महाभारतम्-15-आश्रमवासिकपर्व-011
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पौरजनैर्ब्राह्मणमुखेन धृतराष्ट्रंप्रति समाश्वासनपूर्वकं कृच्छ्रेणि वनगमनाभ्यनुज्ञानम्।। 1 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 15-11-1x |
एवमुक्तास्तु ते तेन पौरजानपदा जनाः। वृद्धेन राज्ञा कौरव्य नष्टसंज्ञा इवाभवन्।। | 15-11-1a 15-11-1b |
तूष्णींभूतांस्ततस्तांस्तु वाष्पकण्ठान्महीपतिः। धृतराष्ट्रो महीपालः पुनरेवाभ्यभाषत।। | 15-11-2a 15-11-2b |
वृद्धं च हतपुत्रं च धर्मपत्न्या सहानया। विलपन्तं बहुविधं कृपणं चैव सत्तमाः।। | 15-11-3a 15-11-3b |
पित्रा स्वयमनुज्ञातं कृष्णद्वैपायनेन वै। वनवासाय धर्मज्ञा धर्मजेन नृपेण ह।। | 15-11-4a 15-11-4b |
सोहं पुनःपुनर्याचे शिरसाऽवनतोऽनघाः। गान्धार्या सहितं तन्मां समनुज्ञातुमर्हथ।। | 15-11-5a 15-11-5b |
वैशम्पायन उवाच। | 15-11-6x |
तच्छ्रुत्वा कुरुराजस्य वाक्यानि करुणानि ते। रुरुदुः सर्वशो राजन्समेताः कुरुजाङ्गलाः।। | 15-11-6a 15-11-6b |
उत्तरीयैः करैश्चापि संछाद्य वदनानि ते। रुरुदुः शोकसंतप्ता मुहूर्तं पितृमातृवत्।। | 15-11-7a 15-11-7b |
हृदयैः शून्यभूतैस्ते धृतराष्ट्रप्रवासजम्। दुःखं संधारयन्तो हि नष्टसंज्ञा हवाभवन्।। | 15-11-8a 15-11-8b |
ते विनीय तमायासं धृतराष्ट्रवियोगजम्। शनैः शनैस्तदाऽन्योन्यमब्रुवन्स्वमतान्युत।। | 15-11-9a 15-11-9b |
ततः सञ्चिन्त्य ते सर्वे वाक्यान्यथ समासतः। एकस्मिन्ब्राह्मणे कार्यमावेस्योचुर्नराधिपम्।। | 15-11-10a 15-11-10b |
ततः स्वाचरणो विप्रः सम्मतोऽर्थविशारदः। सम्भाव्यो बह्वृचो राजन्वक्तुं समुपचक्रमे।। | 15-11-11a 15-11-11b |
अनुमान्य महाराजं सदः समनुभाष्य च। विप्रः प्रगल्भो मेधावी स राजानमुवाच ह।। | 15-11-12a 15-11-12b |
राजन्वाक्यं जनस्यास्य मयि सर्वं समर्पितम्। वक्ष्यामि तदहं वीर तज्जुषस्व नपाधिप।। | 15-11-13a 15-11-13b |
यथा वदसि राजेन्द्र सर्वमेतत्तथा विभो। नात्र मिथ्या वचः किञ्चित्सुहृत्त्वं नः परस्परम्।। | 15-11-14a 15-11-14b |
न जात्वस्य च वंशस्य राज्ञां कश्चित्कदाचन। राजाऽऽसीद्यः प्रजापालः प्रजानामप्रियोऽभवत्।। | 15-11-15a 15-11-15b |
पितृवन्मातृवच्चैव भवन्तः पालयन्ति नः। न च दुर्योधनः किञ्चिदयुक्तं कृतवान्नृपः।। | 15-11-16a 15-11-16b |
`प्रियाणि कुर्वन्सर्वेषामनुवृत्त्यर्थमुद्यतः।' यथा ब्रवीति धर्मात्मा मुनिः सत्यवतीसुतः। तथा कुरु महाराज स हि नः परमो गुरुः।। | 15-11-17a 15-11-17b 15-11-17c |
त्यक्ता वयं तु भवता दुःखशोकपरायणाः। भविष्यामश्चिरं राजन्भवद्गुणशतैर्हृताः।। | 15-11-18a 15-11-18b |
यथा शन्तनुना गुप्ता राज्ञा चित्राङ्गदेन च। भीष्मवीर्योपगूढेन पित्रा तव च पार्थिव। भवद्बुद्धियुजा चैवि पाण्डुना पृथिवीक्षिता।। | 15-11-19a 15-11-19b 15-11-19c |
तथा दुर्योधनेनापि राज्ञा सुपरिपालिताः। न स्वल्पमपि पुत्रस्ते व्यलीकं कृतवान्नृप। | 15-11-20a 15-11-20b |
पितरीव सुविश्वस्तास्तस्मिन्नपि नराधिपे। वयसा स्म यथा सम्यग्भवतो विदितं तथा।। | 15-11-21a 15-11-21b |
तथा वर्षसहस्राणि कुन्तीपुत्रेण धीमता। पाल्यमाना धृतिमता सुखं विन्दामहे नृप।। | 15-11-22a 15-11-22b |
राजर्षीणां पुराणानां भवतां पुण्यकर्मणाम्। कुरुसंवरणादीनां भरतस्य च धीमतः।। | 15-11-23a 15-11-23b |
वृत्तं समनुयात्येष धर्मात्मा भूरिदक्षिणः। नात्र वाच्यं महाराज सुसूक्ष्ममपि विद्यते।। | 15-11-24a 15-11-24b |
उषिताः स्म सुखं नित्यं भवता परिपालिताः। सुसूक्ष्मं च व्यलीकं ते सपुत्रस्य न विद्यते।। | 15-11-25a 15-11-25b |
यत्तु ज्ञातिविमर्देऽस्मिन्नात्थ दुर्योधनं प्रति। भन्तमनुनेष्यामि तत्रापि कुरुनन्दन।। | 15-11-26a 15-11-26b |
न तद्दुर्योधनकृतं न च तद्भवता कृतम्। न कर्णसौबलाभ्यां च कुरवो यत्क्षयं गताः।। | 15-11-27a 15-11-27b |
दैवं तत्तु विजानीमो यन्न शक्यं प्रबाधितुम्। दैवं पुरुषकारेणि न शक्यमपि बाधितुम्।। | 15-11-28a 15-11-28b |
अक्षौहिण्यो महाराज दशाष्टौ च समागताः। अष्टादशाहेन हताः कुरुभिर्योधपुङ्गवैः।। | 15-11-29a 15-11-29b |
भीष्मद्रोणकृपाद्यैश्च कर्णेन च महात्मना। युयुधानेन वीरेण धृष्टद्युम्नेन चाहवे।। | 15-11-30a 15-11-30b |
चतुर्भिः पाण्डुपुत्रैश्च भीमार्जुनयमैस्तथा। न च क्षयोऽयं नृपते क्रते दैवबलादभूत्।। | 15-11-31a 15-11-31b |
अवश्यमेव सङ्ग्रामे क्षत्रियेण विशेषतः। कर्तव्यं निधनं काले मर्तव्यं क्षत्रबन्धुना।। | 15-11-32a 15-11-32b |
तैरियं पुरुषव्याघ्रैर्विद्याबाहुबलान्वितैः। पृथिवी निहता सर्वा सहया सरथद्विपा।। | 15-11-33a 15-11-33b |
न स राज्ञां वधे सूनुः कारणं ते महात्मनाम्। न भवान्न च ते भृत्या न कर्णो न च सौबलः।। | 15-11-34a 15-11-34b |
यद्विशस्ताः कुरुश्रेष्ठ राजानश्च सहस्रशः। सर्वं दैवकृतं विद्धि कोत्र किं वक्तुमर्हति।। | 15-11-35a 15-11-35b |
गुरुर्मतो भवानस्य कृत्स्नस्य जगतः प्रभुः। धर्मात्मानमतस्तुभ्यमनुजानीमहे सुतम्।। | 15-11-36a 15-11-36b |
लभतां वीरलोकं स ससहायो नराधिपः। द्विजाग्र्यैः समनुज्ञातस्त्रिदिवे मोदतां सुखम्। | 15-11-37a 15-11-37b |
प्राप्स्यते च भवान्पुण्यं धर्मे च सततं स्थितः। वेद धर्मं महाबाहो लौक्यं वैदिकमेव च।। | 15-11-38a 15-11-38b |
दृष्टापदानाश्चास्माभिः पाण्डवाः पुरुषर्षभाः। समर्थास्त्रिदिवस्यापि पालने किं पुनः क्षितेः।। | 15-11-39a 15-11-39b |
अनुवर्त्स्यन्ति वा धीमन्समेषु विषमेषु च। प्रजाः कुरुकुलश्रेष्ठ पाण्डवाञ्शीलभूषणान्।। | 15-11-40a 15-11-40b |
ब्रह्मदेयाग्रहारांश्च पारिबर्हांश्च पार्थिवः। पूर्वराजातिसर्गांश्च पालयत्येव पाण्डवः।। | 15-11-41a 15-11-41b |
दीर्घदर्शीं मृदुर्दान्तः सदा वैश्रवणो यथा। अक्षुद्रसचिवश्चायं कुन्तीपुत्रो महामनाः।। | 15-11-42a 15-11-42b |
अप्यमित्रे दयावांश्च शुचिश्च भरतर्षभः। ऋजु पश्यति मेधावी पुत्रवत्पाति नः सदा।। | 15-11-43a 15-11-43b |
विप्रियं च जनस्यास्य संसर्गाद्धर्मजस्य वै। न करिष्यन्ति राजर्षे तथा भीमार्जुनादयः।। | 15-11-44a 15-11-44b |
मन्दा मृदुषु कौरव्य तीक्ष्णेष्वाशीविषोपमाः। वीर्यवन्तो महात्मानः पौराणां च हिते रताः।। | 15-11-45a 15-11-45b |
न कुन्ती न च पाञ्चाली न चोलूपी न सात्वती। अस्मिञ्जने करिष्यन्ति प्रतिकूलानि कर्हिचित्।। | 15-11-46a 15-11-46b |
भवत्कृतमिमं स्नेहं युधिष्ठिरविवर्धितम्। न पृष्ठतः करिष्यन्ति पौरा जानपदा जनाः।। | 15-11-47a 15-11-47b |
अधर्मिष्ठानपि सतः कुन्तीपुत्रा महारथाः। मानवान्पालयिष्यन्ति भूत्वा धर्मपरायणाः।। | 15-11-48a 15-11-48b |
स राजन्मानसं दुःखमपनीय युधिष्ठिरात्। कुरु कार्याणि धर्म्याणि नमस्ते पुरुषर्षभ।। | 15-11-49a 15-11-49b |
वैशम्पायन उवाच। | 15-11-50x |
तस्य तद्वचनं धर्म्यमनुमान्य गुणोत्तरम्। साधुसाध्विति सर्वः स जनः प्रतिगृहीतवान्।। | 15-11-50a 15-11-50b |
धृतराष्ट्राश्च तद्वाक्यमभिपूज्य पुनःपुनः। विसर्जयामास तदा प्रकृतीस्तु शनैःशनैः।। | 15-11-51a 15-11-51b |
स तैः सम्पूजितो राजा शिवेनावेक्षितस्तथा। प्राञ्जलिः पूजयामास तं जनं भरतर्षभ।। | 15-11-52a 15-11-52b |
ततो विवेश भवनं गान्धार्या सहितो निजम्। आगतायां च शर्वर्यां सुखं शेते नराधिपः।। | 15-11-53a 15-11-53b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आमश्रवासिकपर्वणि आश्रमवासपर्वणि एकादशोऽध्यायः।। 11 ।। |
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