लक्ष्मीतन्त्रम्/अध्यायः ८
← अध्यायः ७ | लक्ष्मीतन्त्रम् अध्यायः ८ [[लेखकः :|]] |
अध्यायः ९ → |
अष्टमोऽध्यायः - 8
शक्रः---
नमस्ते सिन्धुसंभूते नमस्ते पद्मसंभवे।
नमः सरोरुहावासे नारायणकुटुम्बिनि ।। 1 ।।
1. - - - - - - - - - - - -
अवतारास्तु ये प्रोक्तास्त्वदीयाः कोशपञ्चके।
[1] तान्मे विस्तरतः पद्मे पृच्छते वक्तुमर्हसि ।। 2 ।।
2. प्रथमः शक्तिकोशो भगवतः पररूपस्य चतुर्व्यूहानां च संबद्ध इति सुविदितमिति कृत्वा तमुपेक्ष्य मायादिपञ्चकोशविषयः प्रश्नः क्रियतेऽत्र---कोशपञ्चक इति।
[1.तन्मे A.]
किमर्थाः किंप्रकारास्ते कियन्तः किंस्वरूपकाः।
तत्त्वं कथय मे देवि सर्वज्ञा ह्यसि शाश्वती ।। 3 ।।
3. - - - - - - - - - - - - -
श्रीः---
अतरङ्गमनिर्देश्यमप्रकम्प्यमनूपमम्[2]।
[3] अप्रकारमसंभेद्यमविकल्पमनाकुलम्[4] ।। 4 ।।
4. प्रसङ्गाद्भगवतः पररूपस्य शक्तिकोशावस्थितिमाह---अतरङ्गमित्यादि। अत्र षष्ठाध्यायसप्तदशस्लोकोक्तमनुसंधेयम्।
[2. अरूपकम् E. I.]
[3. अप्रकाश C.]
[4. अविकारमनाकुलम् B.]
एकं नारायणं ब्रह्म शून्यं शुद्धं निरामयम्।
[5] यदिदं दृश्यते किंचिच्छ्रूयते वानुमीयते ।। 5 ।।
5. नारायण इत्याख्यातं नारायणम्।
[5. B. omits 8 lines from here.]
प्रमाणत्रयसंबोध्यं[6] भावाबावस्वलक्षणम्।
चराचरणमु स्थूलं चेतनाचेतनं जगत् ।। 6 ।।
6. प्रमाणत्रयं प्रत्यक्षानुमानशब्दाः।
[6. संभेद्यं A. C. I.]
तदिदं सकलं ब्रह्म नारायणमनुत्तरम्[7]।
[8] अविद्याविधुरानन्दस्वच्छस्वच्छन्दिचद्धनम् ।। 7 ।।
7. - - - - - - - - - - - - - -
[7. अहं भवत् A. F.; अनुत्तमम् E. I.]
[8. F. omits 4 lines from here.]
भवद्भावात्मकं दिव्यमध्वनः पारमुत्तमम्।
शक्तिमच्छक्तिभावेन तद् द्विधा व्यवतिष्ठते ।। 8 ।।
8. - - - - - - - - - - - - -
शक्तिमत्तत् परं ब्र्हन नारायणमहं भवत्।
शक्तिर्नारायणी साहमहंता भावरूपिणी ।। 9 ।।
9. अहम्; अहंप्रतीतिविषयः।
स प्रदेशो न तस्यास्ति येन भूतं मया विना।
स प्रदेशो न मे कश्चिद्विना तद्येन भूयते ।। 10 ।।
10. विना तत्; तत् ब्रह्म विनेत्यर्थः।
एकधा [9]च द्विधा चैव तैस्तैस्तत्त्वाब्धिपारगैः।
व्यपदिश्यावहे शास्रैस्तावावां सर्वकारणम् ।। 11 ।।
11. - - - - - - - - - - - -
[9. तत् B.]
भावोत्तरा व्कचित्सृष्टिः व्कचित्सा भवदुत्तरा।
भवद्भावोत्तरा व्कापि विद्वास्तत्र न मुह्यति ।। 12 ।।
12. - - - - - - - - - - - - -
एक एवावतीर्णो हि देवानां कार्यवत्तया।
नारायणो यदा साहं तत्र तद्भावभाविनी ।। 13 ।।
13. - - - - - - - - - - - -
एकैव चावतीर्णाहं यदा देवहितेप्सया।
अहंतायां मयि व्यक्तः स देवोऽहंपदार्थवान् ।। 14 ।।
14. - - - - - - - - - - - - - -
अवतीर्णौ यदा तुल्यं देवकार्यचिकीर्षया।
अन्योन्ययोः स्थितावावां भवद्भावात्मकौ [10]द्वयोः ।। 15 ।।
15. - - - - - - - - - - - - - - - -
[10. दूयौ A. B. C. D.]
इत्थं व्यवस्थिते तत्त्वे ह्यवतारगतिं शृणु।
अनिरुद्धो [11]विभुर्देवो देवदेवः सनातनः ।। 16 ।।
16. - - - - - - - - - - - - - -
[11. अभवद्देवः A. B. G.]
महाविद्यासमुद्भूतस्तदाहमपि वासव।
मत्त एव महालक्ष्म्या अभूवं कमलाख्यया ।। 17 ।।
17. मायाकोशावतारमाह---मत्त एव महालक्ष्म्या इति। अत्र षष्ठाध्यायाष्टादशश्लोकोक्तमनुसंधेयम्।
ताविमौ दम्पती दिव्यौ पितरौ जगतां मतौ।
पद्मनाभावतारे तु तावेतौ द्वावयोनिजौ ।। 18 ।।
18. प्रसूतिकोशावतारमाह---पद्मनाभावतार इत्यादिना। महालक्ष्मीमहाविद्यामहामायानामवतारोऽत्र षष्ठाध्याये विंशश्लोके पूर्वमुक्तः
नारायणावतारो यः शक्तीशो नाम नामतः।
प्रकारा बहवस्तस्य सर्वत्राहमनुव्रता ।। 19 ।।
19. - - - - - - - - - -
एकधा [12]द्विचतुर्धा च षोढा चैव तथाष्टधा।
पुनर्द्वादशधा [13]चैव तत्र नामानि मे शृणु ।। 20 ।।
20. - - - - - - - - - - - - -
[12. च चतुर्धा B. E. I.]
[13. चेति E. ]
श्रीर्नाम [14]द्विभुजस्याहमङ्कस्था वरवर्णिनी।
तस्यैवोभयतोरूपे श्रीश्च पुष्टिश्च वासव ।। 21 ।।
21. - - - - - - - - - - - - -
[14. द्विभुजा साहं A.; द्विभुजास्याहं D. ]
चतुर्दिशं तु तस्यैव श्रीः कीर्तिश्च जया तथा।
मायेति कृत्वा रूपाणि [15]भुज्येऽहं तेन विष्णुना ।। 22 ।।
22. - - - - - - - - - - - - - - - -
[15. भुञ्जेऽहं E. ]
तस्यैव कोणषट्कस्था षोढाहं शृणु नाम च।
शुद्धिर्निरञ्जना नित्या ज्ञानशक्तिश्च वासव ।। 23 ।।
23. - - - - - - - - - - - - -
तथापराजिता चैव षष्ठी तु प्रकृतिः परा।
तस्यैव चाष्टधा दिक्षु साहं रूपैर्व्यवस्थिता ।। 24 ।।
24. - - - - - - - - - - - - -
लक्ष्मीः सरस्वती सर्वकामदा प्रीतिवर्धनी।
यशस्करी शान्तिदा च तुष्टिदा पुष्टिरष्टमी ।। 25 ।।
25. - - - - - - - - - - - - -
[16]कोणद्विषट्के तस्यैव स्थिता द्वादशधारम्यहम्[17]।
श्रीश्च कामेश्वरी [18]कान्तिः क्रियाशक्तिविभूतयः ।। 26 ।।
26. - - - - - - - - - - - - - - - -
[16. कोणषट्के तु B.; कोणषट्के तु तस्यैव षड्भुजस्याहमष्टधा F. ]
[17. ह्यहम् B. ]
[18. शान्तिः A.; कीर्तिः F. ]
इच्छा प्रीती रतिश्चैव माया धीर्महिमेति च।
एवं चतुर्भुजस्यापि षोढाहं क्रमशः स्थिता[19] ।। 27 ।।
27. - - - - - - - - - - - - - -
[19. तथा E. ]
तस्यैव [20]षड्भुजस्याहमष्टबाहोश्च वासव।
द्विषड्बाहोस्तथा साहं द्विसप्तकभुजस्य च ।। 28 ।।
28. - - - - - - - - - - - - -
[20. षड्भुजस्यैवं B. E. ]
तथा षोडशहस्तस्य भुजद्विनवकस्य च।
विभज्य बहुधात्मानमियद्भेदा व्यवस्थिता ।। 29 ।।
29. - - - - - - - - - - - - -
अवतारो हि यो विष्णोः सिन्धुशायीति संज्ञितः।
स्थिताहं परितस्तस्य चतुर्धा रूपमेयुषी ।। 30 ।।
30. प्रकृतिकोशावतारमाह---सिन्धुशायीति। अत्र पञ्चमाध्यायैकविंशश्लोकोक्तमनुसंधेयम्।
लक्ष्मीर्निद्रा तथा प्रीतिर्विद्या चेति विभेदिनी।
अवतारो हि यो विष्णोः [21]श्रीपतिर्नाम नामतः ।। 31 ।।
31. - - - - - - - - - - - - - - -
[21. शक्तीशो A. ]
श्रीरित्येवाख्यया तत्र तस्याहं वामतः स्थिता।
अवतारो हि यो विष्णोर्नामतः पारिजातजित् ।। 32 ।।
32. - - - - - - - - - - - - -
[22]तदंसस्थकरा तस्य वामोत्सङ्गे हरेः स्थिता।
अवतारो हि यो विष्णोर्नाम्ना मीनधरः शुभः ।। 33 ।।
33. ब्रह्माण्डकोशावतारमाह---नाम्ना मीनधर इत्यादि।
[22. तदानन्दकरा A. G. ]
[23]अनुभ्रमामि तं तत्र साहं नौरूपधारिणी।
त्रैविक्रमोदयो विष्णोरवतारः परः स्मृतः ।। 34 ।।
34. - - - - - - - - - - - -
[23. अनुग्रहक्रमात्तत्र A. B. D. ]
आह्लादजननी गङ्गा तत्पादात्प्रभवाम्यहम्।
अनन्तशयनो नाम योऽवतारो हरेरहम् । 35 ।।
35. - - - - - - - - - - - -
स्थिता चतुर्दिशं तस्य चातुरात्म्यमुपेयुषी।
लक्ष्मीश्चिन्ता तथा निद्रा पुष्टिश्चेत्याख्यया युता ।। 36 ।।
36. - - - - - - - - - - - - - - -
इत्येषु सह सिद्धाहमवतीर्णाण्डमध्यतः।
[24]अवताराः पृथग्भूता यदा ब्रह्माण्डमध्यतः ।। 37 ।।
37. - - - - - - - - - - - - - - -
[24. A. B. C. D. F. omit six lines from here. ]
अनुव्रता तथैवाहमवतीर्णा पृथक् पृथक्।
अवतारो हि यो नाम वराहो वेदविश्रुतः ।। 38 ।।
38. - - - - - - - - - - - -
तदाहमपि भूर्नाम पृथग्भूता भजाम्यहम्।
अवतारो हि यो नाम धर्मो विष्णुः पुरातनः ।। 39 ।।
39. - - - - - - - - - - - - -
तदाहं भार्गवी नाम ख्यातिजा श्रीः प्रकीर्तिता।
अवतारो हि यो नाम दत्तात्रेयोऽत्रिनन्दनः ।। 40 ।।
40. - - - - - - - - - - - -
तदा हि तस्य भोगाय [25]सरसोऽहं समुत्थिता[26]।
अवतारो हि यो नाम वामनो वैष्णवः शुभः ।। 41 ।।
41. - - - - - - - - - - - - -
[25. सरसाहं F. ]
[26. सरःस्थिता B. ]
पद्मादहं समुत्पन्ना तदा पद्मेति विश्रुता।
अवतारो यदा विष्णोर्भार्गवो रामसंज्ञितः ।। 42 ।।
42. - - - - - - - - - - - -
तदाहं धरणी नाम शक्तिरासमयोनिजा।
अवतारो हि यो नाम रामो दाशरथिः शुभः ।। 43 ।।
43. - - - - - - - - - - - - -
जाता जनकयज्ञेऽहं क्षेत्राद्धलमुखक्षतात्।
नाम्ना सीतेति विख्याता दशाननविनाशनी ।। 44 ।।
44. - - - - - - - - - - - - -
अवतारो हि यो विष्णोश्चतुर्धा संभविष्यति।
मधुरायामहं व्यक्तिं चतुर्धैष्यामि वै तथा ।। 45 ।।
45. - - - - - - - - - - - -
रेवती रुक्मिणी चैव रतिर्नाम्ना तथा ह्युषा।
अवतारान्तरं यत्तु मोहनं बुद्धसंज्ञकम् ।। 46 ।।
46. - - - - - - - - - - - -
ताराहं तत्र नाम्ना वै [27]धारा चैव प्रकीतिता।
ध्रुवादयोऽवतारा ये केवला वैष्णवाः स्मृताः ।। 47 ।।
47. जीवदेहकोशावतारमाह---ध्रुवादय इति।
[27. धरा B. E.; दारा G. ]
तत्तच्छरीरभूताहं तेषां भोग्या व्यवस्थिता।
यत्तु [28]मे मोहनं रूपं श्रूयतेऽमृतधारकम् ।। 48 ।।
48. - - - - - - - - - - - - - -
[28. तन्मोहनं D. E.; तन्मोहिनी F. ]
भवद्भावौ तदा तत्र रूपे तुल्योपलक्षितौ।
देवैः पुरुषरूपेण स्रीरूपेण तथेतरैः ।। 49 ।।
49. - - - - - - - - - - -
सह सिद्धं [29]पृथक्सिद्धमित्येतज्जन्म मेऽद्भुतम्।
कीर्तितं तव देवेश केवलं जन्म मे श्रृणु ।। 50 ।।
50. - - - - - - - - - - - -
[29. मयीत्येतज्जन्म मे महदद्भुतम् A. G. ]
इति [30]श्रीपाञ्चरात्रसारे लक्ष्मीतन्त्रे [31]लक्ष्म्यवतारप्रकाशो नामाष्टमोऽध्यायः
[30. श्रीपञ्चरात्र A.; श्रीपञ्चरात्रे E. I. ]
[31. E. I. omit the title. ]
********इत्यष्टमोऽध्यायः********