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महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-008

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महाभारतम्-10-सौप्तिकपर्व-008
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शिबिरद्वारे कृपकृतवर्माणौ संस्थाप्यान्तः प्रविष्टेन द्रौणिना धृष्टद्युम्नादिपाञ्चालानां द्रौपदेयादीनां च वधः।। 1 ।। भयाद्वहिर्निष्क्रान्तानां कृपकृतवर्मक्ष्यां वधः।। 2 ।।

धृतराष्ट्र उवाच। 10-8-1x
तथा प्रयाते शिबिरं द्रोणपुत्रे महारथे।
कच्चित्कृपश्च भोजश्च भयार्तौ न व्यवर्तताम्।।
10-8-1a
10-8-1b
कच्चिन्न वारितौ क्षुद्रौ रक्षिभिर्नोपलक्षितौ।
असह्यमिति मन्वानौ न निवृत्तौ महारथौ।।
10-8-2a
10-8-2b
कच्चिदुन्मथ्य शिबिरं हत्वा सोमकपाण्डवान्।
`कृता प्रतिज्ञा सफला कच्चित्सञ्जय सा निशि'।।
10-8-3a
10-8-3b
दुर्योधनस्य पदवीं कच्चित्परमिकां रणे।
`गत्वातिष्ठदसौ द्रौणिः कृत्वा कर्म सुदुष्करम्।।
10-8-4a
10-8-4b
धृष्टद्युम्नशिखण्डिभ्यां द्रौपद्याश्च सुतैः किल।
सञ्छन्ना मेदिनी सुप्तैर्निहतैः पाण्डुसैनिकैः।।
10-8-5a
10-8-5b
पाञ्चालैर्वा विनिहतैः शयानै रुधिरोक्षितैः।
कच्चिन्महीतलं छन्नं तन्ममाचक्ष्व सञ्जय'।।
10-8-6a
10-8-6b
[पाञ्चालैर्निहतौ वीरौ कच्चित्तु स्वपतां क्षितौ।
कच्चित्ताभ्यां कृतं कर्म तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।।]
10-8-7a
10-8-7b
सञ्जय उवाच। 10-8-8x
तस्मिन्प्रयाते शिबिरं द्रोणपुत्रे महात्मनि।
कृपश्च कृतवर्मा च द्रौणिमेवाभ्यवर्तताम्।।
10-8-8a
10-8-8b
अश्वत्थामा तु तौ दृष्ट्वा यत्नवन्तौ महारथौ।
प्रहृष्टः शनकै राजन्निदं वचनमब्रवीत्।।
10-8-9a
10-8-9b
यत्तौ भवन्तौ पर्याप्तौ सर्वक्षत्रस्य नाशने।
किम्पुनर्योधशेषस्य प्रसुप्तस्य विशेषतः।।
10-8-10a
10-8-10b
अहं प्रवेक्ष्ये शिबिरं चरिष्यामि च कालवत्।
यथा न कश्चिदपि वां जीवन्मुच्येत मानवः।
तथा भवद्ध्यां कार्यं स्यादिति मे निश्चिता मतिः।।
10-8-11a
10-8-11b
10-8-11c
इत्युक्त्वा प्राविशद्द्रौणिः पार्थानां शिबिरं महत्।
अद्वारेणाभ्यवस्कन्द्य विहाय भयमात्मनः।।
10-8-12a
10-8-12b
स प्रविश्य महाबाहुरुद्देशज्ञश्च तस्य ह।
`द्रौणिः परमसङ्क्रुद्धस्तेजसा प्रज्वलन्निव।
ततः पर्यचरत्सर्वं सम्प्रसुप्तं जनं निशि'।।
10-8-13a
10-8-13b
10-8-13c
धृष्टद्युम्नस्य निलयं शनकैरभ्युपागमत्।। 10-8-14a
ते तु कृत्वा महत्कर्म श्रान्ताश्च बलवद्रणे।
प्रसुप्ता वै सुविश्वस्ताः स्वसैन्यपरिवारिताः।।
10-8-15a
10-8-15b
अथ प्रविश्य तद्वेश्म धृष्टद्युम्नस्य भारत।
पाञ्चाल्यं शयने द्रौणिरपश्यत्सुप्तमन्तिकात्।।
10-8-16a
10-8-16b
क्षौमावदाते महति स्पर्द्व्यास्तरणसंवृते।
माल्यप्रवरसंयुक्ते धूपैश्चूर्णैश्च वासिते।।
10-8-17a
10-8-17b
तं शयानं महात्मानं विस्रब्धमकुतोभयम्।
अपोथयत पादेन शयनस्थं महीपते।।
10-8-18a
10-8-18b
सम्बुध्य चरणस्पर्शादुत्थाय रणदुर्मदः।
अभ्यजानादमेयात्मा द्रोणपुत्रं महारथम्।।
10-8-19a
10-8-19b
तमुत्पतन्तं शयनादश्वत्थामा महाबलः।
केशेष्वालभ्य पाणिभ्यां निष्पिपेष महीतले।।
10-8-20a
10-8-20b
स बलात्तेन निष्पिष्टः साध्वसेन च भारत।
अभ्याक्रान्तश्च निद्रान्धो नाशकच्चेष्टितुं तदा।।
10-8-21a
10-8-21b
`निष्पिष्य तु ततो भूमौ पाञ्चाल्यं द्रौणिरञ्जसा।
धनुषो ज्यां विमुच्याशु क्रूरबुद्धिरमर्षणः।।
10-8-22a
10-8-22b
तस्य कण्ठेऽथ बद्ध्वा तां त्वरितः क्रोधमूर्च्छितः।'
द्रौणिः क्रूरं मनः कृत्वा पाञ्चाल्यमवधीत्तदा।।
10-8-23a
10-8-23b
तमाक्रम्य पदा राजन्कण्ठे चोरसि पादयोः।
तदन्तं विस्फुरन्तं च पशुमारममारयत्।।
10-8-24a
10-8-24b
`स वार्यमाणस्तरसा बलाद्बलवता बली'।
तुदन्नखैस्तु स द्रौणिं नातिव्यक्तमुदाहरत्।।
10-8-25a
10-8-25b
आचार्यपुत्र शस्त्रेण जहि मां मा चिरं कृथाः।
त्वत्कृते सुकृतां लोकान्गच्छेयं द्विपदांवर।।
10-8-26a
10-8-26b
एवमुक्त्वा तु वचनं विरराम परन्तपः।
सुतः पाञ्चालराजस्य आक्रान्तो बलिना भृशम्।।
10-8-27a
10-8-27b
तस्याव्यक्तां तु तां वचं संश्रुत्य द्रौणिरब्रवीत्।
आचार्यघातिनां लोका न सन्ति कुलपांसन।
तस्माच्छस्त्रेण निधनं न त्वमर्हसि दुर्मते।।
10-8-28a
10-8-28b
10-8-28c
`नृशंसेनातिवृत्तेन त्वया मे निहतः पिता।
तस्मात्त्वमपि वध्यश्च नृशंसेन नृशंसकृत्।।'
10-8-29a
10-8-29b
एवं ब्रुवाणस्तं वीरं सिंहो मत्तमिव द्विपम्।
मर्मस्वभ्यवधीत्क्रुद्धः पादघातैः सुदारुणैः।।
10-8-30a
10-8-30b
तस्य वीरस्य शब्देन मार्यमाणस्य वेश्मनि।
अबुध्यन्त महाराज स्त्रियो ये चास्य रक्षिणः।।
10-8-31a
10-8-31b
ते दृष्ट्वा धर्षयन्तं तमतिमानुषविक्रमम्।
भूतमित्यध्यवस्यन्तो न स्म प्रव्याहरन्भयात्।।
10-8-32a
10-8-32b
तं तु तेनाभ्युपायेन गमयित्वा यमक्षयम्।
अध्यतिष्ठत तेजस्वी रथं प्राप्य सुदर्शनम्।।
10-8-33a
10-8-33b
स तस्य भवनाद्राजन्निष्क्रम्यानादयन्दिशः।
रथेन शिबिरं प्रायाज्जिघांसुर्द्विषतो बली।।
10-8-34a
10-8-34b
अपक्रान्ते ततस्तस्मिन्द्रोणपुत्रे महारथे।
सहितैः रक्षिभिः सर्वैः प्राणेदुर्योषितस्तदा।।
10-8-35a
10-8-35b
राजानं निहतं दृष्ट्वा भृशं शोकपरायणाः।
व्याक्रोशन्क्षत्रियाः सर्वे धृष्टद्युम्नस्य भारत।।
10-8-36a
10-8-36b
तासां तु तेन शब्देन समीपे क्षत्रियर्षभाः।
सम्भ्रान्ताः समनह्यन्त किमेतदिति चाब्रुवन्।।
10-8-37a
10-8-37b
स्त्रियस्तु राजन्वित्रस्ता भारद्वाजं निरीक्ष्य ताः।
अब्रुन्दीनकण्ठेन क्षिप्रमाद्रवतेति वै।।
10-8-38a
10-8-38b
राक्षसो वा मनुष्यो वा नैनं जानीम कोन्वयम्।
हत्वा पाञ्चालराजानं रथमारुह्य तिष्ठति।।
10-8-39a
10-8-39b
ततस्ते योधमुख्यास्तं सहसा पर्यवारयन्।
स तानापततः सर्वान्रुद्रास्त्रेण व्यपोथयत्।।
10-8-40a
10-8-40b
धृष्टद्युम्नं च हत्वा स तांश्चैवास्य पदानुगान्।
अपश्यच्छयने सुप्तमुत्तमौजसमन्तिके।।
10-8-41a
10-8-41b
तमप्याक्रम्य पादेन कण्ठे चोरसि तेजसा।
तथैव मारयामास विनर्दन्तमरिन्दमम्।।
10-8-42a
10-8-42b
युधामन्युश्च विक्रान्तो मत्वा तं राक्षसं स्म सः।
गदामुद्यम्य वेगेन हृदि द्रौणिमताडयत्।।
10-8-43a
10-8-43b
`गदाप्रहाराभिहतो नाचलद्द्रौणिराहवे'।
तमभिद्रुत्य वेगेन क्षितौ चैनमपातयत्।।
10-8-44a
10-8-44b
विस्फुरन्तं च पशुवत्तथैवैनममारयत्।
तथा स वीरो हत्वा तं ततोऽन्यान्समुपाद्रवत्।।
10-8-45a
10-8-45b
संसुप्तानेव राजेन्द्र तत्र तत्र महारथान्।
पाञ्चालवीरानाक्रम्य क्रुद्धो न्यहनदन्तिके।
स्फुरतो वेपमानांश्च शमितेव पशून्मखे।।
10-8-46a
10-8-46b
10-8-46c
ततो निस्त्रिंशमादाय जघानान्यान्पृथक्पृथक्।
भागशो विचरन्मार्गानसियुद्वविशारदः।।
10-8-47a
10-8-47b
तथैव गुल्मे सम्प्रेक्ष्य शयानान्मध्यगौल्मिकान्।
श्रान्तान्व्यस्तायुधान्सर्वानसिनैव व्यपोथयत्।।
10-8-48a
10-8-48b
योधानश्वान्द्विपांश्चैव प्राच्छिनत्स वरासिना।
रुधिरोक्षितसर्वाङ्गः कालसृष्ट इवान्तकः।।
10-8-49a
10-8-49b
विस्फुरद्भिश्च तैर्द्रौणिर्निस्त्रिंशस्योद्यमेन च।
अवक्षेपेण चैवासेस्त्रिधा रक्तोक्षितोऽभवत्।।
10-8-50a
10-8-50b
तस्य लोहितरक्तस्य दीप्तखङ्गस्य युध्यतः।
अमानुष इवाकारो बभौ परमभीषणः।।
10-8-51a
10-8-51b
ये त्वजाग्रन्त कौरव्य तेऽपि शब्देन मोहिताः।
वीक्षमाणास्तु ते तत्र द्रौणिं दृष्ट्वा प्रविव्यथुः।।
10-8-52a
10-8-52b
तद्रूपं तस्य ते दृष्ट्वा क्षत्रियाः शत्रुकर्शनम्।
राक्षसं मन्यमानास्तं नयनानि न्यमीलयन्।।
10-8-53a
10-8-53b
स घोररूपो व्यचरत्कालवच्छिबिरे तदा।
अपश्यद्द्रौपदीपुत्रानवशिष्टांश्च सोमकान्।।
10-8-54a
10-8-54b
तेन शब्देन वित्रस्ता धनुर्हस्ता महारथाः।
धृष्टद्युम्नं हतं श्रुत्वा द्रौपदेया विशाम्पते।
अवाकिरञ्शरव्रातैर्भारद्वाजमभीतवत्।।
10-8-55a
10-8-55b
10-8-55c
ततस्तेन निनादेन सम्प्रबुद्धाः प्रभद्रकाः।
शिलीमुखैः शिखण्डी च द्रोणपुत्रं समार्दयन्।।
10-8-56a
10-8-56b
भारद्वाजः स तान्दृष्ट्वा शरवर्षाणि वर्षतः।
ननाद बलवन्नादं जिघांसुस्तान्महारथान्।।
10-8-57a
10-8-57b
ततः परमसङ्क्रुद्धः पितुर्वधमनुस्मरन्।
अवरुह्य रथोपस्थात्त्वरमाणोऽभिदुद्रुवे।।
10-8-58a
10-8-58b
सहस्रचन्द्रविमलं गृहीत्वा चर्म संयुगे।
खङ्गं च विमलं दिव्यं जातरूपपरिष्कृतम्।
द्रौपदेयानभिद्रुत्य खङ्गेन व्यधमद्बली।।
10-8-59a
10-8-59b
10-8-59c
ततः स नरशार्दूलः प्रतिविन्ध्यं महाहवे।
कुक्षिदेशेऽवधीद्राजन्स हतो न्यपतद्भुवि।।
10-8-60a
10-8-60b
प्रासेन विद्ध्वा द्रौणिं तु सुतसोमः प्रतापवान्।
पुनश्चासिं समुद्यम्य द्रोणपुत्रमुपाद्रवत्।।
10-8-61a
10-8-61b
सुतसोमस्य सासिं तं बाहुं छित्त्वा नरर्षभ।
पुनरप्याहनत्पार्श्वे स भिन्नहृदयोऽपतत्।।
10-8-62a
10-8-62b
नाकुलिस्तु शतानीको रथचक्रेण वीर्यवान्।
दोर्भ्यामुत्क्षिप्य वेगेन वक्षस्येनमताडयत्।।
10-8-63a
10-8-63b
अताडयच्छतानीकं मुक्तचक्रं द्विजस्तु सः।
स विह्वलो ययौ भूमिं ततोऽस्यापाहरच्छिरः।।
10-8-64a
10-8-64b
श्रुतकर्मा तु परिघं घोरं गृह्य दुरासदम्।
अताडयत्समुद्यम्य वेगेन द्रौणिमुत्स्मयन्।।
10-8-65a
10-8-65b
स तु तं श्रुतकर्माणमास्ये जघ्ने वरासिना।
स हतो न्यपतद्भूमौ विमूर्धा विकृताननः।।
10-8-66a
10-8-66b
तेन शब्देन वीरस्तु श्रुतकीर्तिरबुध्यत।
अश्वत्थामानमासाद्य शरवर्षैरवाकिरत्।।
10-8-67a
10-8-67b
`शरैराच्छादितस्तेन द्रोणपुत्रो महारथः।
अदृश्यत महाराज श्वाविच्छललतो यथा।।'
10-8-68a
10-8-68b
तस्यापि शरवर्षाणि चर्मणा प्रतिवार्य सः।
सकुण्डलं शिरः कायाद्वाजमानमपाहरत्।।
10-8-69a
10-8-69b
ततो भीष्मनिहन्तारं सह सर्वैः प्रभद्रकैः।
आहनत्सर्वतो वीरं नानाप्रहरणैर्बलात्।।
10-8-70a
10-8-70b
शिलीमुखेन चाप्येनं भ्रुवोर्मध्ये समार्पयत्।। 10-8-71a
स तु क्रोधसमाविष्टो द्रोणपुत्रो महाबलः।
शिखण्डिनं समासाद्य द्विधा चिच्छेद सोसिना।।
10-8-72a
10-8-72b
शिखण्‍डिनं ततो हत्वा क्रोधाविष्टः परन्तपः।
प्रभद्रकगणान्सर्वानभिदुद्राव वेगवान्।।
10-8-73a
10-8-73b
यच्च शिष्टं विराटस्य बलं तु भृशमाद्रवत्।
द्रुपदस्य च पुत्राणां पौत्राणां सुहृदामपि।
चकार कदनं घोरं दृष्ट्वा तत्र महाबलः।।
10-8-74a
10-8-74b
10-8-74c
अन्यानन्यांश्च पुरुषानभिसृत्याभिसृत्य च।
न्यकृन्तदसिना द्रौणिरसिमार्गविशारदः।।
10-8-75a
10-8-75b
कालीं रक्तास्यनयनां रक्तमाल्यानुलेपनाम्।
रक्ताम्बरधरां घोरां पाशहस्तां कुटुम्बिनीम्।।
10-8-76a
10-8-76b
ददृशुः कालरात्रिं ते स्मयमानामिव स्थिताम्।
नराश्वकुञ्जरान्पाशैर्बद्धा घोरैः प्रतस्थुषीम्।।
10-8-77a
10-8-77b
वहन्तीं विविधान्प्रेतान्पाशबद्वान्विमूर्धजान्।
तथैव च सदा राजन्न्यस्तशस्त्रान्महारथान्।।
10-8-78a
10-8-78b
स्वप्ने सुप्तान्नयन्तीं तां रात्रिष्वन्यासु मारिष।
ददृशुर्योधमुख्यास्ते घ्नन्तं द्रौणिं च नित्यदा।।
10-8-79a
10-8-79b
यतः प्रभृति सङ्ग्रामः कुरुपाण्डवसेनयोः।
ततः प्रभृति तां कन्यामपश्यन्द्रौणिमेव च।।
10-8-80a
10-8-80b
तांस्तु दैवहतान्पूर्वं पश्चाद्द्रौणिर्व्यपातयत्।
त्रासयन्सर्वभूतानि विनदन्भैरवान्रवान्।।
10-8-81a
10-8-81b
तदनुस्मृत्य ते वीरा दर्शनं पूर्वकालिकम्।
इदं तदित्यमन्यन्त दैवेनोपनिपीडिताः।।
10-8-82a
10-8-82b
ततस्तेन निनादेन प्रत्यबुध्यन्त धन्विनः।
शिबिरे पाण्डवेयानां शतशोऽथ सहस्रशः।।
10-8-83a
10-8-83b
सोऽच्छिनत्कस्यचित्पदौ जघनं चैव कस्यचित्।
कांश्चिद्बिभेदपार्श्वेषु कालसृष्ट इवान्तकः।।
10-8-84a
10-8-84b
अत्युग्रप्रतिपिष्टैश्च नदद्भिश्च भृशोत्कटैः।
गजाश्वमथितैश्चान्यैर्मही कीर्णाऽभवत्प्रभो।।
10-8-85a
10-8-85b
क्रोशतां किमिदं कोऽयं कः शब्दः किन्नु किं कृतम्।
पाञ्चालानां तथा द्रौणिरन्तकः समपद्यत।।
10-8-86a
10-8-86b
अपेतशस्त्रसन्नाहान्सन्नद्वान्पाण्डुसृञ्जयान्।
प्राहिणोन्मृत्युलोकाय द्रौणिः प्रहरतां वरः।।
10-8-87a
10-8-87b
ततस्तच्छस्त्रवित्रस्ता भयादभ्यपतन्नराः।
निद्रान्धा नष्टसंज्ञाश्च तत्रतत्र निपेतिरे।।
10-8-88a
10-8-88b
ऊरुस्तम्भगृहीताश्च कश्मलाभिहतौजसः।
विनदन्तो भृशं त्रस्ता निरैक्षन्त परस्परम्।।
10-8-89a
10-8-89b
ततो रथं पुनर्द्रौणिरास्थितो भीमदर्शनः।
धनुष्पाणिः शरैरन्यान्प्रैषयद्वै यमक्षयम्।।
10-8-90a
10-8-90b
पुनरुत्पततश्चापि दूरादपि नरोत्तमान्।
शूरान्सम्पततश्चान्यान्कालरात्र्यै न्यवेदयत्।।
10-8-91a
10-8-91b
तथैव स्यन्दनाग्रेण प्रमथन्स व्यरोचत।
शरवर्षैश्च विविधैरवर्षच्छात्रवांस्ततः।।
10-8-92a
10-8-92b
पुनश्च सुविचित्रेण शतचन्द्रेण चर्मणा।
तेन चाकाशवर्णेन तथाचरत सोऽसिना।।
10-8-93a
10-8-93b
तथा स शिबिरं तेषां द्रौणिराहवदुर्मदः।
व्यक्षोभयत राजेन्द्र महाह्‌दमिव द्विपः।।
10-8-94a
10-8-94b
उत्पेतुस्तेन शब्देन योधा राजन्विचेतसः।
निद्रार्ताश्च भयार्ताश्च व्यधावन्त ततस्ततः।।
10-8-95a
10-8-95b
विस्वरं चुक्रुशुश्चान्ये बह्वबद्वं तथाऽवदन्।
न च स्म प्रत्यपद्यन्त शस्त्राणि वसनानि च।।
10-8-96a
10-8-96b
विमुक्तकेशाश्चाप्यन्ये नाभ्यजानन्परस्परम्।
उत्पतन्तोऽपतञ्श्रान्ताः केचित्तत्राभ्रमंस्तदा।
पुरीषमसृजन्केचित्केचिन्मूत्रं प्रसुस्रुवुः।।
10-8-97a
10-8-97b
10-8-97c
बन्धनानि च राजेन्द्र सञ्छिद्य तुरगा द्विपाः।
समं पर्यपतंश्चान्ये कुर्वन्तो महदाकुलम्।।
10-8-98a
10-8-98b
तत्र केचिन्नरा भीता व्यलीयन्त महीतले।
तथैव तान्निपतितानपिंषन्गजवाजिनः।।
10-8-99a
10-8-99b
तस्मिंस्तथा वर्तमाने रक्षांसि पुरुषर्षभ।
हृष्टानि व्यनदन्नुच्चैर्मुदा युक्तानि सत्तम।।
10-8-100a
10-8-100b
स शब्दः प्रेरितो राजन्भूतसङ्घैर्मुदा युतैः।
अपूरयद्दिशः सर्वा दिवं चातिमहान्स्वनः।।
10-8-101a
10-8-101b
तेषामार्तरवं श्रुत्वा वित्रस्ता गजवाजिनः।
मुक्ताः पर्यपतन्राजन्मृद्गन्तः शिबिरे जनम्।।
10-8-102a
10-8-102b
तैस्तत्र परिधावद्भिश्चरणोदीरितं रजः।
अकरोच्छिबिरे तेषां रजन्यां द्विगुणं तमः।।
10-8-103a
10-8-103b
तस्मिंस्तमसि सञ्जाते प्रमूढाः सर्वतो जनाः।
नाजानन्पितरः पुत्रान्भ्रातॄन्भ्रातर एव च।।
10-8-104a
10-8-104b
गजो राजानतिक्रम्य निर्मनुष्या हया हयान्।
अताडयंस्तथाऽभञ्जंस्तथाऽमृद्गंश्च भारत।।
10-8-105a
10-8-105b
ते भग्नाः प्रपतन्ति स्म मृद्रन्तश्च परस्परम्।
न्यपातयंस्तथा चान्यान्पातयित्वा तदाऽपिषन्।।
10-8-106a
10-8-106b
विचेतसः सनिद्राश्च तमसा चावृता नराः।
जघ्रुः स्वानेव तत्राथ कालेनैव प्रचोदिताः।।
10-8-107a
10-8-107b
त्यक्त्वाद्वाराणि च द्वास्थास्तथागुल्मानिगौल्मिकाः।
प्राद्रवन्त यथाशक्ति कांदिशीका विचेतसः।।
10-8-108a
10-8-108b
विप्रनष्टाश्च तेऽन्योन्यं नाजानन्तस्तथा विभो।
क्रोशन्तस्तात पुत्रेति दैवोपहतचेतसः।।
10-8-109a
10-8-109b
पलायतां दिशस्तेषां स्वानप्युत्सृज्य बान्धवान्।
गोत्रनामभिरन्योन्यमाक्रन्दन्त ततो जनाः।।
10-8-110a
10-8-110b
हाहाकारं च कुर्वाणाः पृथिव्यां शेरते परे।
तान्बुद्धा रणमध्येऽसौ द्रोणपुत्रो व्यपोथयत्।।
10-8-111a
10-8-111b
तत्रापरे वध्यमाना मुहुर्महुरचेतसः।
शिबिरान्निष्पतन्ति स्म क्षत्रिया भयपीडिताः।।
10-8-112a
10-8-112b
तांस्तु निष्पतितांस्त्रस्ताञ्शिबिराज्जीवितैषिणः।
कृतवर्मा कृपश्चैव द्वारदेशे निजघ्नतुः।।
10-8-113a
10-8-113b
विसस्तयन्त्रकवचान्मुक्तकेशान्कृताञ्जलीन्।
वेपमानान्क्षितौ भीतान्त्रैव कांश्चिदमुच्यताम्।।
10-8-114a
10-8-114b
नामुच्यत तयोः कश्चिन्निष्क्रान्तः शिबिराद्बहिः।।
कृपश्चैव महाराज हार्दिक्यश्चैव दुर्मतिः।
10-8-115a
10-8-115b
भूयश्चैव चिकीर्षन्तौ द्रौणपुत्रस्य तौ प्रियम्।
त्रिषु देशेषु ददतुः शिबिरस्य हुताशनम्।।
10-8-116a
10-8-116b
ततः प्रकाशे शिबिरे खङ्गेन पितृनन्दनः।
अश्वत्थामा महाराज व्यचरत्कृतहस्तवत्।।
10-8-117a
10-8-117b
कांश्चिदापततो वीरानपरांश्चैव धावतः।
व्ययोजयत खङ्गेन प्राणैर्द्विजवरोत्तमः।।
10-8-118a
10-8-118b
कांश्चिद्योधान्स खङ्गेन मध्ये सञ्छिद्य वीर्यवान्।
अशातयद्द्रोणपुत्रः संरब्धस्तिलकाण्डवत्।।
10-8-119a
10-8-119b
निनदद्भिर्भृशायस्तैर्नराश्वद्विरदोत्तमैः।
पतितैरभवत्कीर्णा मेदिनी भरतर्षभ।।
10-8-120a
10-8-120b
मानुषाणां सहस्रेषु हतेषु पतितेषु च।
उदतिष्ठन्कबन्धानि बहून्युत्थाय चापतन्।।
10-8-121a
10-8-121b
सायुधान्साङ्गदान्बाहून्विचकर्त शिरांसि च।
हस्तिहस्तोपमानूरून्हस्तान्पादांश्च भारत।।
10-8-122a
10-8-122b
पृष्ठच्छिन्नान्पार्श्वच्छिन्नाञ्शिरश्छिन्नांस्तथापरान्।
स महात्माकरोद्द्रौणिः कांश्चिच्चापि पराङ्मुखान्।।
10-8-123a
10-8-123b
मध्यदेशे नरानन्यांश्चिच्छेदान्यांश्च कर्णतः।
अंसदेशे निहत्यान्यान्काये प्रावेशयच्छिरः।।
10-8-124a
10-8-124b
एवं हि बहुभिः शस्त्रैर्घ्नतोऽपि बलवत्तरान्।
तमसा रजनी घोरा बभौ दारुणदर्शना।।
10-8-125a
10-8-125b
किञ्चित्प्राणैश्च पुरुषैर्हतैश्चान्यैः सहस्रशः।
बहुना च गजाश्वेन भूतभूद्भीमदर्शना।।
10-8-126a
10-8-126b
यक्षरक्षःसमाकीर्णे रथाश्वद्विपदारुणे।
क्रुद्धेन द्रोणपुत्रेण सञ्छिन्नाः प्रापतन्भुवि।
भ्रातॄनन्ये पितॄनन्ये पुत्रानन्ये विचुक्रुशुः।।
10-8-127a
10-8-127b
10-8-127c
केचिदूचुर्न तत्क्रुद्धैर्धार्तराष्ट्रैः कृतं रणे।
यत्कृतं नः प्रसुप्तानां रक्षोभिः क्रूग्कर्मभिः।
असान्निध्याद्वि पार्थानामिदं वः कदनं कृतम्।।
10-8-128a
10-8-128b
10-8-128c
न चासुरैर्न गन्धर्वैर्न यक्षैर्न च राक्षसैः।
शक्यो विजेतुं कौन्तेयो नेता यस्य जनार्दनः।
ब्रह्मण्यः मत्यवाग्दान्तः सर्वभूतानुकम्पकः।।
10-8-129a
10-8-129b
10-8-129c
न च सुप्तं प्रमत्तं वा न्यस्तशस्त्रं कृताञ्जलिम्।
धावन्तं मुक्तकेशं वा हन्ति पार्थो धनञ्जयः।।
10-8-130a
10-8-130b
तदिदं नः कृतं घोरं रक्षोभिः क्रूरकर्मभिः।
इति लालप्यमानाः स्म शेरते बहवो जनाः।।
10-8-131a
10-8-131b
स्तनतां च मनुष्याणामपरेषां च कूजताम्।
ततो मुहूर्तात्प्राशाम्यत्स शब्दस्तुमुलो महान्।।
10-8-132a
10-8-132b
शोणितव्यतिषिक्तायां वसुधायां च भूमिप।
तद्रजस्तुमुलं घोरं क्षणेनान्तरधीयत।।
10-8-133a
10-8-133b
स चेष्टमानानुद्विग्नान्निरुत्साहान्सहस्रशः।
न्यपातयन्नरान्क्रुद्वः पशून्पशुपतिर्यथा।।
10-8-134a
10-8-134b
अन्योन्यं सम्परिष्वज्य शयानाञ्जीवतोऽपरान्।
संलीनान्युध्यमानांश्च सर्वान्द्रौणिरपोथयत्।।
10-8-135a
10-8-135b
ब्रह्ममाना हुताशेन वध्यमानाश्च तेन ते।
परस्परं तदा योधाननयद्यमसादनम्।।
10-8-136a
10-8-136b
तस्या रजन्यास्त्वर्धेन पाण्डवानां महद्बलम्।
गमयामास राजेन्द्र द्रौणिर्यमनिवेशनम्।।
10-8-137a
10-8-137b
निशाचराणां सत्वानां रात्रिः सा हर्षवर्धिनी।
आसीन्नरगजाश्वानां रौद्री क्षयकरी भृशम्।।
10-8-138a
10-8-138b
तत्रादृश्यन्त रक्षांसि पिशाचाश्च पृथग्विधाः।
खादन्तो नरमांसानि पिबन्तः शोणितानि च।।
10-8-139a
10-8-139b
करालाः पिङ्गला रौद्राः शैलदन्ता रजस्वलाः।
जटिला भीमवक्त्राश्च पञ्चपादा महोदराः।।
10-8-140a
10-8-140b
पञ्चादङ्गुलयो रूक्षा विरूपा भैरवस्वनाः।
गजाननाश्च हस्वाश्च नीलवर्णा बिभीषणाः।।
10-8-141a
10-8-141b
सपुत्रदाराः सुक्रूराः सुदुर्दर्शाः सुनिर्घृणाः।
विविधानि च रूपाणि तत्रादृश्यन्त रक्षसाम्।।
10-8-142a
10-8-142b
पीत्वा च शोणितं हृष्टाः प्रानृत्यन्गणशोऽपरे।
इदं परमिदं मेध्यमिदं स्वाद्विति चाब्रुवन्।।
10-8-143a
10-8-143b
मेदोमज्जास्थिरक्तानां मांसानां च भृशाशिताः।
परे मांसानि खादन्तः क्रव्यादा मांसजीविनः।।
10-8-144a
10-8-144b
वसाश्चैवापरे पीत्वा पर्यधावन्विकुक्षिकाः।
नानावक्त्रास्तथा रौद्राः क्रव्यादाः पिशिताशनाः।।
10-8-145a
10-8-145b
अयुतानि च तत्रासन्प्रयुतान्यर्बुदानि च।
रक्षसां घोररूपाणां महतां क्रुरकर्मणाम्।।
10-8-146a
10-8-146b
मुदितानां वितृप्तानां तस्मिन्महति वैशसे।
समेतानि बहून्यासन्भूतानि च जनाधिप।
10-8-147a
10-8-147b
एवंविधा हि सा रात्रिः सोमकानां जनक्षये।
प्रसुप्तानां प्रमत्तानामासीत्सुभृशदारुणा।।
10-8-148a
10-8-148b
असंशयं हि कालस्य पर्यायो दुरतिक्रमः।
तादृशा निहता यत्र कृत्वाऽस्माकं जनक्षयम्।।
10-8-149a
10-8-149b
धृतराष्ट्र उवाच। 10-8-150x
प्रागेव सुमहत्कर्म द्रौणिरेतन्महारथः।
नाकरोदीदृशं कस्मान्मत्पुत्रविजये धृतः।।
10-8-150a
10-8-150b
अथ कस्‌माद्वते क्षत्रे कर्मेदं कृतवानसौ।
द्रोणपुत्रो महात्मा स तन्मे शंसितुमर्हसि।।
10-8-151a
10-8-151b
सञ्जय उवाच। 10-8-152x
तेषां नूनं भयान्नासौ कृतवान्कुरुनन्दन।
असान्निध्याद्धि पार्थानां केशवस्य च धीमतः।
सात्यकेश्चापि कर्मेदं द्रोमपुत्रेण साधितम्।।
10-8-152a
10-8-152b
10-8-152c
को हि तेषां समक्षं तान्हन्‌यादपि मरुत्पतिः।
एतदीदृशकं वृत्तं राजन्सुप्तजने विभो।।
10-8-153a
10-8-153b
ततो जनक्षयं कृत्वा पाण्डवानां महात्ययम्।
प्रत्यूषकाले शिबिरात्प्रतिगन्तुमियेष सः।।
10-8-154a
10-8-154b
नृशोणितावसिक्तस्य द्रौणेरासीदसित्सरुः।
पाणिना सह संश्लिष्ट एकीभूत इव प्रभो।।
10-8-155a
10-8-155b
स निःशेषानरीन्कृत्वा विरराम निशाक्षये।
युगान्ते सर्वभूतानि भस्म कृत्वेव पावकः।।
10-8-156a
10-8-156b
यथाप्रतिज्ञं तत्कर्म कृत्वा द्रौणायनिः प्रभो।
दुर्गमां पदवीं गच्छन्पितुरासीद्गतज्वरः।।
10-8-157a
10-8-157b
यथैव संसुप्तजने शिबिरे प्राविशन्निशि।
तथैव हत्वा निःशब्दो निश्चक्राम नरर्षभः।।
10-8-158a
10-8-158b
निष्क्रम्य शिबिरात्तस्मात्ताभ्यां सङ्गम्य वीर्यवान्।
आचख्यौ कर्म तत्सर्वं हृष्टः संहर्षयन्विभो।।
10-8-159a
10-8-159b
तावथाचख्यतुस्तस्मै प्रियं प्रियकरौ तदा।
पाञ्चालान्सृञ्जयांश्चैव विनिकृत्तान्सहस्रशः।।
10-8-160a
10-8-160b
प्रीत्या चोच्चैरुद्रक्रोशंस्तथैवास्फोटयंस्तलान्।
दिष्ट्यादिष्ट्येति चान्योन्यं समेत्योचुर्महारथाः।।
10-8-161a
10-8-161b
पर्यष्वजत्ततो द्रौणिस्ताभ्यां सम्प्रतिनन्दितः।
इदं हर्षात्तु सुमहदाददे वाक्यमुत्तमम्।।
10-8-162a
10-8-162b
पाञ्चाला निहताः सर्वे द्रौपदेयाश्च सर्वशः।
सोमका मत्स्यशेषाश्च सर्वे विनिहता मया।।
10-8-163a
10-8-163b
इदानीं कृतकृत्याः स्म याम तत्रैव मा चिरम्।
यदि जीवति नो राजा तस्मै शंसामहे प्रियम्।।
10-8-164a
10-8-164b
।। इति श्रीमन्महाभारते
सौप्तिकपर्वणि अष्टमोऽध्यायः।। 8 ।।

10-8-7 पाञ्चालैः पूर्वं निहतौ सन्तौ स्वपतां कच्चित् कोपात् स्वपतां पाञ्चालानां कर्म वधाख्यं ताभ्यां कच्चित्कृतमिति सम्बन्धः।। 10-8-8 शिबिरद्वार्यतिष्ठतामिति झ.पाठः।। 10-8-11 वां युवां प्राप्येति शेषः।। 10-8-13 उद्देशज्ञः धृष्टद्युम्नस्थलज्ञः।। 10-8-30 पादाष्ठीलैरिति झ.पाठः। तत्र पादाष्ठीलैः पादग्रन्थिभिः। पार्ष्णिघातैरित्यर्थः।। 10-8-50 तैश्छिन्नगात्रैर्विस्फुरद्भिस्तेषां शरीरादुच्चलद्भी रक्तबिन्दुभिरित्यर्थः।। 10-8-87 पाण्डुसृञ्जयान् पाण्डवसम्बन्धिनः सृञ्जयान्। पाण्डोर्गोत्रापत्यानि सृञ्जयाश्च तान्वा।। 10-8-105 अभञ्जन् गात्राण्यनमयन्। अमृद्रन् परस्परं मर्दितवन्तः।। 10-8-106 अपिषन् अपिंषन्।। 10-8-144 भृशाशिताः भृशं संन्तर्पिताः।। 10-8-145 विकुक्षिकाः विपुलकुक्षयः।। 10-8-8 अष्टमोऽध्यायः।।

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