महाभारतम्-11-स्त्रीपर्व-013
दिखावट
← स्त्रीपर्व-012 | महाभारतम् स्त्रीपर्व महाभारतम्-11-स्त्रीपर्व-013 वेदव्यासः |
स्त्रीपर्व-014 → |
कृष्णयुधिष्ठिरादिभिर्गान्धारीसमीपगमनम्।। 1 ।।
गान्धारीं युधिष्ठिरंशप्तुकामां विज्ञाय पूर्वमेवागतेन व्यासेन गान्धार्याः कोपापनोदनम्।। 2 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 11-13-1x |
धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातास्ततस्ते कुरुपुङ्गवाः। अभ्ययुर्भ्रातरः सर्वे गान्धारीं सहकेशवाः।। | 11-13-1a 11-13-1b |
ततो ज्ञात्वा हतामित्रं धर्मराजं युधिष्ठिरम्। गान्धारी पुत्रशोकार्ता शप्तुमैच्छदनिन्दिता।। | 11-13-2a 11-13-2b |
तस्याः पापमभिप्रायं विदित्वा पाण्डवान्प्रति। ऋषिर्गन्धवतीपुत्रः प्रागेव समबुध्यत।। | 11-13-3a 11-13-3b |
स गङ्गायामुपस्पृश्य ब्रह्मर्षिः प्रयतः शुचिः। तं देशमुपसंपेदे पाराशर्यो मनोजवः।। | 11-13-4a 11-13-4b |
दिव्येन चक्षुषा ज्ञात्वा मनसाऽनुद्धतेन च। सर्वप्राणभृतां भावं सततं स तु बृध्यति।। | 11-13-5a 11-13-5b |
स स्नुषामब्रवीत्काले कल्याणानि महातपाः। शापकालमवाक्षिप्य शमकालमुदीरयन्।। | 11-13-6a 11-13-6b |
न कोपः पाण्डवे कार्यो गान्धारि शममाप्नुहि। रजो निगृह्यतां चैव शृणु चेदं वचो मम।। | 11-13-7a 11-13-7b |
पुरोक्ता युद्धकाले त्वं पुत्रेण जयमिच्छता। जयमाशास्व मे मातर्युध्यमानस्य शत्रुभिः।। | 11-13-8a 11-13-8b |
सा तथा याच्यमाना त्वं युद्धकाले जयैषिणा। उक्तवत्यसि कल्याणि यतो धर्मस्ततो जयः।। | 11-13-9a 11-13-9b |
वाचाऽप्यतीते मा क्रोधे मनः कुरु यशस्विनि। स्मरामि भाषमाणां हि त्वामहं सत्यवादिनीम्।। | 11-13-10a 11-13-10b |
विग्रहे तुमुले राज्ञां गत्वा परमसंशयम्। जितं पाण्डुसुतैर्युद्धे नूनं धर्मस्ततोऽधिकः।। | 11-13-11a 11-13-11b |
क्षमाशीला पुरा भूत्वा साऽद्य न क्षमसे कथम्। अधर्मे जहि धर्मज्ञे यतो धर्मस्ततो जयः।। | 11-13-12a 11-13-12b |
सा त्वं धर्मं परिस्मृत्य वाचं चोक्तां मनस्विनी। कोपं संयच्छ गान्धारि पाण्डवेषु सुतेषु ते।। | 11-13-13a 11-13-13b |
गान्धार्युवाच। | 11-13-14x |
भगवन्नाभ्यसूयामि नैतानिच्छामि नश्यतः। पुत्रशोकेन तु बलान्मनो विह्वलतीव मे।। | 11-13-14a 11-13-14b |
यथैव कुन्त्या कौन्तेया रक्षितव्यास्तथा मया। तथैव धृतराष्ट्रेण रक्षितव्या यथा त्वया।। | 11-13-15a 11-13-15b |
दुःशासनापराधेन शकुनेः सौबलस्य च। कर्णदुर्योधनाभ्यां च कृतोऽयं कृरुसंक्षयः।। | 11-13-16a 11-13-16b |
नापराध्यति बीभत्सुर्न च पार्थो वृकोदरः। नकुलः सदेवश्च नैव राजा युधिष्ठिरः।। | 11-13-17a 11-13-17b |
युध्यमाना हि कौरव्याः कृतमामाः परस्परम्। निहताः सहिताश्चान्यैस्तत्र नास्त्यप्रियं मम।। | 11-13-18a 11-13-18b |
किं तु कर्माकरोद्भीमो वासुदेवस्य पश्यतः। दुर्योधनं समाहूय गदायुर्द्ध महामनाः।। | 11-13-19a 11-13-19b |
शिक्षयाऽभ्यधिकं ज्ञात्वा चरन्तं बहुधा रणे। अधो नाभ्याः प्रहृतवांस्तन्मे कोपमवर्धयत्।। | 11-13-20a 11-13-20b |
कथं नु धर्मं धर्मज्ञाः समुद्दिष्टं महात्मभिः। त्यजेयुराहवे शूराः प्राणहेतोः कथञ्चनः।। | 11-13-21a 11-13-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते स्त्रीपर्वणि जलप्रदानिकपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः।। 13 ।। |
11-13-10 न चाप्यतीतां गान्धारि वाचं ते वितथामहम्। स्मरामितोषमाणायास्तथा प्रणिहिता ह्यसि इति झ.पाठे अस्य एनं दुर्योधनं तोषमाणाया आशीर्वचनेन तोषयन्त्यास्ते तव तां तां वाचं वितथां न स्मरामीत्यन्वयः।। 11-13-13 सा त्वं धर्म परित्यज्य वाचा चोक्त्वा मनस्विनि। इचि छ.ट.पाठः।। 11-13-18 कृतमानाः कृताहकाराः।। 11-13-13 त्रयोदशोऽध्यायः।।
स्त्रीपर्व-012 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | स्त्रीपर्व-014 |