्वलोकेश्वरोऽहं त्वांरक्षितुं समुपागतः।।
अंबरीष उवाच।।
नाहं त्वमाभिसंधाय तप आस्थितवानिह।। ५.२८ ।।

त्वया दत्तं च नेष्यामि गच्छ शक्र यथासुखम्।।
मम नारायणो नाथस्तं नामामि जगत्पतिम्।। ५.२९ ।।

गच्छेद्र माकृथास्त्वत्र मम बुद्धिविलोपनम्।।
ततः प्रहस्य भगवान् स्वरूपमकरोद्वरीः।। ५.३० ।।

शार्ङ्गचक्रगदापाणिः खङ्गहस्तो जनार्दनः।।
गरुडोपरि सर्वात्मा नीलाचल इवापरः।। ५.३१ ।।

देवगंधर्वसंघैश्च स्तूयमानः समंततः।।
प्रणम्य स च संतुष्टस्तुष्टाव गरुडध्वजम्।। ५.३२ ।।

प्रसीद लोकनाथेश मम नाथ जनार्दन।।
कृष्ण विष्णो जगन्नाथ सर्वलोकनमस्कृत।। ५.३३ ।।

त्वमादिस्त्वमनादिस्त्वमनंतः पूरुषः प्रभुः।।
अप्रमेयो विभुर्विष्णुर्गोविंदः कमलेक्षणः।। ५.३४ ।।

महेश्वरांगजो मध्ये पुष्करः खगमः खगः।।
कव्यवाहः कपाली त्वं हव्यवाहः प्रभंजनः।। ५.३५ ।।

आदिदेवः क्रियानंदः परमात्मात्मनी स्थितः।।
त्वां प्रपन्नोस्मिगोविंद जय देवकिनंदन।।
जय देव जगन्नाथ पाहि मां पुष्करेक्षण।। ५.३६ ।।

नान्या गतिस्त्वदन्या मे त्वमेव शरणं मम।।
सूत उवाच।।
तमाह भगवान्विष्णुः किं ते हृदि चिकीर्षितम्।। ५.३७ ।।

तत्सर्वं ते प्रदास्यामि भक्तोसि मम सुव्रत।।
भक्तिप्रियोऽहं सततं तस्माद्दातुमिहागतः।। ५.३८ ।।

अंबरीष उवाच।।
लोकनाथ परानंद नित्यं मे वर्तते मतिः।।
वासुदेवपरो नित्यं वाङ्मनः कायकर्मभिः।। ५.३९ ।।

यथा त्वं देवदेवस्य भवस्य परमात्मनः।।
तथा भवाम्यहं विष्णो तव देव जनार्दन।। ५.४० ।।

पालियिष्यामि पृथिवीं कृत्वा वै वैष्णवं जगत्।।
यज्ञहोमार्चनैश्चैव तर्पयामि सुरोत्तमान्।। ५.४१ ।।

वैष्णवान्पालयिष्यामि निहनिष्यामि शात्रवान्।।
लोकतापभये भीत इति मे धीयते मतिः।। ५.४२ ।।

श्रीभगवानुवाच।।
एवमस्तु यथेच्छं वै चक्रमेतत्सुदर्शनम्।।
पुरा रुद्रप्रसादेन लब्धं वै दुर्लभं मया।। ५.४३ ।।

ऋषिशापादिकं दुःखं शत्रुरोगादिकं तथा।।
निहनिष्यति ते नित्यमित्युक्त्वांतरधीयत।। ५.४४ ।।

सूत उवाच।।
ततः प्रणम्य मुदितो राजा नारायणं प्रभुम्।।
प्रविश्य नगरीं रम्यामयोध्यां पर्यपालयत्।। ५.४५ ।।

ब्राह्मणादींश्च वर्णांश्च स्वस्वकर्मण्ययोजत्।।
नारायणपरो नित्यं विष्णुभक्तानकल्मषान्।। ५.४६ ।।

पालयामास हृष्टात्मा विशेषेण जनाधिपः।।
अश्वमेधशतैरिष्ट्वा वाजपेयशतेन च।। ५.४७ ।।

पालयामास पृथिवीं सागरावरणामिमाम्।।
गृहेगृहे हरिस्तस्थौ वेदघोषो गृहेगृहे।। ५.४८ ।।

नामघोषो हरेश्चैव यज्ञघोषस्तथैव च।।
अभवन्नृपशार्दूले तस्मिन् राज्यं प्रशासति।। ५.४९ ।।

नासस्या नातृणा भूमिर्न दुर्भिक्षादिभिर्युता।।
रागहीनाः प्रजा नित्यं सर्वोपद्रववर्जिताः।। ५.५० ।।

अंबरीषो महातेजाः पालयामास मेदिनीम्।।
तस्यैवंवर्तमानस्य कन्या कमललोचना।। ५.५१ ।।

श्रीमती नाम विख्याता सर्वलक्षणसंयुता ।।
प्रदानसमयं प्राप्ता देवमायेव शोभना।। ५.५२ ।।

तस्मिन्काले मुनिः श्रीमान्नारदोऽभ्यागतश्चवै।।
अंबरीषस्य राज्ञो वै पर्वतश्च महामतिः।। ५.५३ ।।

तावुभावागतौ दृष्ट्वा प्रणिपत्य यथाविधि।।
अंबरीषो महातेजाः पूजयामास तावृषी।। ५.५४ ।।

कन्यां तां रममाणां वै मेघमध्ये शतह्रदाम्।।
प्राह तां प्रेक्ष्य गवान्नारदः सस्मितस्तदा।। ५.५५ ।।

केयं राजन्महाभागा कन्या सुरसुतोपमा।।
ब्रूहि धर्मभृतां श्रेष्ठ सर्वलक्षणशोभिता।। ५.५६ ।।

राजोवाच।।
दुहितेयं मम विभो श्रीमती नाम नामतः।।
प्रदानसमयं प्राप्ता वरमन्वेषते शुभा।। ५.५७ ।।

इत्युक्तो मुनिशार्दूलस्तामैच्छन्नारदो द्विजाः।।
पर्वतोपि मुनिस्तां वै चकमे मुनिसत्तमाः।। ५.५८ ।।

अनुज्ञाप्य च राजानं नारदो वाक्यमब्रवीत्।।
रहस्याहूय धर्मात्मामम देहि सुतामिमाम्।। ५.५९ ।।

पर्वतो हि तथा प्राह राजानं रहसि प्रभुः।।
तावुभौ सह धर्मात्मा प्रणिपत्य भयार्दितः।। ५.६० ।।

उभौ भवंतौ कन्यां मे पार्थयानौ कथं त्वहम्।।
करिष्यामि महाप्राज्ञ श्रृणु नारद मे वचः।। ५.६१ ।।

त्वं च पर्वत मे वाक्यं श्रृणु वक्ष्यामि यत्प्रभो।।
क्न्येयं युवयोरेकं वरयिष्यति चेच्छुभा।। ५.६२ ।।

तस्मै कन्यां प्रयच्छामि नान्यथा शक्तिरस्ति मे।।
तथेत्युक्त्वा ततो भूयः श्वो यास्याव इति स्म ह।। ५.६३ ।।

इत्युक्त्वा मुनिसार्दूलौ जग्मतुः प्रीतिमानसौ।।
वासुदेवपरौ नित्यमुभौ ज्ञानविदांवरौ।। ५.६४ ।।

विष्णु लोकं ततो गत्वा नारदो मुनिसत्तमः।।
प्रणिपत्य हृषीकेशं वाक्यमेतदुवाच ह।। ५.६५ ।।

श्रोतव्यमस्ति भगवन्नाथ नारायण प्रभो।।
रहसि त्वां प्रवक्ष्यामि नमस्ते भुवनेश्वर।। ५.६६ ।।

ततः प्रहस्य गोविंदः सर्वानुत्सार्य तं मुनिम्।।
ब्रूहीत्याह च विश्वात्मा मुनिराह च केशवम्।। ५.६७ ।।

त्वदीयो नृपतिः श्रीमानंबरीषो महीपतिः।।
तस्य कन्या विशालाक्षी श्रीमती नाम नामतः।। ५.६८ ।।

परिणेतुमनास्तत्र गतोऽस्मि वचनं श्रृणु।।
पर्वतोऽयं मुनिः श्रीमांस्तव भृत्यस्तपोनिधिः।। ५.६९ ।।

तामैच्छत्सोपि भगवन्नावामाह जनाधिपः।।
अंबरीषो महातेजाः कन्येयं युवयोर्वरम्।। ५.७० ।।

लावण्ययुक्तं वृणुयाद्यदि तस्मै ददाम्यहम्।।
इत्याहावां नृपस्तत्र तथेत्युक्त्वाहमागतः।। ५.७१ ।।

आगमिष्यामि ते राजन् श्वः प्रभाते गृहं त्विति।।
आगतोहं जगन्नाथ कर्तुमर्हसि मे प्रियम्।। ५.७२ ।।

वानराननवद्भाति पर्वतस्य मुखं यथा।।
तथा कुरु जगन्नाथ मम चेदिच्छसि प्रियम्।। ५.७३ ।।

तथेत्युक्त्वा स गोविंदः प्रहस्त मधुसूदनः।।
त्वयोक्तं च करिष्यामि गच्छ सौम्य यथागतम्।। ५.७४ ।।

एवमुक्त्वा मुनिर्हृष्टः प्रणिपत्य जनार्दनम्।।
मन्यमानः कृतात्मानं तथाऽयोध्यां जगाम सः।। ५.७५ ।।

गते मुनिवरे तस्मिन्पर्वतोऽपि महामुनिः।।
प्रणम्य माधवं हृष्टो रहस्येनमुवाच ह।। ५.७६ ।।

वृत्तं तस्य निवेद्याग्रे नारदस्य जगत्पतेः।।
गोलांगूलमुखं यद्वन्मुखं भाति तथा कुरु।। ५.७७ ।।

तच्छ्रुत्वा भगवान्विष्णुस्त्वयोक्तं च करोमि वै।।
गच्छ शीघ्रमयोध्यां वै मावेदीर्नारदस्य वै।। ५.७८ ।।

त्वया मे संविदं तत्र तथेत्युक्त्वा जगाम सः।।
ततो राजा समाज्ञाय प्राप्तौ मुनिवरौ तदा।। ५.७९ ।।

मांगल्यैर्विविधैः सर्वामयोध्यां ध्वजमालिनीम्।।
मडंयामास पुष्पैश्च लाजैर्श्चैव समंततः।। ५.८० ।।

अंबुसिक्तगृहद्वारां सिक्तापणमहापथाम्।।
दिव्यगंधरसोपेतां धूपितां दिव्यधूपकैः।। ५.८१ ।।

कृत्वा च नगरीं राजा मंडयामास तां सभाम्।।
दिव्यैर्गंधैस्तथा धूपै रत्नैश्च विविधैस्तथा।। ५.८२ ।।

अलंकृतां मणिस्तंभैर्नानामाल्योपशोभिताम्।।
परार्ध्यास्तरणोपेतैर्दिव्यैर्भद्रासनैर्वृताम्।। ५.८३ ।।

कृत्वा नृपेंद्रस्तां कन्यां ह्यादाय प्रविवेश ह।।
सर्वाभरणसंपन्नां श्रीरिवायतलोजनाम्।। ५.८४ ।।

करसंमितमध्यांगीं पंचस्निग्धां शुभाननाम्।।
स्त्रीभिः परिवृतां दिव्यां श्रीमतीं संश्रितां तदा।। ५.८५ ।।

सभा च सा भूपपेः समृद्धा मणिप्रवेकोत्तमरत्नचित्रा।।
न्यस्ता सना माल्यवती सुबद्धा तामाययुस्ते नरराजवर्गाः।। ५.८६ ।।

अथापरो ब्रह्मवरात्मजो हि त्रैविद्यविद्यो भगवान्महात्मा।।
सपर्वतो ब्रह्मविदांव रिष्ठो महामुनिर्नारद आजगाम।। ५.८७ ।।

तावगतौ समीक्ष्याथ राजा संभ्रांतमानसः।।
दिव्यमासनामादाय पूजयामास तावुभौ।। ५.८८ ।।

उभौ देवर्षिसिद्धौ ज्ञानविदां वरौ।।
समासीनौ महात्मानौ कन्यार्थं मुनिसत्त्मौ।। ५.८९ ।।

तावुभौ प्रणिपत्याग्रे कन्यां तां श्रीमतीं शुभाम्।।
सुतां कमलपत्राक्षीं प्राह राजा यशस्विनीम्।। ५.९० ।।

अनयोर्यं वरं भद्रे मनसा त्मविहेच्छसि।।
तस्मै मालामिमांदेहि प्रणिपत्य यथाविधि।। ५.९१ ।।

एवमुक्ता तु सा कन्या स्त्रीभिः परिवृता तदा।।
मालां हिरण्मयीं दिव्यामादाय सुभलोचना।। ५.९२ ।।

यत्रासीनौ महात्मानौ तत्रागम्यस्थिता तदा।।
वीक्षमाणा मुनिश्रेष्ठौ नारदं पर्वतं तथा।। ५.९३ ।।

मुनिश्रेष्ठं न पश्यामि नारदं पर्वतं तथा।।
अनयोर्मध्यतस्त्वेकमूनषोडशवार्षिकम्।। ५.९४ ।।

संभ्रांतमानसा तत्र प्रवातकदली यथा।।
तस्थौ तामहा राजासौ वत्से किं त्वं करिष्यसि।। ५.९५ ।।

अनयोरेक मुद्दिश्य देहि मालामिमां शुभे।।
सा प्राह पितरं त्रस्ता इमौ तौ नरवानरौ।। ५.९६ ।।

मुनिश्रेष्ठं न पश्यामि नारदं पर्वतं तथा।।
अनयोर्मध्यतस्त्वेकमूनषोडशवार्षिकम्।। ५.९७ ।।

सर्वाभरणसंपन्नमतसीपुष्पसंनिभम्।।
दीर्घबाहुं विशालाक्षं तुंगोरस्थमुत्तमम्।। ५.९८ ।।

रेखांकितकटिग्रीवं रक्तांतायलोचनम्।।
नम्रचापानुकरणपटुभ्रूयुगशोभितम्।। ५.९९ ।।

विभक्तत्रिवलीव्यक्तं नाभिव्यक्तशुभोदरम्।।
हिरण्यांबरसंवीतं तुंगरत्ननखं शुभम्।।
पद्माकारकरं त्वेनं पद्मास्यं पद्मलोचनम्।। ५.१०० ।।

सुनासं पद्महृदयं पद्मनाभं श्रिया वृतम्।।
दंतपंक्तिभिरत्यर्थं कुंदकुड्मलसन्निभैः।। ५.१०१ ।।

हसंतं मां समालोक्य दक्षिणं च प्रसार्य वै।।
पाणिं स्थितममुं तत्र पश्यामि शुभमूर्धजम्।। ५.१०२ ।।

संभ्रांतमानसां तत्र वेपतीं कदलीमिव।।
स्थितां तामाह राजासौ वत्से किं त्वं करिष्यसि।। ५.१०३ ।।

एवमुक्ते मुनिः प्राह नारदः संशयंगतः।।
कियन्तो बाहवस्तस्य कन्ये ब्रूहि यथातथम्।। ५.१०४ ।।

बाहुद्वयं च पश्यामीत्याह कन्या शुचिस्मिता।।
प्राह तां पर्वतस्तत्र तस्य वक्षःस्थले शुभे।। ५.१०५ ।।

किं पश्यसि च मे ब्रूहि करे किं वास्य पश्यसि।।
कन्या तमाह मालां वै पंचरूपामनुत्तमाम्।। ५.१०६ ।।

वक्षःस्थलेऽस्य पश्यामि करे कार्मुकसायकान्।।
एवमुक्तौ मुनिश्रेष्ठौ परस्परमनुत्तमौ।। ५.१०७ ।।

मनसा चिंतयंतौ मायेयं कस्य चिद्भवेत्।।
मायावी तस्करो नूनं स्वयमेव जनार्दनः।। ५.१०८ ।।

आगतो न यता कुर्यात्कथमस्मन्मुखं त्विदम्।।
गोलांगूलत्वमित्येवं चिंतया मास नारदः।। ५.१०९ ।।

पर्वतोपि यथान्यायं वानरत्वं कथं मम।।
प्राप्तमित्येव मनसा चिंतामापेदिवांस्तथा।। ५.११० ।।

ततो राजा प्रणम्यासौ नारदं पर्वतं तथा।।
भवद्भ्यां किमिदं तत्र कृतं बुद्धिविमोहजम्।। ५.१११ ।।

स्वस्थौ भवंतौ तिष्ठेतां यथा कन्यार्थ मुद्यतौ।।
एवमुक्तौ मुनिश्रेष्ठौ नृपमूचतुरुल्बणौ।। ५.११२ ।।

त्वमेव मोहं कुरुषे नावामिह कथंचन।।
आवयोरेकमेषा ते वरयत्वेव माचिरम्।। ५.११३ ।।

ततः सा कन्यका भूयः प्रणिप्तयेष्टदेवताम्।।
मायामादाय तिष्ठंतं तयोर्मध्ये समाहितम्।। ५.११४ ।।

सर्वाभरणसंयुक्त मतसीपुष्पसन्निभम्।।
दीर्घबाहुं सुपुष्टांगं कर्णांतायतलोचनम्।। ५.११५ ।।

पूर्ववत्पुरुषं दृष्ट्वा मालां तस्मै ददौ हि सा।।
अनंतरं हि सा कन्या न दृष्टा मनुजैः पुनः।। ५.११६ ।।

ततो नादः समभवत् किमेतदिति विस्मितौ।।
तामादाय गतो विष्णुः स्वस्थानं पुरुषोत्तमः।। ५.११७ ।।

पुरा तदर्थमनिशं तपस्तप्त्वा वरांगना।।
श्रीमती सा समुत्पन्ना सा गता च तथा हरिम्।। ५.११८ ।।

तावुभौ मुनिशार्दूलौ धिक्कृतावति दुःखितौ।।
वासुदेवं प्रति तदा जग्मतुर्भवनं हरेः।। ५.११९ ।।

तावागतौ समीक्ष्याह श्रीमतिं भगवान्हरिः।।
मुनिश्रेष्ठौ समायातौ गूहस्वात्मानमत्र वै।। ५.१२० ।।

तथेत्युक्त्वा च सा देवी प्रहसंती चकार ह।।
नारदः प्रणिपत्याग्रे प्राह दामोदरं हरिम्।। ५.१२१ ।।

प्रियं हि कृतवानद्य मम त्वं पर्वतस्य हि।।
त्वमेव नूनं गोविंद कन्यां तां हृतवानासि।। ५.१२२ ।।

विमोह्यावां स्वयं बुद्ध्या प्रतार्य सुरसत्तम।।
इत्युक्तः पुरषो विष्णुः पिधाय श्रोत्रमच्युतः।।
पाणिभ्यां प्राह भगवान् भवद्भ्यां किमुदीरितम्।। ५.१२३ ।।

कामवानपि भावोयं मुनिवृत्तिरहो किल।।
एवमुक्तो मुनिः प्राह वासुदेवं स नारदः।। ५.१२४ ।।

कर्णमूले मम कथं गोलांगूलमुखं त्विति।।
कर्णमूले तमाहेदं वानरत्वं कृतं मया।। ५.१२५ ।।

पर्वतस्य मया विद्वन् गोलांगूलमुखं तव।।
मया तव कृतं तत्र प्रियार्थं नान्यथा त्विति।। ५.१२६ ।।

पर्वतोऽपि तथा प्राह तस्याप्येवं जगादसः।।
श्रृण्वतोरुभयोस्तत्र प्राह दामोदरो वचः।। ५.१२७ ।।

प्रियं भवद्भ्यां कृतवान् सत्येनात्मानमालभे।।
नारदः प्राह धर्मात्मा आवयोर्मध्यतः स्थितः।। ५.१२८ ।।

धनुष्मानन्पुरुषः कोन तां हृत्वा गतवान्किल।।
तच्छ्रुत्वा वासुदेवोऽसौ प्राह तौ मुनिसत्त्मौ।। ५.१२९ ।।

मायाविनो महात्मनो बहवः संति सत्तमाः।।
तत्र सा श्रीमती नूनमदृष्ट्वा मुनिसत्तमौ।। ५.१३० ।।

चक्रपाणिरहं नित्यं चतुर्बाहुरिति स्थितः।।
तां तथा नाहमैच्छं वै भवद्भ्यां विदितं हि तत्।। ५.१३१ ।।

इत्युक्तौ प्रणिपत्यैनमूचतुः प्रीतिमानसौ।।
कोऽत्र दोषस्तव विभो नारायण जगत्पते।। ५.१३२ ।।

दौरात्म्यं तन्नृपस्यैव मायां हि कृतवानसौ।।
इत्युक्त्वा जग्मतुस्तस्मान्मुनीनारदपर्वतौ।। ५.१३३ ।।

अंबरीषं समासाद्य शापेनैनमयोजयत्।।
नारदः पर्वतश्चैव यस्मादावामिहागतौ।। ५.१३४ ।।

आहूय पश्चादन्यस्मै कन्यां त्वं दत्तवानसि।।
मायायोगेन तस्मात्त्वं तमो ह्यभिभविष्यति।। ५.१३५ ।।

तेन चात्मानमत्यर्थं यथावत्त्वं च वेत्स्यसि।।
एवं शापेप्रदत्ते तु तमोराशिरथोत्थितः।। ५.१३६ ।।

नृपं प्रति ततश्चक्रं विष्णोः प्रादुरभूत् क्षणात्।।
चक्रवित्रासितं घोरं तावुभौ तम अभ्यगात्।। ५.१३७ ।।

ततः संत्रस्तसर्वांगौ धावमानौ महामुनी।।
पृष्ठतश्चक्रमालोक्य तमोराशिं दुरासदम्।। ५.१३८ ।।

कन्यासिद्धिरहो प्राप्ता ह्यावयोरिति वेगितौ।।
लोकालोकांतमनिशं धावमानौ भयार्दितौ।। ५.१३९ ।।

त्राहित्राहीति गोविंदं भाषमाणौ भयार्दितौ।।
विष्णुलोकं ततो गत्वा नारायण जगत्पते।। ५.१४० ।।

वासुदेव हृषीकेश पद्मनाभ जनार्दन।।
त्राह्यावां पुंडरीकाक्ष नाथोऽसि पुरुषोत्तम।। ५.१४१ ।।

ततो नारायणश्चिंत्य श्रीमाञ्छ्रीवत्सलांछनः।।
निवार्य चक्रं ध्वांतं च भक्तानुग्रहकाम्यया।। ५.१४२ ।।

अंबरीषश्च मद्भक्तस्तथैतौ मुनिसत्तमौ।।
अनयोरस्य च तथा हितं कार्यं मयाऽधुना।। ५.१४३ ।।

आहूय तत्तमः श्रीमान् गिरा प्रह्लादयन् हरिः।।
प्रोवाच भगवान् विष्णुः शृणुतां म इदंवचः।। ५.१४४ ।।

ऋषिशापो न चैवासीदन्यथा च वरो मम।।
दत्तो नृपाय रक्षार्थं नास्ति तस्यान्यथा पुनः।। ५.१४५ ।।

अंबरीषस्य पुत्रस्यनप्तुः पुत्रो महायशाः।।
श्रीमान्दसरथो नाम राजा भवति धार्मिकः।। ५.१४६ ।।

तस्याहमग्रजः पुत्रो रामनामा भवाम्यहम्।।
तत्र मे दक्षिणोबाहुर्भरतो नाम वै भवेत्।। ५.१४७ ।।

शत्रुघ्नो नाम सव्यश्च शेषोऽसौ लक्ष्मणः स्मृतः।।
तत्र मां समुपागच्छ गच्छेदानीं नृपं विना।। ५.१४८ ।।

मुनिश्रेष्ठौ च हित्वा त्वमिति स्माह च माधवः।।
एवममुक्तं तमो नाशं तत्क्षणाच्च जगाम वै।। ५.१४९ ।।

निवारितं हरेश्चक्रं यथापूर्वमतिष्ठत।।
मुनिश्रेष्ठौ भयान्मुक्तौ प्रणिपत्य जनार्दनम्।। ५.१५० ।।

निर्गतौ शोकसंतप्तौ ऊचतुस्तौ परस्परम्।।
अद्यप्रभृति देहांतमावां कन्यापरिग्रहम्।। ५.१५१ ।।

न करिष्याव इत्युक्त्वा प्रतिज्ञाय च तावृषी।।
योगध्यानपरौ शुद्धौ यथापूर्वं व्यवस्थितौ।। ५.१५२ ।।

अंबरीषश्च राजासौ परिपाल्य च मेदिनीम्।।
सभृत्यज्ञातिसंपन्नो विष्णुलोकं जगाम वै।। ५.१५३ ।।

मानार्थमंबरीषस्य तथैव मुनिसिंहयोः।।
रामो दाशथिर्भूत्वा नात्मवेदीश्वरोऽभवत्।। ५.१५४ ।।

मुनयश्च तथा सर्वे भृग्वाद्या मुनिसत्तमाः।।
माया न कार्या विद्वद्भिरित्याहुः प्रेक्ष्यतं हरिम्।। ५.१५५ ।।

नारदः पर्वतश्चैव चिरं ज्ञात्वा विचेष्टितम्।।
मायां विष्णोर्विनिंद्यैव रुद्रभक्तौ बभूवतुः।। ५.१५६ ।।

एतद्धि कथितंसर्व मया युष्माकमद्य वै।।
अंबरीषस्य माहात्म्यं मायावित्वं च वै हरेः।। ५.१५७ ।।

यः पठेच्छृणुयाद्वापि श्रावयेद्वापि मानवः।।
मायां विसृज्य पुण्यात्मा रुद्रलोकं स गच्छति।। ५.१५८ ।।

इदं पवित्रं परमं पुण्यं वेदैरुदीरितम्।।
सायं प्रातः पठेन्नित्यं विष्णोः सायुज्यमाप्नुयात्।। ५.१५९ ।।

इति श्रीलिंगमहापुराणे उत्तरभागे श्रीमत्याख्यानं नाम पंचमोऽध्यायः।। ५ ।।