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महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-005

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महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-005
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व्यासेन युधिष्ठिरंप्रति सहेतूपन्यासं धृतराष्ट्रस्य धृतराष्ट्रस्य वनगमनाभ्यनुज्ञानचोदनापूर्वकं स्वाश्रमगमनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिरेणि धृतराष्ट्रंप्रति कृच्छ्रेण तदभ्यनुज्ञानाङ्गीकरणम्।। 2 ।।

व्यास उवाच। 15-5-1x
युधिष्ठिर महाबाहो ********** कुरुनन्दनः।
धृतराष्ट्रो महातेजास्तत्कुरुष्वाविचारयन्।।
15-5-1a
15-5-1b
अयं हि वृद्धो नृपतिर्हतपुत्रो विशेषतः।
नेदं कृच्छ्रं चिरतरं सहेदिति मतिर्मम।।
15-5-2a
15-5-2b
गान्धारी च महाभागा प्राज्ञा करुणवेदिनी।
पुत्रशोकं महाराज धैर्येणोद्वहते भृशम्।।
15-5-3a
15-5-3b
अहमप्येतदेव त्वां ब्रवीमि कुरु मे वचः।
अनुज्ञां लभतां राजा मां वृथेह मरिष्यति।।
15-5-4a
15-5-4b
`स्वस्थो भवत्वयं धीमान्वनेषु मधुगन्धिषु।'
राजर्षीणां पुराणानामनुयातु गतिं नृपः।
15-5-5a
15-5-5b
राजर्षीणां हि सर्वेषामन्ते वनमुपाश्रयः।।
वैशम्पायन उवाच। 15-5-6x
इत्युक्तः स तदा राजा व्यासेनाद्भुतकर्मणा।
प्रत्युवाच महातेजा धर्मराजो महामुनिम्।।
15-5-6a
15-5-6b
भगवानेव नो मान्यो भगवानेव नो गुरुः।
भगवानस्य राज्यस्य कुलस्य च परायणम्।।
15-5-7a
15-5-7b
अहं तु पुत्रो भगवन्पिता राजा गुरुश्च मे।
निदेशवती च पितुः पुत्रो भवति धर्मतः।।
15-5-8a
15-5-8b
वैशम्पायन उवाच। 15-5-9x
इत्युक्तः स तु तं प्राह व्यासो वेदविदांवरः।
युधिष्ठिरं महातेजाः पुनरेव महाकविः।।
15-5-9a
15-5-9b
एवमेतन्महाभाग यथा वदसिं भारत।
राजाऽयं वृद्धतां प्राप्तः प्रमाणे परमे स्थितः।।
15-5-10a
15-5-10b
सोयं मयाऽभ्यनुज्ञातस्त्वथा च पृथिवीपतिः।
करोतु स्वमभिप्रायं मा स्म विघ्नकरो भव।।
15-5-11a
15-5-11b
एष एव परो धर्मो राजर्षीणां युधिष्ठिर।
समरे वा भवेन्मृत्युर्वने वा विधिपूर्वकम्।।
15-5-12a
15-5-12b
पित्रा तु तव राजेन्द्र पाण्डुना पृथिवीक्षिता।
शिष्यभूतेन राजाऽयं गुरुवत्पर्युपासितः।।
15-5-13a
15-5-13b
क्रतुभिर्दक्षिणावद्भी रत्नपर्वतशोभितैः।
महद्भिरिष्टं गौर्भुक्ता प्रजाश्च परिपालिताः।।
15-5-14a
15-5-14b
पुत्रसंस्यं च विपुलं राज्यं विप्रोषिते त्वयि।
त्रयोदशसमा भुक्तं दत्तं च विविधं वसु।।
15-5-15a
15-5-15b
त्वया चायं नरव्याघ्र गुरुशुश्रूषयाऽनघ।
आराधितः स भृत्येन गान्धारी च यशस्विनी।।
15-5-16a
15-5-16b
अनुजानीहि पितरं समयोऽस्म तपोविधौ।
न मन्युर्विद्यते चास्य सुसूक्ष्मोऽपि युधिष्ठिर।।
15-5-17a
15-5-17b
वैशम्पायन उवाच। 15-5-18x
एतावदुक्त्वा वचनमनुमान्य च पार्थिवम्।
तथाऽस्त्विति च तेनोक्तः कौतेयेन ययौ वनम्।।
15-5-18a
15-5-18b
गते भगवति व्यासे राजा पाण्डुसुतस्तदा।
प्रोवाच पितरं वृद्धं मन्दंमन्दमिवानतः।।
15-5-19a
15-5-19b
यदाह भगवान्व्यासो यच्चापि भवतो मतम्।
यथाऽऽह च महेष्वासः कृपो विदुर एव च।।
15-5-20a
15-5-20b
युयुत्सुः संजयश्चैव तत्कर्तास्म्यहमञ्जसा।
सर्व एव हि मान्या मे कुलस्य हि हितैषिणः।।
15-5-21a
15-5-21b
इदं तु याचे नृपते त्वामहं शिरसा नतः।
क्रियतां तावदाहारस्ततो गच्छाश्रमं प्रति।।
15-5-22a
15-5-22b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि
आश्रमवासपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः।। 5 ।।

15-5-17 तपोविधौ तपःकरणे।। 18 ।।

आश्रमवासिकपर्व-004 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्रमवासिकपर्व-006