महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-037
दिखावट
← आश्रमवासिकपर्व-036 | महाभारतम् पञ्चादशपर्व महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-037 वेदव्यासः |
आश्रमवासिकपर्व-038 → |
जनमेजयेन परिक्षित्प्रदर्शने प्रार्थिते व्यासेन परिक्षितः शमीकमहर्षः शृङ्गीणश्च प्रदर्शनम्।। 1 ।।
जनमेजयेनावभृथस्नानानन्तरमास्तिकपूजनपूर्वकं वैशम्पायनंप्रति कथावशेषकथनप्रार्थना।। 2 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 15-37-1x |
अदृष्ट्वा तु नृपः पुत्रान्दर्शनं प्रतिलब्धवान्। ऋषेः प्रसादात्पुत्राणां स्वरूपाणां कुरूद्वह।। | 15-37-1a 15-37-1b |
स राजा राजधर्मांश्च ब्रह्मोपनिषदं तथा। अवाप्तवान्नरश्रेष्ठो बुद्धिनिश्चयमेव च। | 15-37-2a 15-37-2b |
विदुरश्च महाप्राज्ञो ययौ सिद्धिं तपोबलात्। धृतराष्ट्रः समासाद्य व्यासं चैव तपस्विनम्।। | 15-37-3a 15-37-3b |
जनमेजय उवाच। | 15-37-4x |
ममापि वरदो व्यासो दर्शयेत्पितरं यदि। तद्रूपवेषवयसं श्रद्दध्यां सर्वमेव तत्।। | 15-37-4a 15-37-4b |
प्रियं मे स्यात्कृतार्थश्च स्यामहं कृतनिश्चयः। प्रसादादृषिमुख्यस्य मम कामः समृद्ध्यताम्।। | 15-37-5a 15-37-5b |
सौतिरुवाच। | 15-37-6x |
इत्युक्तवचने तस्मिन्नृपे व्यासः प्रतापवान्। प्रसादमकरोद्धीमानानयच्च परिक्षितम्।। | 15-37-6a 15-37-6b |
ततस्तद्रूपवयसमागतं नृपतिं दिवः। श्रीमन्तं पितरं राजा ददर्श स परीक्षितम्।। | 15-37-7a 15-37-7b |
शमीकं च महात्मानं पुत्रं तं चास्य शृङ्गिणम्। अमात्या ये च निहता राज्ञस्तांश्च ददर्श ह।। | 15-37-8a 15-37-8b |
ततः सोवभृथे राजा मुदितो जनमेजयः। पितरं स्नापयामास स्वयं सस्नौ च पार्थिवः।। | 15-37-9a 15-37-9b |
`परीक्षिदपि तत्रैव बभूव स तिरोहितः।' स्नात्वा स नृपतिर्विप्रमास्तीकमिदमब्रवीत्। यायावरकुलोत्पन्नं जरत्कारुसुतं तदा।। | 15-37-10a 15-37-10b 15-37-10c |
आस्तीक विविधाश्चर्यो यज्ञेऽयमिति मे मतिः। यदद्यायं पिता प्राप्तो मम शोकप्रणाशनः।। | 15-37-11a 15-37-11b |
आस्तीक उवाच। | 15-37-12x |
ऋषिर्द्वैपायनो यत्र पुराणस्तपसो निधिः। यज्ञे कुरुकुलश्रेष्ठ तस्य लोकावुभौ जितौ।। | 15-37-12a 15-37-12b |
श्रुतं विचित्रमाख्यानं त्वया पाण्डवनन्दन। सर्पाश्च भस्मसान्नीता गताश्च पदवीं पितुः।। | 15-37-13a 15-37-13b |
कथंचित्तक्षको मुक्तः सत्यत्वात्तव पार्थिव। ऋषयः पूजिताः सर्वे गतिर्दृष्टा महात्मनः।। | 15-37-14a 15-37-14b |
प्राप्तः सुविपुलो धर्मः श्रुत्वा पापविनाशनम्। विमुक्तो हृदयग्रन्थिरुदारजनदर्शनात्।। | 15-37-15a 15-37-15b |
ये च पक्षधरा धर्मे सद्वृत्तरुचयश्च ये। यान्दृष्ट्वा हीयते पापं तेभ्यः कार्या नमस्क्रिया।। | 15-37-16a 15-37-16b |
सौतिरुवाच। | 15-37-17x |
एतच्छ्रुत्वा द्विजश्रेष्ठात्स राजा जनमेजयः। पूजयामास तमृषिमनुमान्य पुनःपुनः।। | 15-37-17a 15-37-17b |
पप्रच्छ तमृषि चापि वैशम्पायनमच्युतम्। कथावशेषं धर्मज्ञो वनवासस्य सत्तम।। | 15-37-18a 15-37-18b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि पुत्रदर्शनपर्वणि सप्तत्रिंशोऽध्यायः।। 37 ।। |
15-37-2 स धृतराष्ट्रो राजा विदुरश्च सिद्धिं ययौ इति द्वयोः सम्बन्धः। तत्रापि विदुरस्तपोबलात्। धृतराष्ट्रो व्यासं समासाद्येति सम्बन्धः।। 15-37-15 पापविनाशं इतिहासमिति शेषः।। 15-37-16 पक्षधराः पक्षस्थापकाः।।
आश्रमवासिकपर्व-036 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्रमवासिकपर्व-038 |