लक्ष्मीतन्त्रम्/अध्यायः २३
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त्रयोविंशोऽध्यायः - 23
श्रीः---
व्यापकं यत् परं ब्रह्म लक्ष्मीनारायणं महत्।
{1}अहंता परमा तस्य शक्तिर्नारायणी ह्यहम् ।। 1 ।।
1. - - - - - - - - - - - - - -
{1. B. omits this line. }
अनुग्रहाय लोकानामहमाचार्यतां गता।
संकर्षणस्वरूपेण शास्रं प्रद्योतयाम्यहम् ।। 2 ।।
2. - - - - - - - - - - -
पुनश्च गुरुमूर्तिस्था सम्यग्विज्ञानशालिनी।
शक्तिमय्या स्वया दृष्ट्या करुणामन्त्रपूर्णया{2} ।। 3 ।।
3. - - - - - - - - - - - - - - -
{2. पूरया C. }
{3}पालयामि गुरुर्भूत्वा शिष्यानात्मोपसर्पिणः।
तस्माज्ज्ञेयः सदा शिष्यैराचार्योऽसौ{4} मदात्मकः ।। 4 ।।
4. - - - - - - - - - - - - - - -
{3. पावयामि B. }
{4. आचार्यः सः D. }
शिष्यं संज्ञापयेन्मन्त्रान् {5}यथा तदवधारय।
आदौ शुद्धे समे स्निग्धे देशे भूदोषवर्जिते ।। 5 ।।
5. भूदोषाः केशनखास्थिसंसर्गजाः, ऊषरत्वादयश्च।
{5. यथावत् B. D. F. G. }
वर्णानुरूपवर्णाढ्ये गोमयेनोपलेपिते।
धूपिते शल्यनिर्मुक्ते गन्धपुष्पाद्यलंकृते ।। 6 ।।
6. वर्णानुरूपेत्यादि। ब्राह्नणादिवर्णानुगुणसितादिवर्णयुक्ते इत्यर्थः। तथा चोक्तं परमसंहितायाम्---"ब्राह्नणस्य सिता भूमिः क्षत्रियस्यारुणा भवेत्। पीतवर्णा च वैश्यस्य कृष्णआ शूद्रस्य कीर्तिता।।" (7-5) इति। शल्यानि कण्टकादीनि।
पञ्चगव्येन संसिक्ते चन्दनाद्यनुलेपिते{6}।
सुमृन्मयीं च घटिकां केवलैः कुसुमैः शुभैः ।। 7 ।।
7. केवलैः; विस्रस्तैः, अग्रथितैरित्यर्थः।
{6. चन्दनाद्युपलेपिते B. C. F. I. }
प्रणवादिनमोऽन्तेन स्वेन मन्त्रेण पूजयेत्।
व्याहृत्या परिजप्याथ {7}पूर्वया प्रणवाद्यया ।। 8 ।।
8. पूर्वयेति। व्याहृत्येत्यर्थः।
{7. B. omits this and the next pada. }
मृदं भूमौ प्रसार्याथ गन्धधूपाधिवासितम्{8}।
चतुरश्रं सुवृत्तं वा द्विहस्तं हस्तमेव वा ।। 9 ।।
9. - - - - - - - - - - - -
{8. धूपादिवासितम् A.; पुष्पादिवासितम् F. }
सुसमं मातृकापीठं कृत्वा प्रस्तारयेत्तु ताम्।
एकैव भिन्नवर्गा या{9} देवी पञ्चदशाक्षरा ।। 10 ।।
10. भिन्नवर्गा; कवर्गाद्यात्मना भिन्नेत्यर्थः।
{9. वर्गस्था C.; मार्गा या D. F. }
मन्त्राणां जननी साक्षान्मम शब्दमयी तनुः।
पद्माकारेण वा मन्त्री चक्राकारेण वा स्तरेत् ।। 11 ।
11. - - - - - - - - - - - - -
पौरुषे चक्ररूपं तु पाद्मीं लक्ष्मीमनुक्रमेत्।
अग्नीषोममयी {10}शक्तिर्विसृष्टाख्या द्विरष्टधा ।। 12 ।।
12. - - - - - - - - - - - - - - -
{10. विद्या सृष्ट्याख्याता द्विरष्टका I. }
{11}स्वराख्यां तां लिखेत्पत्रमरं वा पूर्वदिग्गतम्।
पृथिव्यादिपुमन्ता ये पञ्च वर्गास्तु कादयः ।। 13 ।।
13. पृथिवी ककारः। पुमान् मकारः।
{11. स्वराख्यातां I. }
अग्न्यादिवायुपर्यन्ते तां लिखेदरपत्रवत्।
अन्तःस्थधारणारूपं यादिवान्तचतुष्टयम् ।। 14 ।।
14. - - - - - - - - - - - -
उदग्गतं लिखेत् पत्रमरं वा पूर्ववद्बुधः।
शाद्यं क्षान्तं तुरीयान्तं यदुक्तं ब्रह्मपञ्चकम् ।। 15 ।।
15. - - - - - - - - - - - - -
तल्लिखेदैशदिक्संस्थमरं पत्रमथापि वा।
शब्दाख्यं यत्परं ब्रह्म ज्योतिर्मयमनामयम् ।। 16 ।।
16. - - - - - - - - - - - - -
ध्यायेदालोकरूपेण पर्यन्ते चक्रपद्मयोः।
प्रणवाद्यैर्नमोऽन्तैस्तैरक्षरैस्तत्त्वसंज्ञकैः ।। 17 ।।
17. - - - - - - - - - - -
{12}प्रकृतिं त्वर्चयेत्तत्र तत्त्वरूपां तु मां बुधः।
ततस्तत्कर्णिकामध्ये चिन्तयेन्मन्त्रमातृकाम् ।। 18 ।।
18. - - - - - - - - - - - - -
{12. प्रतिस्वमर्चयेत्तत्र I. }
अनादिनिधनां देवीमहंतां पुरुषोत्तमीम्{13}।
पाशाङ्कुशधरां देवीं पद्मिनीं पद्ममालिनीम् ।। 19 ।।
19. पुरुषोत्तमस्य स्री पुरुषोत्तमी।
{13. पुरुषोत्तमाम् A. B. C. D. }
प्रसन्नां पद्मगर्भाभां सर्वलोकमहेश्वरीम्।
वर्णप्रक्लृप्तावयवां वर्णालंकारभूषिताम् ।। 20 ।।
20. - - - - - - - - - - -
शब्दब्रह्म तनुं विद्यात् प्रणवं तु शिरः स्मरेत्।
अ आ इति भ्रुवौविद्यादि ई विद्यात्तु चक्षुषी ।। 21 ।।
21. - - - - - - - - - - - - -
उ ऊ कर्णौ ऋ ॠ नासापुटावन्यौ कपोलकौ।
ए ऐ ओष्ठौ {14}च विज्ञेयौ ओ औ दशनपङ्क्तिके ।। 22 ।।
22. अन्यौ; लृलॄवर्णावित्यर्थः। अनयोर्नपुंसकत्वान्न नाम्ना निर्देशः।
{14. तु B. C. I. }
अं जिह्वामः समुच्चारं कचवर्गौ करौ स्मरेत्।
टतवर्गौ पदौ विद्यात् पफौ पार्श्वे स्मरेद्बुधः ।। 23 ।।
23. - - - - - - - - - - - - -
बभौ पश्चात्पुरोभागौ मं नाभिं परिचिन्तयेत्।
प्राणोष्माणौ यरौ विद्याल्लं हारं परिचिन्तयेत् ।। 24 ।।
24. - - - - - - - - - - - - -
वकारं कटिसूत्रं तु कुण्डले तु शषौ स्मरेत्।
सकारं हृदयं विद्याद्धृदयस्थं तु हं स्मरेत् ।। 25 ।।
25. - - - - - - - - - - - -
प्रसरन्तीं प्रभां विद्यात् क्षकारं विद्युदुज्ज्वलाम्।
{15}रङ्गं नासाग्रगं विद्याद्यमाख्यं हृदये स्मरेत् ।। 26 ।।
26. रङ्गम्; अनुनासिकम्।
{15. B. D. I. omit 3 lines from here. }
जिह्वामूलीयकं जिह्वामूले विद्यादनन्तरम्।
उपध्मानीयकं विद्यादोष्ठयोः क्रमशस्तथा ।। 27 ।।
27. - - - - - - - - - - - -
शुभैर्वर्णमयैः पद्मैरग्नीषोममयैः कृताम्।
बिभ्रतीं वनमालां च कण्ठात्पादावलम्बिनीम् ।। 28 ।।
28. - - - - - - - - - - - - -
अग्नीषोमार्ककोट्याभं स्फुरद्रत्नविभूषितम्।
मकुटं चिन्तयेद्विद्वान् {16}हकारं पारमेश्वरम् ।। 29 ।।
29. - - - - - - - - - - - - - -
{16. भकारं A. B. }
एवं संस्मृत्य तां देवीं मातृकां मन्त्रमातरम्।
पूजयेदर्घ्यपुष्पाद्यैरौं नमो मन्त्रमातृके ।। 30 ।।
30. - - - - - - - - - - -
इदमर्घ्यं गृहाणेति भोगैरेवमनुक्रमात्।
ततः कृताञ्जलिः प्रह्वः प्रणम्याष्टाङ्गवद्भुवि ।। 31 ।।
31. - - - - - - - - - - - - - -
पद्मस्थे पद्मनिलये पद्मे पद्माक्षवल्लभे।
सर्वतत्त्वकृताधारे मन्त्राणां जननीश्वरि{17} ।। 32 ।।
32. - - - - - - - - - - - - -
{17. ईश्वरे I. }
व्याकुरु त्वं परं दिव्यं रूपं लक्ष्मीमयं मम।
प्रार्थ्यैवं प्रयतो मन्त्री स्वयं लक्ष्मीमयो भवेत् ।। 33 ।।
33. - - - - - - - - - - - - - -
मातृकाकृतविन्यासः स्वयं सन्मातृकामयः।
उद्धरेदीप्सितं मन्त्रं शिष्यस्योपदिशेत्ततः ।। 34 ।।
34. मातृकेत्यादि। अकारादिक्षकारान्तैर्वर्णैः कृतः विन्यासः पद्मचक्रयो निक्षेपः येन सः।
बीजपिण्डात्मका मन्त्रा मन्त्रेषु श्रेष्ठतां गताः।
तत्र श्रेष्ठानि बीजानि पिण्डेभ्योऽपि सुरेश्वर ।। 35 ।।
35. - - - - - - - - - - - - -
बीजेषु रत्नभूतानि {18}सप्त बीजानि वासव।
तारकः प्रथमं बीजं द्वितीयं तारिका स्मृता ।। 36 ।।
36. तारादिमन्त्रोद्धारक्रमोऽनन्तराध्याये वक्ष्यते।
{18. तारकादीनि I. }
तयोस्तु तेजसा तुल्यं तृतीयमनुतारिका।
चतुर्थं तु जगद्योनिः परमं बीजमुच्यते ।। 37 ।।
37. - - - - - - - - - - -
{19}प्राद्युम्नं पञ्चमं बीजं षष्ठं सारस्वतं मतम्।
महालक्ष्मीमयं बीजं सप्तमं परिकीर्तितम् ।। 38 ।।
38. - - - - - - - - - - - -
{19. प्रद्युम्नः A. B. C. }
स्थूलसूक्ष्मपरत्वं तु प्रतिस्वं परिकीर्तितमे।
त्वं शक्रावहितो भूत्वा श्रृणु बीजान्यनुक्रमात् ।। 39 ।।
39. - - - - - - - - - - - - -
इति {20}श्रीपाञ्चरात्रसारे लक्ष्मीतन्त्रे {21}मातृकाप्रकाशो नाम त्रयोविंशोऽध्यायः
{20. पञ्चरात्र A.; पाञ्चरात्रे B. }
{21. लक्ष्मीमातृका C. }
********इति त्रयोविंशोऽध्यायः********