लक्ष्मीतन्त्रम्/अध्यायः ४०

विकिस्रोतः तः
← अध्यायः ३९ लक्ष्मीतन्त्रम्
अध्यायः ४०
[[लेखकः :|]]
अध्यायः ४१ →
लक्ष्मीतन्त्रस्य अध्यायाः


चत्वारिंशोऽध्यायः - 40
शक्रः---
नमस्ते वारिसंभूते नमस्ते पद्मसंभवे।
प्रकारमक्षमालायाः प्रतिष्ठाया वदाम्बुजे ।। 1 ।।
1. - - - - - - - - - - - -
श्रीः---
साधितामक्षमालां तु स्थापयेद्भाजने शुभे।
पूजयित्वार्घ्यपुष्पाद्यैस्तस्याः शुद्धिं समाचरेत् ।। 2 ।।
2. साधिताम्; निर्मिताम्।
अस्त्रेण दग्ध्वा निर्वाप्य वर्मणाप्याययेच्छ्रिया।
परमामृतरूपिण्या तां मालां भावयेत्ततः ।। 3 ।।
3. निर्वाप्य; विशोष्य। श्रिया; श्रीमन्त्रेण। भावयेत्; वक्ष्यमाणरूपेण ध्यायेत्।
चतुर्भुजामनौपम्यां मन्मयीं मामिवापराम्।
वरदाभयहस्तां च बद्धाञ्जलिकरद्वयाम् ।। 4 ।।
4. - - - - - - - - - - - -
ब्रह्मद्वाराम्बुजन्मस्थां देवीं ध्यायेच्छिखोपमाम्।
तां परां वैष्णवीं शक्तिं मन्मयीं मदभेदिनीम् ।। 5 ।।
5. ब्रह्मद्वारं ब्रह्मरन्ध्राख्यनाडी। शिखा वह्निशिखा।
द्वादशान्ते विचिन्त्याथ क्रमाद्ध्यायेद्धृदम्बुजे।
हृत्पद्मादुत्थितां बूयो ब्रह्मरन्ध्राद्विनिर्गताम् ।। 6 ।।
6. द्वादशान्ते; मूर्ध्न उपरि द्वादशाङ्गुलपरिमितस्थाने।
शनैः शनैरुल्लसन्तीं मालास्थां तां विचिन्तयेत्।
अङ्गोपाङ्गक्रमोपेतां{1} स्थूलसूक्ष्मपरात्मिकाम् ।। 7 ।।
7. - - - - - - - - - - - - - - -
{1. क्रियोपेतां A. E. }
मां ध्यायेत् तारिकाकारां तत्र शक्तौ सुरेश्वर।
मणीन् सूत्रं तथा मालां मालास्थां वैष्णवीमपि ।। 8 ।।
8. - - - - - - - - - - - - -
एकार्णवीकृतं सर्वं{2} मायां ध्यायेत् सुरेश्वर।
मया दत्तां विभाव्यैनां संस्कृतामक्षमालिकाम् ।। 9 ।।
9. - - - - - - - - - - - - -
{2. कृतां सर्वां C. }
जपं समाचरेत् पश्चात् पूर्वोक्तेन विधानतः।
अनुन्मिषत् परं सूक्ष्मं स्थूलमात्मानमेव च ।। 10 ।।
10. - - - - - - - - - - - - -
लक्ष्मीनारायणाकारं पञ्चकं भावयेदिदम्।
तुर्यातीतं तथा तुर्यं सुषुप्तिस्वप्नजागराः ।। 11 ।।
11. - - - - - - - - - - - -
अवस्थापञ्चकं तद्वत् तत्कर्तृकरणादिकम्।
कर्त्रुन्मेषं तथा तत्स्थं करणं बाह्यकं तथा ।। 12 ।।
12. - - - - - - - - - - - - - -
मन्त्राक्षरं तथा स्थूलं सर्वं तत्तन्मयं स्मरेत्।
हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां मन्मुखाम्भोजनिःसृताम् ।। 13 ।।
13. - - - - - - - - - - - - -
स्मरेच्छब्दमयीं शक्तिं वैष्णवीं मदभेदिनीम्।
तस्या विनिर्गतां ध्यायेन्मातृकां मन्त्रमातरम् ।। 14 ।।
14. - - - - - - - - - - - - -
मन्मयीं संस्मरेन्मालां जप्यमन्त्रमयीं ततः।
लतायामिव पुष्पाणि{3} मन्त्रान् वै तत्र संस्मरेत् ।। 15 ।।
15. - - - - - - - - - - - - - - -
{3. पुष्पाणां A. B. C. }
स्फुरणं मणिसंस्पर्शे हृल्लयं च तदत्यये।
भावयन् मन्त्रनाथस्य जपं कुर्याद्विचक्षणः ।। 16 ।।
16. - - - - - - - - - - - -
{4}हृद्भास्वरूपसंसूतिबहिरन्तःक्रमोत्क्रमात्।
इति स्मरन् जपेदेकवारं तत्कोटिसंमितम् ।। 17 ।।
17. - - - - - - - - - - - -
{4. सुहृत् A. B.; हृद्भास्वरूपसंस्यूति F. }
जपं समाप्य विधिवन्न्यस्येन्मयि जपं कृतम्।
शक्तिं तां मन्मुखान्तःस्थां जपरूपां विचिन्तयेत् ।। 18 ।।
18. - - - - - - - - - - - - -
दीपे धूपे तथार्घ्ये च घण्टानादं समाचरेत्।
आवाहने तथार्घ्ये च नैवेद्ये मधुपर्कके ।। 19 ।।
19. - - - - - - - - - - - -
प्रीणने च प्रयुञ्जीत घण्टानादं विचक्षणः।
न विना पूजया चाल्या तां विना पूजयेन्न च ।। 20 ।।
20. - - - - - - - - - - - - -
कार्यसिद्धिमभीप्सद्भिरिह चामुत्र चोभयोः।
सा हि घण्टाभिधा शक्तिर्वागीशा च सरस्वती ।। 21 ।।
21. - - - - - - - - - - - - -
वाचि मन्त्राः स्थिताः सर्वे वाच्यं मन्त्रेषु चाखिलम्।
एतस्यां चाल्यमानायां मन्त्रा वत्सा इव द्रुतम् ।। 22 ।।
22. - - - - - - - - - - - - - -
काङ्क्षमाणाः समायान्ति तां घण्टां मन्त्रमातरम्।
अधोमुखं तु ब्रह्माण्डं द्यायेल्लोककुलाकुलम् ।। 23 ।।
23. - - - - - - - - - - - -
नालं तस्यास्तदूर्ध्वे तु वृत्तं पद्मं स्मरेद्बुधः।
अष्टपत्रं शुभं श्वेतं कर्णिकाकेसरान्वितम् ।। 24 ।।
24. - - - - - - - - - - - -
तन्मध्ये चिन्तयेद्देवीं घण्टामष्टभुजान्विताम्।
मुख्यहस्तचतुष्केण पाशशङ्खाम्बुजाङ्कुशान् ।। 25 ।।
25. - - - - - - - - - - - - -
परबाहुचतुष्केण दधतीमक्षसूत्रकम्।
विज्ञानपुस्तकं सम्यगभयं च वरं तथा ।। 26 ।।
26. - - - - - - - - - - - -
पद्मासनामम्बुजाक्षीं पद्मगर्भसमत्विषम्।
बद्ममालाधरां पीतसितवस्रानुलेपनाम् ।। 27 ।।
27. - - - - - - - - - - -
मन्त्रौघमुद्गिरन्तीं च ब्रह्मादिपरिसंस्तुताम्।
तारिकामुच्चरन् दीर्घं{5} युग्मां संचालयेदिमाम् ।। 28 ।।
28. - - - - - - - - - - - - - - -
{5. दीर्घां A. }
अनया पूजयन् मन्त्री मन्त्रसिद्धिं निगच्छति।
ततो गुरून् समानीय मन्मयान् वापि वैष्णवान् ।। 29 ।।
29. - - - - - - - - - - - - - -
प्रदद्यात् प्रापणार्धं तु तेभ्यो मन्मन्त्रमुच्चरन्।
अथ वह्निगतां सम्यगग्नीषोममयीं पराम् ।। 30 ।।
30. वह्निसंतर्पणमुच्यते---अथेत्यादिना।
तर्पयेन्मां सुरेशान यथावदवधारय।
तत उत्तरदिग्भागे देवागाराद्बहिस्तु वा ।। 31 ।।
31. - - - - - - - - - - - -
भूभागे लक्षणोपेते कुण्डं कुर्यात् सलक्षणम्।
चतुरश्रं समं यद्वा पद्माकारं मनोहरम्{6} ।। 32 ।।
32. - - - - - - - - - - - - -
{6. मनोरमम् F. }
शतार्धहोमसंख्यायां कुण्डं स्याद् द्वादशाङ्‌गुलम्।
अष्टोत्तरशतेऽरत्निसमं हस्तं सहस्रके ।। 33 ।।
33. होमसंक्यानुगुण्येन कुण्डविस्तृतिरुच्यते---शतार्धेत्यादिना।
अयुताख्ये द्विहस्तं च लक्षहोमे चतुष्करम्।
कोटिहोमेऽष्टहस्तं स्याच्छास्रतः कारयेच्च तत् ।। 34 ।।
34. - - - - - - - - - - - - - - -
त्रिकोणमपि वा कुर्याद्धोमकुण्डं त्रिमेखलम्।
उद्धृत्य तारया पूर्वं त्रिस्तया प्रोक्षयेद्भुवम् ।। 35 ।।
35. तया; तारया।
शोषणं दाहनं प्लावं तारया सम्यगाचरेत्।
आधारशक्त्याद्यारभ्य पूज्यं भावासनावधि ।। 36 ।।
36. भावासनं पूर्वमाधारशक्तिप्रकरणोक्तम्।
तत्र नारायणाख्यां वै शक्तिं तेजोमयीं पराम्।
मन्मयीममृताकारां सर्वातिशयरूपिणीम् ।। 37 ।।
37. - - - - - - - - - - -
सर्वशक्तिसमूहस्थां सर्ववस्त्वन्तरस्थिताम्।
अवतार्य हृदम्भोजात् सृष्टिमार्गेण शाश्वतीम् ।। 38 ।।
38. - - - - - - - - - - - - -
तारिकास्फुरणाकारामवतीर्य हृदम्बुजात्।
रेचकेन विनिक्षिप्य कुण्डमध्याम्बुजान्तरे ।। 39 ।।
39. - - - - - - - - - - - -
संपूज्य गन्धपुष्पाद्यैः पद्ममुद्रां प्रदर्श्य च।
ध्यायेदृतमतीं शक्तिं सुस्नातामहताम्बराम् ।। 40 ।।
40. ध्यायेदित्यादिना अग्नेर्वैष्णवीकरणमुच्यते।
ध्यायेत् सर्वात्मिकां शक्तिं तामेव त्वधरारणिम्।
उत्तरं चारणिं ध्यायेत् सर्वतेजोमयं हरिम् ।। 41 ।।
41. - - - - - - - - - - - - -
मथ्नीयात् तारया सम्यक् तथा चैवानुतारया।
उत्पन्नं तारयादाय{7} कृशानुं शक्तिसंभवम् ।। 42 ।।
42. - - - - - - - - - - - - -
{7. आघ्राय A. B. G. }
{8}अभिगूह्याङ्गुलीभिस्तु संस्कुर्याद्वैष्णवाक्यया।
चूडां च तारया कुर्यादन्नप्राशनपूर्वकम् ।। 43 ।।
43. अभिगूह्य; संवृत्य। अन्नप्राशनेति जातकर्मनामकरणयोरप्युपलक्षणम्।
{8. अभिगृह्य C. }
उपनीय ततो वह्निं तारया चानुतारया।
ततः स्वाहास्वधाभ्यां तु देवीभ्यां जातवेदसः ।। 44 ।।
44. - - - - - - - - - - - - -
पाणिग्रहणकं कुर्यात् तारया त्वनुतारया।
सर्वं ध्यानमयं कार्यं जातनामादिकर्म तत् ।। 45 ।।
45. - - - - - - - - - - - - -
लोहपाषाणमण्युत्थवह्नौ कार्यवशात् कृते।
लौकिके वापि संस्कारं निषेकादि समाचरेत् ।। 46 ।।
46. - - - - - - - - - - - - - -
{9}आधाय तैजसे पात्रे मृन्मयेऽभिनवे तु वा।
देवीसहायं स्वाहेशं तारयैवार्चयेत् सुधीः ।। 47 ।।
47. - - - - - - - - - - - -
{9. आदाय C. }
पूरणेनोपसंहृत्य स्वात्मन्युपशमं नयेत्।
क्रमादानन्दशक्त्या तं संहारेण तु योजयेत् ।। 48 ।।
48. - - - - - - - - - - - - -
सृष्टिमार्गेण तं भूयोऽप्यवतार्य पदात् पदम्।
कुण्डमध्याम्बुजान्तःस्थां तारया भुवमानयेत् ।। 49 ।।
49. - - - - - - - - - - - - -
वह्निं स्वाहास्वधेशानमग्नीषोममयं यजेत्।
समिद्भिस्तिसृभिस्तारामुच्चरन्नेकयैकया ।। 50 ।।
50. - - - - - - - - - - - -
शालीतिलाक्षतैः पश्चात् तत आज्याहुतित्रयम्।
उच्चार्य तारिकां पूर्वं बोधयेति द्विरुच्चरेत् ।। 51 ।।
51. - - - - - - - - - - - - -
तत्रस्थो बुध्यते वह्निर्यथावच्च हुतः{10} स्वयम्।
पर्यग्निकरणं कार्यं तारयैवार्द्रपाणिना ।। 52 ।।
52. - - - - - - - - - - -
{10. यो यथा यस्य सः A. B. G. }
स्तृणीयात् तारया दर्भैस्रेधा त्रेधा चतुर्धिशम्।
उदग्भागेऽग्निकुण्डस्य स्तृणीयाद्दर्भसंचयम् ।। 53 ।।
53. - - - - - - - - - - - - -
प्रणीताप्रोक्षणीपात्रे दर्वीध्मौ स्रुक्स्रुवौ तथा।
आज्यस्थालीं पवित्रे च सर्वं तत्र निधापयेत् ।। 54 ।।
54. - - - - - - - - - - - - -
प्रणीतां तारयापूर्य गन्धयुक्तेन वारिणा।
पवित्राब्यां त्रिरुत्पूय मां ध्यायेत् तारया श्रियम् ।। 55 ।।
55. - - - - - - - - - - - - - -
वह्नेरुदक् प्रतिष्ठाप्य प्रोक्षणीं पूरयेच्छ्रिया।
तामुत्पूय ततः प्रोक्ष्य यागोपकरणं समम् ।। 56 ।।
56. - - - - - - - - - - - -
आज्यपात्रं समादाय तस्मिन्नाज्यं निधाय च।
ब्रह्म सर्पिःसमुद्रोत्थं तद्ध्यात्वाग्नेरुदग्गतम् ।। 57 ।।
57. - - - - - - - - - - - -
तारया समभिज्वाल्य दर्भाग्रे विनिधाय च।
तया पुनरभिज्वाल्य पर्यग्निकृतिमाचरेत् ।। 58 ।।
58. - - - - - - - - - - - -
वह्नेः पश्चात् प्रतिष्ठाप्य पवित्रद्वितयेन तत्।
उत्पूय तारयाग्नौ तत् पवित्रद्वितयं क्षिपेत् ।। 59 ।।
59. - - - - - - - - - - - -
परिदध्यात् परिधिभिर्यज्ञयोग्यैश्चतुर्दिशम्।
अग्निशर्वदिशोः स्थाप्य कुण्डमध्ये समिद्‌द्वयम् ।। 60 ।।
60. - - - - - - - - - - - - - -
तत इध्मं समाधाय शुष्कं पञ्चदशात्मकम्।
तारया परिषिच्याग्निं स्रुक्स्रुवौ{11} परितापयेत् ।। 61 ।।
61. - - - - - - - - - - - - - - -
{11. स्रुवौ तु G. }
निमृज्य तारया पश्चात्तौ प्रोक्ष्याथ स्रुचा तया।
वायोरग्निदिशं यावद्यातोः शर्वदिशावधि ।। 62 ।।
62. - - - - - - - - - - -
{12}धारया स्रावयेद्वह्नौ मध्ये दद्यात् स्रुवाहुतिम्।
अष्टोत्तरशतं वापि तदर्धं वा तदर्थकम् ।। 63 ।।
63. - - - - - - - - - - - -
{12. धारा आस्रावयेत् C. }
स्रुवेणाज्याहुतीर्दद्यात् स्वाहान्तां तारिकां गृणन्।
अयं योग्यो भवेद्वह्निर्भगवद्धव्यवाहने ।। 64 ।।
64. - - - - - - - - - - - -
{13}आदध्यात् समिधः सप्त ततस्तारिकया सुधीः।
यज्ञकाष्ठमयीरादौ ब्रह्मक्षत्रतरूद्भवाः ।। 65 ।।
65. ब्रह्मतरुः पलाशः। क्षत्रतरुः मुचुकुन्दनामा तरुः। दशापरा इति। अवशिष्टा दश समिध दश समिध इत्यर्थः।
{13. F. omits verses 65 to 112. }
तारया समिधो दद्यात् काष्ठरूपा दशापराः।
मामेव भावयेन्मध्ये विष्णोरङ्कस्थितां पराम् ।। 66 ।।
66. - - - - - - - - - - - - -
ब्रह्मानन्दमयाम्भोजकर्णिकास्थस्य वै विभोः।
अङ्कस्थां भावयल्लँक्ष्मीं ता दद्यात्समिधोऽखिलः ।। 67 ।।
67. - - - - - - - - - - - - - -
ततः पुष्पमयीं दद्याद् धूपद्रव्यमयीं तथा।
एतास्तु त्रिविधा देया हस्तेनैव मनीषिणा ।। 68 ।।
68. - - - - - - - - - - - -
मधुपर्कमयीं पश्चात् स्रुवेण जुहुयात् सुधीः।
स्रुच्यन्नं चतुरादाय सर्पिषापूर्यं पूर्ववत् ।। 69 ।।
69. - - - - - - - - - - - -
तयैवान्नाहुतिं दद्यात् स्वाहान्तां तारिकां गृणन्।
स्रुवेणाज्याहुतीः पूर्वसमित्संख्याः समाचरेत् ।। 70 ।।
70. - - - - - - - - - - - -
पुष्पाञ्जलिमुपादाय वह्निस्थामर्चयेद्धिया।
नित्ययागो ममैतावानूर्ध्वं काम्याहुतिं क्षिपेत् ।। 72 ।।
72. - - - - - - - - - - - - -
दशवारं तारयैव क्षमस्वेति वदन् धिया।
प्रणीतामुपसंहृत्य शुचिस्थाने {14}निनीय च ।। 73 ।।
73. - - - - - - - - - - - - -
{14. निधाय A. B. }
प्रहृत्य परिधीन् सर्वान् {15}सँस्रावं समाचरेत्।
स्तरं प्रहृत्य वह्नौ च घृतेनापूर्य च स्रुवम् ।। 74 ।।
74. - - - - - - - - - - - -
{15. सर्पिः A. B. }
दद्यात् पूर्णाहुतिं दीर्घां स्वाहान्तां तारिकां गृणन्।
शक्त्या समेतां तां तारां वह्निस्थां मन्मयीं पराम् ।। 75 ।।
75. - - - - - - - - - - - - - - -
मां चाप्यङ्कस्थितां {16}विष्णोर्नासिकासंधिमार्गतः।
मरुच्छक्त्या समाकृष्य हृत्पद्मे विनिवेश्य च ।। 76 ।।
76. - - - - - - - - - - - - - -
{16. विर्ष्णोर्नाडिका C. }
यागभूमिं समेत्याथ नवपद्मस्थया मया।
एकीकृत्य मयि न्यस्येदर्छास्थायां कृतिं तु ताम् ।। 77 ।।
77. - - - - - - - - - - - - - -
प्रागेव विभजेदन्नं प्रापणात् संप्रदानतः।
तेनान्नेन यजेत् सम्यग्विष्वक्सेन चतुर्भुजम् ।। 78 ।।
78. - - - - - - - - - - - - -
मण्डलान्तमुपानीय समाहूयाम्बरान्तरात्।
नवाम्रपत्रसदृशं पिङ्गभ्रूश्मश्रुलोचनम् ।। 79 ।।
79. - - - - - - - - - - -
पीतवस्रं चतुर्दंष्ट्रं स्वमुद्राद्वितयान्वितम्।
गदाखड्गधरं देवमभ्यर्च्य क्रमशः सुधीः ।। 80 ।।
80. - - - - - - - - - - - -
साङ्गमुद्रामथादर्श्य गत्वा कुण्डसमीपतः।
विष्वक्सेनस्ततो भकत्या तर्पणीयस्तिलाक्षतैः ।। 81 ।।
81. इत आरभ्य पञ्चार्धानि जयाख्यावचनमनुकुर्वन्ति।
वौषडन्तेन मन्त्रेण दद्यात् पूर्णाहुतिं ततः।
मण्डले पूजयित्वाथ कुर्यात्तस्य विसर्जनम् ।। 82 ।।
82. - - - - - - - - - - - -
स्वमन्त्रेण सुरश्रेष्ठ{17} क्षमस्वेति पदं वदन्।
मुद्रां च दर्शयेत्तं च नभस्युत्पतितं स्मरेत् ।। 83 ।।
83. - - - - - - - - - - - -
{17. ज्येष्ठ B. C. }
विष्वक्सेनार्चनं सर्वमगाधेऽम्बुनि निक्षिपेत्।
तोयेनास्रप्रजप्तेन प्लावयेन्मण्डलं च तत् ।। 84 ।।
84. - - - - - - - - - - - -
ततः संपूजयेत् सर्वान् लोकपालानशेषतः।
पुष्पार्घ्यैरन्नदानान्तैरेकाहुत्या च वह्नितः ।। 85 ।।
85. - - - - - - - - - - - -
{18}बह्विभिर्वा यथाशक्ति स्वैः स्वैर्मन्त्रैर्यथाविधि।
पूजयित्वा {19}विसृज्यैतांस्तदस्राण्यपि पूजयतेत् ।। 86 ।।
86. - - - - - - - - - - - - - - -
{18. व्रीहिभिर्वा A. G. }
{19. विसृज्यैनान् B. }
सर्वांश्च परिवारांस्तान् स्वस्वस्थानक्रमेण तु।
्र्चयेत् क्षेत्रपालादीन् वह्निमध्ये च तर्पयेत् ।। 87 ।।
87. - - - - - - - - - - - - -
आधारशक्तेरारभ्य पीठशक्तीश्च सर्वशः।
गणेशाद्याश्च संपूज्याः संतर्प्याश्च घृतादिकैः ।। 88 ।।
88. - - - - - - - - - - - - -
सकृत्कृत्या त्रिवृत्या वा पूर्णाः सर्वेष्वथ क्षिपेत्।
लक्ष्म्यादीन्पूजयेत्सर्वान् विष्वक्सेनार्चनात्पुरा ।। 89 ।।
89. - - - - - - - - - - - - -
विष्वक्सेनार्चनात् पश्चाल्लोकपालार्चनं क्रमात्।
ततो वेदिं विशोध्याथ दर्भान् संस्तीर्य दक्षिणान् ।। 90 ।।
90. - - - - - - - - - - - - - -
पितॄन् यजेत् क्रमेणैव प्रापणार्थावशेषतः।
कृत्वा पिण्डत्रयं तेन पितृभ्यो निर्वपेत् स्तरे ।। 91 ।।
91. - - - - - - - - - - - - -
{20}अर्घ्याज्जलं तथा दद्यादेकैकस्यैकमञ्जलिम्।
वैष्णवायाथवा दद्याद्ब्राह्नणाय विशेषिणे{21} ।। 92 ।।
92. ब्राह्नणाय विशेषिणे इति। विशिष्टब्राह्नणायेत्यर्थः। एतच्च धनिकेतरविषयम्। धनिकविषये तु चतुरो ब्राह्नणान्, तदलाभे एकं वा श्राद्धविधिना भोजयेदिति सात्त्वते उक्तम् (6, 167-179)।
{20. अर्घ्याञ्जर्लि A. B. G. }
{21. विशेषतः B. G. }
पितॄनुद्दिश्य वै भक्तं तत्तन्नामानुदेशवत्।
संन्यस्य मयि तत् सर्वमन्तर्धानमवेक्ष्य च ।। 93 ।।
93. - - - - - - - - - - - - -
अर्घ्याद्यमुपसंहृत्य वर्मास्रे प्रतिहृत्य च।
उपसंहृत्य च न्यासमनुयागं समाचरेत् ।। 94 ।।
94. अनुयागः प्रापणावशेषोपयोगो भोजनादिः।
अस्रेण तारया प्रोक्ष्य तारया परिषिच्य च।
उपस्तीर्य तया चापो दद्यात् प्राणाहुतीस्तया{22} ।। 95 ।।
95. तयोपस्तीर्य; तारया निपीयेत्यर्थः।
{22. तदा A. }
अदीक्षितस्त्वनुयजंस्तत्तन्मन्त्रानुसंहिताम्।
तारिकामुच्चरन् कुर्यान्मां चान्तःस्थां विभावयेत् ।। 96 ।।
96. पूर्वोक्तं तारया प्रोक्षणपरिषेचनापोशनप्राणाहुत्यादिकं दीक्षितविषयम्। अदीक्षितानां तु तत्तत्सूत्रकृदुक्तमन्त्रैरेव कर्तव्यम्।
सोमानन्दमयीं दिव्यां क्रमादन्नात्मतां गताम्।
वीर्यरूपरसाकारां तेजोवीर्यबलात्मिकाम् ।। 97 ।।
97. - - - - - - - - - - - -
ऐश्वर्यशक्तिविज्ञानरूपं भोक्तारमव्ययम्।
आत्मानं पुण्डरीकाक्षं भावयेत् पुरुषोत्तमम् ।। 98 ।।
98. - - - - - - - - - - - -
तारिकामुच्चरन् पश्चादपिधायान्नमम्भसा।
आचम्य द्विस्ततो न्यस्येदनुयागं ततो मयि ।। 99 ।।
99. अपिधायाम्भसेति। उत्तरापोशनं पीत्वेत्यर्थः।
अथ स्वाध्यायमभ्यस्येद् दिनशेषं विचक्षणः।
चतुर्विधानि शास्राणि तदुत्थं तारिकादिकम् ।। 100 ।।
100. स्वाध्यायम्; वेददिव्यशास्रादिपरिचयम्। चतुर्विधानि---आगमसिद्धान्तमन्त्रसिद्धान्ततन्त्रसिद्धान्ततन्त्रान्तरसिद्धान्तप्रतिपादकानि शास्राणि।
सिद्धान्तानपि चाशेषानसंलग्नेन चेतसा।
स्वाशयप्रविशुद्ध्यर्थं समीक्षेत धिया स्वया ।। 101 ।।
101. - - - - - - - - - - - -
संध्यामुपास्य विधिवदभिगम्य च मां धिया।
योगं युञ्जीत विधिवच्छास्रशुद्धेन चेतसा ।। 102 ।।
102. - - - - - - - - - - - -
पूर्वपश्चिमयोर्नक्तं यामयोर्धातुसाम्यवान्।
इति यागविधिः शक्र विस्तरेण प्रदर्शितः ।। 103 ।।
103. नक्तं प्रथमयामः चरमयामश्च योगकालः। मध्ये जायमाना निद्रापि भगवति स्वात्मसमर्पणेन योगरूपा भावनीया।
विधानस्य तु संक्षेपं पुनरस्य {23}निबोध मे।
संक्षेपविस्तरे कुर्याद् देशकालानुकूलतः ।। 104 ।।
104. - - - - - - - - - - - -
{23. ब्रवीमि ते B. }
नैव कुर्यादपच्छेदं यजेदञ्जलिनापि माम्।
यजेतोभौ सहैवावां सूक्तेन पुरुषेण तु ।। 105 ।।
105. अपच्छेदः; विच्छेदः।
तथा मदीयसूक्तेन ताभ्यां वा नौ यजेत् पृथक्।
स्थाने वा सर्वमन्त्राणां तारिकामेव योजयेत् ।। 106 ।।
106. - - - - - - - - - - - - -
कुर्यात् संकल्पसंन्यासौ द्वावेवाद्यन्तयोः पृथक्।
अकुर्वन् भोगनिर्देशं केवलैर्वा यजेत्तु तैः ।। 107 ।।
107. - - - - - - - - - - - -
तथा तथैव कुर्वीत शक्नुयात्तु यथा यथा।
न त्वेव हापयेद्यागमपि दद्याज्जलाञ्जलिम् ।। 108 ।।
108. शक्नुयादिति। मदाराधनस्य नित्यत्वात् नित्यस्य च यथाशक्त्यनुष्ठानविधानात् यथाशक्ति मामाराधयेदित्यर्थः।
तारिकां वाप्यधीयीत द्रव्याभावे विचक्षणः।
मनसा भावेयेद्रूपं यत्तस्या यादृशं च यत् ।। 109 ।।
109. - - - - - - - - - - - -
निरामिषस्य शुद्धस्य लब्धलक्ष्यस्य वै पदे।
विक्षोभाय क्रियाः सर्वाः या याः शास्रेण दर्शिताः ।। 110 ।।
110. - - - - - - - - - - - - - -
आततस्य च सर्वत्र समतामभ्युपेयुषः।
कः किं कस्मै किमर्थं वा कथं वा शक्नुयात्क्रियाम् ।। 111 ।।
111. - - - - - - - - - - - - - - - -
अग्नीषोममयौ हित्वा पन्थानौ सार्वलौकिकौ।
तयोरन्तरमाविश्य मार्गमूर्ध्वं समाचरेत् ।। 112 ।।
112. - - - - - - - - - - - -
लयाग्निदग्धदुर्मार्गः शीतीभूतो निरामयः।
स्थूलसूक्ष्मपरातीतपदाक्रान्तिविचक्षणः ।। 113 ।।
113. - - - - - - - - - -
पश्यञ्च्छृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।। 114 ।।
114. - - - - - - - - - - -
अकुर्वन्नेव तत् सर्वं मद्भूतो ह्यनिदंमयः।
अवस्थादेशकालाद्यैरनवस्यूतयाखिलैः ।। 115 ।।
115. अनवस्यूतयेति। अपरिच्छिन्नयेत्यर्थः।
अहंतया समाक्रान्तो धूमपीताग्निपीतवत्।
अनत्रा वर्तमानो हि सूर्याचन्द्रमसोर्द्वयोः ।। 116 ।।
116. धूमपीतेत्यादि। यथा धूमाग्न्योर्मध्ये वर्तमानो धूमेनाग्निना च संबद्धो भवति, तथा सूर्याचन्द्रमसोरन्तरा वर्तमान इत्यर्थः।
{24}व्यक्तमुद्दाल्य वै तालु ध्रुवस्थाने निवेशयन्।
मनः शून्यमयं भावमातिष्ठन् लयसंमितम् ।। 117 ।।
117. - - - - - - - - - - - -
{24. रत्नमुद्दाल्य वा तालं B. C. }
{25}एवं यो वर्तते योगी {26}तारिकामननोद्यतः।
स कर्मठः स वै सांख्यः स योगी स च सात्त्वतः ।। 118 ।।
118. - - - - - - - - - - - - - - -
{25. य एवं B. C. F. }
{26. तारिकामनुना A. }
स च पाशुपतो ज्ञेयः सर्वसिद्धान्तगश्च सः।
इत्येवं ते मयोद्दिष्टो मद्भावः पारमार्थिकः।
शृणु शेषमशेषं मे यत्ते किंचिद् विवक्षितम् ।। 119 ।।
119. - - - - - - - - - - - - -
इति {27}श्रीपाञ्चरात्रसारे लक्ष्मीतन्त्रे नित्यविधिप्रकाशो नाम चत्वारिंशोऽध्यायः
{27. श्रीपञ्चरात्र A.; श्रीपाञ्चरात्रे B. }
********इति चत्वारिंशोऽध्यायः********