महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-008
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धृतराष्ट्रेण युधिष्ठरंप्रति राजनीतिकथनम्।। 1 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 15-8-1x |
सन्धिविग्रहमप्यत्र पश्येथा राजसत्तम। द्वियोनिं विविधोपायं बहुकल्पं युधिष्ठिर।। | 15-8-1a 15-8-1b |
कौरव्य पर्युपासीथाः स्थित्वा द्वैविध्यमात्मनः। तुष्टपुष्टजनः शत्रुरर्थवानिति च स्मरेत्।। | 15-8-2a 15-8-2b |
पर्युपासनकाले तु विपरीतं विधीयते। आमर्दकाले राजेन्द्र व्यवसायस्ततोऽपरः।। | 15-8-3a 15-8-3b |
व्यसनं भेदनं चैव शत्रूणां कारयेत्ततः। कर्षणं भीषणं चैव युद्धे चैव बहुक्षयम्।। | 15-8-4a 15-8-4b |
प्रयास्यमानो नृपतिस्त्रिविधं परिचिन्तयेत्। आत्मनश्चैव शत्रोश्च शक्तिं शास्त्रविशारदः।। | 15-8-5a 15-8-5b |
उत्साहप्रभुशक्तिभ्यां मन्त्रशक्त्या च भारत। उपपन्नो नृपो यायाद्विपरीतं च वर्जयेत्।। | 15-8-6a 15-8-6b |
आददीत बलं राजा मौलं मित्रबलं तथा। अटवीबलं भृतं चैव तता श्रेणीबलं प्रभो।। | 15-8-7a 15-8-7b |
`मित्रामित्रबलं राजन्न्यायाद्वृद्ध्युदये धृतः।' तत्र मित्रबलं राजन्मौलं चैव विशिष्यते। श्रेणीबलं भृतं चैव तुल्ये एवेति मे मतिः।। | 15-8-8a 15-8-8b 15-8-8c |
तथाऽऽचारबलं चैव परस्परसमं नृप। विज्ञेयं बलकालेषु राज्ञा काल उपस्थिते।। | 15-8-9a 15-8-9b |
आपदश्चापि बोद्धव्या बहुरूपा नराधिप। भवन्ति राज्ञा कौरव्य यास्ताः पृथगतः शृणु।। | 15-8-10a 15-8-10b |
विकल्पा बहुधा राजन्नापदां पाण्डुनन्दन। सामादिभिरुपन्यस्य गमयेत्तान्नृपः सदा।। | 15-8-11a 15-8-11b |
यात्रां गच्छेद्बलैर्युक्तो राजा षड्भिः परंतप। युक्तश्च देशकालाभ्यां बलैरात्मगुणैस्तथा।। | 15-8-12a 15-8-12b |
हृष्टपुष्टबलो गच्छेद्राजा वृद्ध्युदये रतः। अकृशश्चाप्यथो यायादनृतावपि पाण्डव।। | 15-8-13a 15-8-13b |
तूणाश्मानं वाजिरथप्रवाहां ध्वजद्रुमैः संवृतकूलरोधसम्। पदातिनागैर्बहुकर्दमां नदीं सपत्नानाशे नृपतिः प्रयोजयेत्।। | 15-8-14a 15-8-14b 15-8-14c 15-8-14d |
अथोपपत्त्या शकटं पद्मवज्रं च भारत। उशना वेद यच्छास्त्रं तत्रैतद्विहितं विभो।। | 15-8-15a 15-8-15b |
चारयित्वा परबलं कृत्वा स्वबलदर्शनम्। स्वभूमौ योजयेद्युद्धं परभूमौ तथैव च।। | 15-8-16a 15-8-16b |
बलं प्रसादयेद्राजा निक्षिपेद्बलनो नरान्। ज्ञात्वा स्वविषयं तत्र सामादिभिरुपक्रमेत्।। | 15-8-17a 15-8-17b |
सर्वथैव महाराज शरीरं धारयेदिह। प्रेत्य चेह च कर्तव्यमात्मनिःश्रेयसं परम्।। | 15-8-18a 15-8-18b |
एवं कुर्वञ्शुभा वाचो लोकेऽस्मिञ्शृणु ते नृप। प्रेत्य स्वर्गमवाप्नोति प्रजा धर्मेणि पालयन्।। | 15-8-19a 15-8-19b |
एवं त्वया कुरुश्रेष्ठ वर्तितव्यं प्रजासु वै। उभयोर्लोकयोस्तात प्राप्तये नित्यमेव हि।। | 15-8-20a 15-8-20b |
भीष्मेण सर्वमुक्तोसि कृष्णेन विदुरेण च। मयाऽप्यवश्यं वक्तव्यं प्रीत्या ते नृपसत्तम।। | 15-8-21a 15-8-21b |
एतत्सर्वं यथान्यायं कुर्वीथा भूरिदक्षिण। प्रियस्तथा प्रजानां त्वं स्वर्गे सुखमवाप्स्यसि।। | 15-8-22a 15-8-22b |
अश्वमेधसहस्रेण यो यजेत्पृथिवीपतिः। पालयेद्वाऽपि धर्मेणि प्रजास्तुल्यं फलं लभेत्।। | 15-8-23a 15-8-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि आश्रमवासपर्वणि अष्टमोऽध्यायः।। 8 ।। |
15-8-1 प्रबलप्रतियोगिकौ दुर्बलप्रतियोगिकौ चेति द्वियोनी संधिविग्रहौ।। 15-8-2 स्थित्वा स्थिरो भूत्वा। द्वैविध्यं बलाबलं ज्ञात्वा शत्रुं पर्युपास्स्वेति भावः। स्मरेज्जयोपायं विचारयेन्न त्वकस्मात्प्रयायात्। जित्वा द्विविधमात्मनेति क.पाठः।।
15-8-3 विपरीतमतुष्टपुष्टबलं प्रयायादित्यर्थः।। 15-8-4 गमनं वेदनं चैवेति थ.पाठः।। 15-8-7 मौलं धनबलम्।। 15-8-13 अनृतौ अकालेऽपि शिशिरादौ।। 15-8-15 शकटादयो व्यूहविशेषाः।। 15-8-16 साधयित्वा परबलं कृत्वा च बलमर्षणम् इति क.थ.पाठः।।
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