लिङ्गपुराणम् - उत्तरभागः/अध्यायः ४८

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लिङ्गपुराणम् - उत्तरभागः
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  55. अध्यायः ५५

सूत उवाच।।
सर्वेषामपि देवानां प्रतिष्ठामपि विस्तरात्।।
स्वैर्मत्रैर्यागकुंडानि विन्यस्यैकैकमेव च।। ४८.१ ।।
स्थापयेदुत्सवं कृत्वा पूजयेच्च विधानतः।।
भानोः पंचाग्निना कार्यं द्वादशाग्निक्रमेण वा।। ४८.२ ।।
सर्वकुंडानि वृत्तानि पद्माकाराणि सुव्रताः।।
अंबाया योनिकुंडं स्याद्वर्धन्येका विधीयते।। ४८.३ ।।
शक्तीकार्येषु योनिकुंडं विधीयते।।
गायत्रीं कल्पयेच्छंभोः सर्वेषामपि यत्नतः।।
सर्वे रुद्रांशजा यस्मात्संक्षेपेण वदामि वः।। ४८.४ ।।
गायत्रीभेदाः।।
तत्पुरुषाय विद्महे वाग्विशुद्धाय धीमहि।।
तन्नः शिवः प्रचोदयात्।। ४८.५ ।।
गणांबिकायै विद्महे कर्मसिद्ध्यै च धीमहि।।
तन्नो गौरी प्रचोदयात्।। ४८.६ ।।
तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि।।
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्।। ४८.७ ।।
तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि।।
तन्नो दंतिः प्रचोदयात्।। ४८.८ ।।
महासेनाय विद्महे वाग्विशुद्धाय धीमहि।।
तन्नः स्कंदः प्रोचदयात्।। ४८.९ ।।
तीक्ष्णश्रृंगाय विद्महे वेदपादाय धीमहि।।
तन्नो वृषः प्रचोदयात्।। ४८.१० ।।
हरिवक्त्राय विद्महे रुद्रवक्त्राय धीमहि।।
तन्नो नंदी प्रचोदयात्।। ४८.११ ।।
नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि।।
तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्।। ४८.१२ ।।
महांबिकायै विद्महे कर्मसिद्ध्यै च धीमहि।।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्।। ४८.१३ ।।
समुद्धृतायै विद्महे विष्णुनैकेन धीमहि।।
तन्नो धरा प्रचोदयात्।। ४८.१४ ।।
वैनतेयाय विद्महे सुवर्णपक्षाय धीमहि।।
तन्नो गरुडः प्रचोदयात्।। ४८.१५ ।।
पद्मोद्भवाय विद्महे वेदवक्त्राय धीमहि।।
तन्नः स्रष्टा प्रचोदयात्।। ४८.१६ ।।
शिवास्यजायै विद्महे देवरूपायै धीमहि।।
तन्नो वाचा प्रचोदयात्।। ४८.१७ ।।
देवराजाय विद्महे वज्रहस्ताय धीमहि।।
तन्नः शक्रः प्रचोदयात्।। ४८.१८ ।।
रुद्रनेत्राय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि।।
तन्नो वह्निः प्रचोदयात्।। ४८.१९ ।।
वैवस्वताय विद्महे दंडहस्ताय धीमहि।।
तन्नो यमः प्रचोदयात्।। ४८.२० ।।
निशाचराय विद्महे खड्गहस्ताय धीमहि।।
तन्नो निर्ऋतिः प्रचोदयात्।। ४८.२१ ।।
शुद्धहस्ताय विद्महे पाशहस्ताय धीमहि।।
तन्नो वरुणः प्रचोदयात्।। ४८.२२ ।।
सर्वप्राणाय विद्महे यष्टिहस्ताय धीमहि।।
तन्नो वायुः प्रचोदयात्।। ४८.२३ ।।
यक्षेश्वराय विद्महे गदाहस्ताय धीमहि।।
तन्नो यक्षः प्रचोदयात्।। ४८.२४ ।।
सर्वेश्वराय विद्महे शूलहस्ताय धीमहि।।
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्।। ४८.२५ ।।
कात्यायन्यै विद्महे कन्याकुमार्यै धीमहि।।
तन्नो दुर्गा प्रचोदयात्।। ४८.२६ ।।
एवं प्रभिद्य गायत्रीं तत्तदेवानुरूपतः।।
पूजयेत् स्थापयेत्तेषामासनं प्रणवं स्मृतम्।। ४८.२७ ।।
अथवा विष्णुमतुलं सूक्तेन पुरुषेण वा।।
विष्णुं चैव महाविष्णुं सदाविष्णुमनुक्रमात्।। ४८.२८ ।।
स्थापयेद्देवगायत्र्या परिकल्प्य विधानतः।।
वासुदेवः प्रधानस्तु ततः संकर्षणः स्वयम्।। ४८.२९ ।।
प्रद्युम्नो ह्यनिरुद्धश्च मूर्तिभेदास्तु वै प्रभोः।।
बहूनि विविधानीह तस्य शापोद्भवानि च।। ४८.३० ।।
सर्वावर्तेषु रूपाणि जगतां च हिताय वै।।
मत्स्यः कूर्मोऽथ वाराहो नारसिंहोऽथ वामनः।। ४८.३१ ।।
रामो रामश्च कृष्णश्च बौद्धः कल्की तथैव च।।
तथान्यानि न देवस्य हरेः सापोद्भवानि च।। ४८.३२ ।।
तेषामपि च गायत्रीं कृत्वा स्थाप्य च पूजयेत्।।
गुह्यानि देवदेवस्य हरेर्नारायणस्य च।। ४८.३३ ।।
विज्ञानानि च यंत्राणि मंत्रोपनिषदानि च।।
पंच ब्रह्मांगजानीह पंचभूतमयानि च।। ४८.३४ ।।
नमो नारायणायेति मंत्रः परमशोभनः।।
हरेरष्टाक्षराणीह प्रणवेन समासतः।। ४८.३५ ।।
ओं नमो वासुदेवाय नमः संकर्षणाय च।।
प्रद्युम्नाय प्रधानाय अनिरुद्धाय वै नमः।। ४८.३६ ।।
एकमेकेन मंत्रेण स्थापयेत्परमेश्वरम्।।
बिंबानियानि देवस्य शिवस्य परमेष्ठिनः।। ४८.३७ ।।
प्रतिष्ठा चैव पूजा च लिंगवन्मुनिसत्तमाः।।
रत्नविन्याससहितं कौतुकानि हरेरपि।। ४८.३८ ।।
अचले कारयेत्सर्वं चलेप्येवं विधानतः।।
तन्नेत्रोन्मीलनं कुर्यान्नेत्रमंत्रेण सुव्रताः।। ४८.३९ ।।
क्षेत्रप्रदक्षिणं चैव आरामस्य पुरस्य च।।
जलाधिवासनं चैव पूर्ववत्परिकीर्तितम्।। ४८.४० ।।
कुंडमंडपनिर्माणं शयनं च विधीयते।।
हुत्वा नवाग्निभागेन नवकुंडे यताविधि।। ४८.४१ ।।
अथवा पंचकुंडेषु प्रधाने केवलेऽथ वा।।
प्रतिष्ठा कथिता दिव्या पारंपर्यक्रमागता।। ४८.४२ ।।
शिलोद्भवानां बिंबानां चित्राभासस्य वा पुनः।।
जलाधिवासनं प्रोक्तं वृषेंद्रस्य प्रकीर्तितम्।। ४८.४३ ।।
प्रासादस्य प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठा परिकीर्तिता।।
प्रासादांगस्य सर्वस्य यथांगानां तनोरिव।। ४८.४४ ।।
वृषाग्निमातृविघ्नेशकुमारानपि यत्नतः।।
श्रेष्ठां दुर्गां तथा चंडीं गायत्र्या वै यथाविधि।। ४८.४५ ।।
प्रागाद्यं स्थापयेच्छंभोरष्टावरणमुत्तमम्।।
लोकपालगणेशाद्यानपि शंभोः प्रविन्यसेत्।। ४८.४६ ।।
उमा चंडी च नंदी च महाकालो महामुनिः।।
विघ्नेश्वरो महाभृंगी स्कंदः सौम्यादितः क्रमात्।। ४८.४७ ।।
इंद्रादीन्स्वेषु स्थानेषु ब्रह्माणं च जनार्दनम्।।
स्थापयेच्चैव यत्नेन क्षेत्रेशं वेशगोचरे।। ४८.४८ ।।
सिंहासने ह्यनंतादीन् विद्येशामपि च क्रमात्।।
स्थापयेत्प्रणवेनैव गुह्यांगादीनि पंकजे।। ४८.४९ ।।
एवं संक्षेपतः प्रोक्तं चलस्थापनसुत्तमम्।।
सर्वेषामपि देवानां देवीनां च विशेषतः।। ४८.५० ।।
इति श्रीलिंगमहापुराणे उत्तरभागेऽष्टचत्वारिंशोऽध्यायः।। ४८ ।।