महाभारतम्-11-स्त्रीपर्व-006
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पूर्वाध्याये कान्तारादित्वेन रूपितानां संसारादीनां स्वस्वशब्दैः प्रतिपादनम्।। 1 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 11-6-1x |
अहो खलु महद्दुःखं कृच्छ्रवासं वसत्यसौ। कथं तस्य रतिस्तत्र तुष्टिर्वा वदतां वर।। | 11-6-1a 11-6-1b |
स देशः क्वनु यत्रासौ वसते धर्मसङ्कटे। कथं वा स विमुच्येत नरस्तस्मान्महाभयात्।। | 11-6-2a 11-6-2b |
एतन्मे सर्वमाचक्ष्व साधु चेष्टामहे तदा। कृपा मे महती जाता तस्याभ्युद्धरणेन हि।। | 11-6-3a 11-6-3b |
विदुर उवाच। | 11-6-4x |
उपाख्यानमिदं राजन्मोक्षविद्भिरुदाहृतम्। सुगतिं विन्दते येन परलोकेषु मानवः।। | 11-6-4a 11-6-4b |
उच्यते यत्तु कान्तारं महासंसार एव सः। वनं दुर्गं हि यच्चैतत्संसारगहनं हि तत्।। | 11-6-5a 11-6-5b |
ये च ते कथिता व्याला व्याधयस्ते प्रकीर्तिताः।। | 11-6-6a |
या सा नारी बृहत्काया अध्यतिष्ठत तत्र वै। तामाहुस्तु जरां प्राज्ञा रूपवर्णविनाशिनीम्।। | 11-6-7a 11-6-7b |
स यस्तु कूपो नृपते स तु देहः शरीरिणाम्। यस्तत्र वसतेऽधस्तान्महाहिः काल एव सः। अन्तकः सर्वभूतानां देहिनां प्राणाहार्यसौ।। | 11-6-8a 11-6-8b 11-6-8c |
कूपमध्ये च या जाता वल्ली यत्र स मानवः। प्रोतो ययाऽभवल्लग्नो जीविताशा शरीरिणाम्।। | 11-6-9a 11-6-9b |
स यस्तु कूपपीनाहे तं वृक्षं परिसर्पति। षड्वक्त्रः कुञ्जरो राजन्स तु संवत्सरः स्मृतः।। | 11-6-10a 11-6-10b |
मुखानि ऋतवो मासाः पादा द्वादशा कीर्तिताः। ये तु वृंक्षं निकृन्तन्ति मूषिकाः पन्नगास्तथा।। | 11-6-11a 11-6-11b |
रात्र्यहानि तु तान्याहुर्भूतानां परिचिन्तकाः। ये ते मधुकरास्तत्र कामास्ते परिकीर्तिताः।। | 11-6-12a 11-6-12b |
यास्तु ता बहुशो धाराः स्रवन्ति मधुनिस्रवम्। तांस्तु कामरसान्विन्द्याद्यत्र सज्जन्ति मानवाः।। | 11-6-13a 11-6-13b |
एवं संसारचक्रस्य परिवृत्तिं विदुर्बुधाः। येन संसारचक्रस्य पाशांश्छिन्दन्ति सर्वथा।। | 11-6-14a 11-6-14b |
।। इति श्रीमन्महाभारते स्त्रीपर्वणि जलप्रदानिकपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः।। 5 ।। |
[सम्पाद्यताम्]
11-6-4 उपमानमिदं राजन्निति झ.पाठः।। 11-6-6 षष्ठोऽध्यायः।।
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