लक्ष्मीतन्त्रम्/अध्यायः २७
← अध्यायः २६ | लक्ष्मीतन्त्रम् अध्यायः २७ [[लेखकः :|]] |
अध्यायः २८ → |
सप्तविंशोऽध्यायः - 27
शक्रः---
नमस्तुभ्यं जगन्नाथे पुण्डरीकाक्षवल्लभे।
अशेषजगदीशाने सर्वज्ञे सर्वभाविनि ।। 1 ।।
1. - - - - - - - - - -
श्रुतमेतन्मया सम्यग्विद्यानां{1} तत्त्वमुत्तमम्।
भूयश्च तारिकाया मे विधिं व्याख्यातुमर्हसि ।। 2 ।।
2. - - - - - - - - - - - - -
{1. विज्ञानं B. F. }
श्रीः{2}---
आद्यमेकं परं ब्रह्म सर्वज्ञं सच्चिदात्मकम्।
{3}स्वशक्तिचरितं दिव्यं लक्ष्मीनारायणं महः ।। 3 ।।
3. - - - - - - - - - - - - -
{2. श्रीरुवाच I. }
{3. स्वशक्त्या छुरितं I. }
{4}अहं सा परमा शक्तिरहंताख्या सनातनी।
तद्धर्मधर्मिणी नित्या प्रभा भानोरिवामला ।। 4 ।।
4. - - - - - - - - - - - -
{4. साहंता I. }
तदीयानि विधीयन्ते पञ्च कृत्यानि सर्वदा।
तदुन्मेषस्वरूपिण्या मयैवादितिनन्दन ।। 5 ।।
5. - - - - - - - - - - -
मम दिव्या परा शक्तिर्नित्यं{5} मद्धर्मधर्मिणी।
हृल्लोखा परमा विद्या {6}मत्स्वरूपा पुरंदर ।। 6 ।।
6. हृल्लेखा पञ्चविंशाध्याये निर्दिष्टतारिकापरनामा ह्रींमन्त्रः। अत्राप्यनुपदमेव मन्त्रस्वरूपं निर्देक्ष्यते।
{5. नित्या B. F. I. }
{6. मत्स्वरूपम् A. D. I. }
अस्या व्याख्यामिमां शश्वत् सावधानेन चेतसा।
श्रद्दधानः प्रपन्नस्त्वमुपसन्नो गृहाण मे ।। 7 ।।
7. - - - - - - - - - -
आमनन्ति यमात्मानं जगतस्तस्थुषः परम्।
{7}प्रसवस्थितिसंहारकारणं सूर्यसंज्ञितम्{8} ।। 8 ।।
8. - - - - - - - - - - - - - -
{7. प्रभव F. }
{8. संज्ञकम् B. C. F. }
नित्यं{9} प्रेरयितारं च प्राणसंज्ञं सनातनम्।
तं विद्धि प्रथमं वर्णँ हकारं पुरुषोत्तमम् ।। 9 ।।
9. - - - - - - - - - - - -
{9. नित्य B. D. }
यस्तस्य प्रथमोन्मेषः क्रोडीकृतजगत्त्रयः{10}।
अशेषभुवनाधारो ज्वलद्रूपोऽमितोऽन्यतः ।। 10 ।।
10. - - - - - - - - - - - -
{10. जगत्क्रियः G. }
रेफं तत्परमं विद्धि तेजोरूपं सनातनम्।
उन्मेष एव सम्यक् स{11} व्याप्नुवन् सकलां गतिम् ।। 11 ।।
11. - - - - - - - - - - - - - - - - -
{11. सं B. D. }
व्यापारान् पञ्च बिभ्रच्च बिन्दून् सृष्ट्यादिलक्षणान्।
आस्चर्यज्ञानरूपश्च निमेषोन्मेषसंततेः ।। 12 ।।
12. - - - - - - - - - - -
इच्छाज्ञानक्रियारूपं बिभ्रच्च {12}विततिक्रमम्।
इईरूपस्य युग्मस्य स्थितिरेषा सनातनी ।। 13 ।।
13. - - - - - - - - - - - -
{12. विदितक्रमः B.; विततिं क्रमात् I. }
तदेवं{13} परमोन्मेषरूपाहं विततोदया।
इच्छाज्ञानक्रियारूपा पञ्चकृत्यकरी विभोः ।। 14 ।।
14. - - - - - - - - - - - - -
{13. तदेव C. }
नानाविधाश्चर्यमयी चिद्धना सुखरूपिणी।
विज्ञेया परमात्मस्था व्यापिनी विष्णुवल्लभा ।। 15 ।।
15. - - - - - - - - - - - - -
विधाय कृत्यमखिलं त्रैलोक्यैश्वर्यदायिनी।
तस्मिन्नेव पुनर्देवे व्योमेशे परमात्मनि ।। 16 ।।
16. - - - - - - - - - - -
आदाय सर्वसंभारं प्रतितिष्ठामि निष्कला।
अस्या रूपाणि पञ्चेह तत्त्वज्ञाः संप्रचक्षते ।। 17 ।।
17. - - - - - - - - - - - -
तानि रूपाणि देवेश गदन्त्या मे निशामय।
व्योमेशान्तमिदं रूपमेकं यत्तत्प्रकीर्तितम् ।। 18 ।।
18. व्योमेशान्तमिति। बिन्द्वन्तमित्यर्थः।
व्योमेशात् परतः केचिद्वाञ्छन्ति परमेश्वरम्।
व्योमेशमपहायान्ये प्रधानं विनियोज्य तु ।। 19 ।।
19. परमेश्वरः विसर्गः। प्रधानो मकारः।
बिन्दुनादौ च वाञ्छन्ति तदन्ते प्रणवोपमम्।
अन्ते प्रधानमेवैकं केचिद्धीराः प्रचक्षते ।। 20 ।।
20. - - - - - - - - - - -
सृष्टिकर्तारमन्तेऽन्ये वैदिकाः समधीयते।
एवं पञ्च स्वरूपाणि तारिकाया विदुर्बुधाः ।। 21 ।।
21. सृष्टिकर्ता विसर्गः।
शान्तस्थायाः सुरेशान रूपाण्येवंविधान्यपि।
प्रधानान्ते विसृष्ट्यन्ते व्योमेशान्ते तथैव च ।। 22 ।।
22. मन्त्राणामेषां फलतारतम्यमाह---प्रधानान्ते इत्यादिना।
व्योमेशोर्ध्वविसृष्ट्यन्त इति रूपचतुष्टये।
ऐहिकी परमा सिद्धिस्तत्तच्चामुत्रिकी{14} परा ।। 23 ।।
23. - - - - - - - - - - - - - -
{14. तत्र चामुष्मिकी D.; तत्र चामुत्रिकी I. }
प्रधानबिन्दुनादान्ते मोक्षश्रीरेव केवला।
इत्येवमनुसंधाय तारिकायाः परां स्थितिम् ।। 24 ।।
24. - - - - - - - - - - - - -
शिष्याय साधुशीलाय गुरुब्रह्महितैषिणे।
आचार्य आदिशेद्विद्यां परब्रह्मस्वरूपिणीम् ।। 25 ।।
25. - - - - - - - - - - - - -
हस्तदेहाङ्गविन्यासं विधायात्मनि वै पुरा।
विनय्स्य शिष्यदेहे च ततश्चोपदिशेन्मनुम् ।। 26 ।।
26. - - - - - - - - - - - - -
स्थापयेद्धृदि शिष्यस्य भावपूर्वं मनुं परम्।
पुनश्च स्थापयेत् स्वस्य{15} हृदये मन्त्रमुत्तमम् ।। 27 ।।
27. - - - - - - - - - - - - - - -
{15. स्वस्मिन् B. F. I. }
दीक्षाभिषेकपूर्वं च सर्वमेतत् समाचरेत्।
आचार्यादथ संप्राप्य विद्यां शिष्यो विचक्षणः ।। 28 ।।
28. - - - - - - - - - - - - -
आत्मानमात्मनश्चैव वित्तं दत्त्वा तु दक्षिणाम्।
सकलं त्वर्धमंशं वा येन वा तोष्यते गुरुः ।। 29 ।।
29. - - - - - - - - - - - - -
वैदिके च समाचारे{16} लौकिके च व्यवस्थिते।
अप्रमाद्यन् सदाचार्ये{17} गुरुषु ब्राह्नणेषु च ।। 30 ।।
30. - - - - - - - - - - - - - -
{16. समयाचारे B. F. I. }
{17. सदाचारे D. }
अद्रोहं शीलयन् शश्वद्भूतग्रामे चतुर्विधे।
नित्यमात्मगुणोपेतो धर्मलक्षणसेवकः ।। 31 ।।
31. - - - - - - - - - -
संस्कारैः संस्कृतः शुभ्रैर्देवपित्रतिथिक्रियः।
दिव्यशास्राण्यधीयानो निगमांश्चैव वैदिकान् ।। 32 ।।
32. - - - - - - - - - - - - -
अलोलुपेन चित्तेन सिद्धान्ताननुसंचरन्।
यावदर्थं तु विज्ञानमाददानस्ततस्ततः ।। 33 ।।
33. - - - - - - - - - -
अदूषयंश्च शास्राणि प्रमाणैरनुसंचरन्।
आह्निकं विधिवत् कुर्वन् शास्रार्थं कर्मणां क्रमैः ।। 34 ।।
34. - - - - - - - - - - - - - -
अहरादि त्वहोरात्रं पुना रात्र्यवसानकम्।
अवन्ध्यं{18} सततं कुर्वंश्चोदितैः कर्मणां क्रमैः ।। 35 ।।
35. - - - - - - - - - - - - - - -
{18. अवश्यं B. F. }
पञ्चकालरतो{19} नित्यं पञ्चयज्ञपरायणः।
भूषितो दमदानाभ्यां सत्येनाहिंसनेन च ।। 36 ।।
36. - - - - - - - - - - - -
{19. परो D. E. }
चोदितेन क्रमेणेमां विद्यां संसाध्य यत्नतः।
{20}प्रसन्नया धिया युक्तो नित्यं स्वार्थपरार्थयोः ।। 37 ।।
37. - - - - - - - - - - - - - - -
{20. प्रपन्नया B. }
भूतिमेव परामिच्छन् {21}विभूतिं परिवर्जयेत्।
पावनः सर्वभूतानां मनसा चक्षुषा गिरा ।। 38 ।।
38. - - - - - - - - - - - -
{21. अभूतिं I. }
चित्तप्रसादनीर्देवीश्चतस्रः परिशीलयन्।
मैत्र्याद्याः शान्तिमन्विच्छन् जपयज्ञपरायणः ।। 39 ।।
39. - - - - - - - - - - - -
अप्रमाद्यन् स्वकर्मस्थः प्रमादे सति दैवतः।
प्रायश्चित्तं चरन् सम्यग्यस्मिन्यस्मिंस्तु{22} यादृशम् ।। 40 ।।
40. - - - - - - - - - - - - - - - - -
{22. यस्मिंश्च B. }
कर्मणा मनसा वाचा देवदेवं जनार्दनम्।
प्रपन्नः शरणं शश्वन्मां च तद्धर्मधर्मिणीम् ।। 41 ।।
41. - - - - - - - - - - - -
उत्तमं पुरुषं स्रीं च संदृष्ट्वा मामनुस्मरन्।
दंपती {23}पूजयन्नित्यं दांपत्यं चाप्यलोपयन् ।। 42 ।।
42. - - - - - - - - - - - - - -
{23. यस्मिंस्च B. }
शब्दस्थमर्थगं वापि पुंभावं विविधात्मकम्।
स्रीभावं विद्धि तद्रूपं लक्ष्मीनारायणं स्मरन्{24} ।। 43 ।।
43. - - - - - - - - - - - - - -
{24. स्मरेत् B. }
उत्तमां गुणसंपन्नां रूपयौवनशालिनीम्।
अलोलुपेन चित्तेन दृष्ट्वा मामेव चिन्तयन् ।। 44 ।।
44. अलोलुपेनेति। अत्यासक्तिरहितेनेत्यर्थः।
स्रीषु क्षान्तमना नित्यमवदन्नप्रियं सदा।
{25}अतिक्रमं परिहरन् संजातं चाप्यतर्कयन्{26} ।। 45 ।।
45. - - - - - - - - - - - - - - - -
{25. अतिकामं A. B. D. }
{26. अकीर्तयन् A. B. }
क्षालयन् पावनैः स्रीणां जायमानं व्यतिक्रमम्।
कुब्जां वा विकलां वापि सर्वावस्थां गतां स्रियम् ।। 46 ।।
46. पावनैरिति। शुद्धिकर्मभिरित्यर्थः। व्यतिक्रमः प्रमादः।
अविनिन्दंश्चरंस्रीणां प्रियं शास्रानुकूलतः।
एवंवृत्तः सदाचारो नरो विगतकल्मषः ।। 47 ।।
47. - - - - - - - - - - - -
{27}मद्भक्तो मत्प्रियकरो मद्याजी मत्परायणः।
प्राप्नोति परमं धाम तद्विष्णोः परमं पदम् ।। 48 ।।
48. - - - - - - - - - - - - -
{27. F. omits three lines from here. }
इति ते कथिता शक्र तारिकायाः परा स्थितिः।
विद्यानामपि चान्यासां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। 49 ।।
49. तारिकाया इति। हृल्लेखापरनाम्न्या इत्यर्थः।
इति {28}श्रीपाञ्चरात्रसारे लक्ष्मीतन्त्रे सदाचारप्रकाशो नाम सप्तविंशोध्यायः
{28. श्रीपञ्चरात्र A.; श्रीपाञ्चरात्रे B. D. }
********इति सप्तविंशोऽध्यायः********