महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-003
दिखावट
← आश्रमवासिकपर्व-002 | महाभारतम् पञ्चादशपर्व महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-003 वेदव्यासः |
आश्रमवासिकपर्व-004 → |
भीमसेनपरुषभाषणश्रवणान्निर्वेदमुपगतवता धृतराष्ट्रेणि सहगान्धार्या वनगमनाध्यवसायः।। 1 ।।
तथा सकलपौरानयनेन तेषु स्वाध्यवसायनिवेदनम्।। 2 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 15-3-1x |
युधिष्ठिरस्य नृपतेर्दुर्योधनपितुस्तदा। नान्तरं दद्दशू राज्ये पुरुषाः प्रणयं प्रति।। | 15-3-1a 15-3-1b |
यदा तु कौरवो राजा पुत्रं सस्मार बालिशम्। तदा भीमं हृदा राजन्नपध्याति स पार्थिवः।। | 15-3-2a 15-3-2b |
कौरवश्चैव भीमश्च हृदाऽन्योन्यमवर्तताम्। ध्यायन्तौ श्लक्ष्णया वाचा त्वन्योन्यमभितिष्टितां | 15-3-3a 15-3-3b |
अप्रकाशं व्यलीकानि चकारास्य वृकोदरः। आज्ञां प्रत्यहरच्चापि कृतकैः पुरुषैः सदा।। | 15-3-4a 15-3-4b |
स्मरन्दुर्मन्त्रितं तस्य वृत्तान्यप्यस्य कानिचित्। `असकृच्चाप्युवाचेदं हतास्ते मन्दचेतसः।।' | 15-3-5a 15-3-5b |
अथ भीमः सुहृन्मध्ये बाहुशब्दं तथाऽकरोत्। संश्रवे धृतराष्ट्रस्य गान्धार्याश्चाप्यमर्षणः।। | 15-3-6a 15-3-6b |
स्मृत्वा दुर्योधनं शत्रुं कर्णदुःखासनावपि। प्रोवाचेदं सुसंरब्धो भीमः सपरुषं वचः।। | 15-3-7a 15-3-7b |
अन्धस्य नृपतेः पुत्रा मया परिघवाहुना। नीता लोकममुं सर्वे नानाशस्त्रास्त्रयोधिनः।। | 15-3-8a 15-3-8b |
इमौ तौ परिघप्रख्यौ भुजौ मम दुरासदौ। ययोरन्तरमासाद्य धार्तराष्ट्राः क्षयं गताः।। | 15-3-9a 15-3-9b |
ताविमौ चन्दनेनाकौ वन्दनीयौ च मे भुजौ। याभ्यां दुर्योधनो नीतः क्षयं ससुतबान्धवः।। | 15-3-10a 15-3-10b |
एतास्चान्याश्च विविधाः शल्यभुता नराधिपः। वृकोदरस्य ता वाचः श्रुत्वा निर्वेदमागमत्।। | 15-3-11a 15-3-11b |
सा च बुद्धिमती देवी कालपर्यायवेदिनी। गान्धारी सर्वधर्मज्ञा तान्यलीकानि शुश्रुवे। `कुन्तीं वर्या तु संवीक्ष्य शापे नास्याकरोन्मति' | 15-3-12a 15-3-12b 15-3-12c |
ततः पञ्चदशे वर्षे समतीते नराधिपः। राजा निर्वेदमापेदे भीमवाग्बाणपीडितः।। | 15-3-13a 15-3-13b |
`सुखासक्तं कृच्छ्रपरं ज्ञात्वा चैव युधिष्ठिरम्। तपोयोगात्तपस्तप्तुं मनश्चक्रे महामतिः।।' | 15-3-14a 15-3-14b |
नान्वबुध्यत तद्राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। श्वेताश्वोवाऽथकुन्ती वा द्रौपदी वा यशस्विनी।। | 15-3-15a 15-3-15b |
माद्रीपुत्रौ च भीमस्य मतं तावन्ववर्तताम्। राज्ञस्तु चित्तं रक्षन्तौ नोचतुः स्वयमप्रियम्।। | 15-3-16a 15-3-16b |
ततः समानयामास धृतराष्ट्रः सुहृज्जनम्। बाष्पसंदिग्धमत्यर्थमिदमाह च तान्भृशम्।। | 15-3-17a 15-3-17b |
विदितं भवतामेतद्यथा वृत्तः कुरुक्षयः। ममापराधात्तत्सर्वमिति ज्ञेयं तु कौरवाः।। | 15-3-18a 15-3-18b |
योऽहं दुष्टमतिं मन्दो ज्ञातीनां भयवर्धनम्। दुर्योधनं कौरवाणामाधइपत्येऽभ्यषेचयम्। यच्चाहं वासुदेवस्य नाश्रौषं वाक्यमर्थवत्।। | 15-3-19a 15-3-19b 15-3-19c |
वध्यतां साध्वयं पापः सामात्य इति दुर्मतिः। पुत्रस्नेहाभिभूतस्तु हितमुक्तो मनीषिभिः।। | 15-3-20a 15-3-20b |
विदुरेणाथ भीष्मेण द्रोणेन च कृपेण च। पदेपदे भगवता व्यासेन च महात्मना। संजयेनाथ गान्धार्या तदिदं तप्यते मया।। | 15-3-21a 15-3-21b 15-3-21c |
यच्चाहं पाण्डुपुत्रेषु गुणवत्सु महात्मसु। न न्यस्तवाञ्श्रियं दीप्तां पितृपैतामहीमिमाम्।। | 15-3-22a 15-3-22b |
विनाशं पश्यमानो हि सर्वराज्ञां गदाग्रजः। एतच्छ्रेयस्तु परमममन्यत जनार्दनः।। | 15-3-23a 15-3-23b |
सोहमेतान्यलीकानि दुर्वृत्तान्यात्मनस्तदा। हृदये शल्यभूतानि धारयामि सहस्रशः।। | 15-3-24a 15-3-24b |
विशेषतस्तु दह्यामि वर्षे पञ्चदशेऽद्य वै। अस्य पापस्य शुद्ध्यर्थं नियतोस्मि सुदुर्मतिः।। | 15-3-25a 15-3-25b |
चतुर्थे नियते काले कदाचिदपि चाष्टमे। तृष्णाविनयनं भुञ्जे गान्धारी वेद तन्मम।। | 15-3-26a 15-3-26b |
करोत्याहारमिति मां सर्वः परिजनः सदा। युधिष्ठिरभयादेति भृशं तप्यति पाण्डवः।। | 15-3-27a 15-3-27b |
भूमौ शये जप्यपरो दर्भष्वजिनसंवृतः। नियमव्यपदेशेन गान्धारी च यशस्विनी।। | 15-3-28a 15-3-28b |
अहं पुत्रशतं वीरं सङ्ग्रामेष्वपलायिनम्। नानुतप्ये हतं तत्र क्षत्रधर्मं हि तं विदुः।। | 15-3-29a 15-3-29b |
इत्युक्त्वा धर्मराजानमभ्यभाषत कौरवः। भद्रं ते यादवीमातर्वचश्चेदं निबोध मे।। | 15-3-30a 15-3-30b |
सुखमध्युषितः पुत्र त्वया सुपरिपालितः। मया दानानि दत्तानि श्राद्धानि च पुनःपुनः।। | 15-3-31a 15-3-31b |
प्रकृष्टं च मया पुत्र पुण्यं चीर्णं यथाबलम्। गान्धारी हतपुत्रेयं धैर्येणोदीक्षते च माम्।। | 15-3-32a 15-3-32b |
द्रौपद्या ह्यपकर्तारस्तव चैश्वर्यहारिणः। समतीता नृशंसास्ते स्वधर्मेण हता युधि।। | 15-3-33a 15-3-33b |
न तेषु प्रतिकर्तव्यं पश्यामि कुरुनन्दन। सर्वे शस्त्रजिताँल्लोकान्गतास्तेऽभिमुखं हताः।। | 15-3-34a 15-3-34b |
आत्मनस्तु हितं पुण्यं प्रतिकर्तव्यमद्य ते। गान्धार्याश्चैव राजेन्द्र तदनुज्ञातुमर्हसि।। | 15-3-35a 15-3-35b |
त्वं तु शस्त्रभृतां श्रेष्ठः सततं धर्मवत्सलः। राजा गुरुः प्राणभृतां तस्मादेतद्ब्रवीम्यहम्।। | 15-3-36a 15-3-36b |
अनुज्ञातस्त्वया वीर संश्रयेयं वनान्यहम्। चीरवल्कलभृद्राजन्गान्धार्या सहितोऽनया।। | 15-3-37a 15-3-37b |
तवाशिषः प्रयुञ्जानो भविष्यामि वनेचरः। उचितं नः कुले तात सर्वेषां भरतर्षभ। पुत्रेष्वैश्चर्यमाधाय वयसोन्ते वनं नृप।। | 15-3-38a 15-3-38b 15-3-38c |
तत्राहं वायुभक्षो वा निराहारोपि वा वसन्। पत्न्या सहानया वीर चरिष्यामि तपः परम्।। | 15-3-39a 15-3-39b |
त्वं चापि फलभाक्तात तपसः पार्थिवो ह्यसि। फलभाजो हि राजानः कल्याणस्येतरस्य वा।। | 15-3-40a 15-3-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि आश्रमवासपर्वणि तृतीयोऽध्यायः।। 3 ।। |
15-3-3 तथैव भीमसेनोऽपि धृतराष्ट्रं जनाधिपम्। नामर्षयत राजेन्द्रि सदैव दुष्टवद्धृदेति झ.पाठः।। 15-3-24 सोहमेतान्यतीतानीति क.पाठः।। 15-3-26 तृष्णविनयनं तृषामात्रापहं मण्डदि नतु क्षुद्व्याधिहरम्।।
आश्रमवासिकपर्व-002 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्रमवासिकपर्व-004 |